बचपन में सुनी-पढ़ी एक कविता याद आ रही है, अपने मूल स्वरुप में तो याद नहीं रही, हाँ,उसका भाव कुछ-कुछ इस तरह था-
एक पेड़ पर पंछियों का एक जोड़ा प्रेममग्न बैठा था. अचानक एक शिकारी ने उन्हें देख लिया और अपने तीर का निशाना उन पर तान दिया। शिकारी चूकना नहीं चाहता था, इसलिए धैर्य से वह अपना निशाना साधने लगा.
उधर आसमान में उड़ते एक बाज़ ने भी उन मासूमों को देख लिया। वह भी मंडराना छोड़ उस ओर उतरने लगा.
जैसे ही पंछियों की नज़र दोनों ओर के खतरे पर पड़ी, उनके होश उड़ गए.
किंकर्तव्य-विमूढ़ होकर निरीह पखेरुओं ने अपने को भाग्य के अधीन मान आँखें बंद करलीं, और यथावत बैठे रहे.
दोनों ओर के हमले होते, लेकिन इसके पहले ही एक नन्ही चींटी शिकारी के हाथ पर रेंगती हुई चली आई. इधर चींटी के मासूम डंक से शिकारी का निशाना चूका, और उसका तीर आसमान में विचर रहे बाज़ पर जा लगा. इस तरह पंछियों के लिए दोनों रास्ते खुल गए.
आज इस रचना का रचनाकार न जाने कहाँ होगा?
लेकिन उसकी दूरदर्शिता मुझे बेचैन कर रही है. क्या इतने बरस पहले ही उसे पता चल गया था कि दिल्ली में कभी ऐसे चुनाव भी होंगे जिनमें उसकी कविता मंचित होगी? क्या उसने प्रेमपाखियों के जोड़े के दोनों पैर कुर्सी के चार पैरों के रूप में देख लिए थे.
वह कवि यदि आज होता तो शायद आगे ये भी लिखता कि "कुर्सी" हड़बड़ा कर बेचारी चींटी पर ही गिर पड़ी और फिर चींटी से न मरते बन पड़ा, और न जीते।
"रक्कासा सी नाचे दिल्ली !"
एक पेड़ पर पंछियों का एक जोड़ा प्रेममग्न बैठा था. अचानक एक शिकारी ने उन्हें देख लिया और अपने तीर का निशाना उन पर तान दिया। शिकारी चूकना नहीं चाहता था, इसलिए धैर्य से वह अपना निशाना साधने लगा.
उधर आसमान में उड़ते एक बाज़ ने भी उन मासूमों को देख लिया। वह भी मंडराना छोड़ उस ओर उतरने लगा.
जैसे ही पंछियों की नज़र दोनों ओर के खतरे पर पड़ी, उनके होश उड़ गए.
किंकर्तव्य-विमूढ़ होकर निरीह पखेरुओं ने अपने को भाग्य के अधीन मान आँखें बंद करलीं, और यथावत बैठे रहे.
दोनों ओर के हमले होते, लेकिन इसके पहले ही एक नन्ही चींटी शिकारी के हाथ पर रेंगती हुई चली आई. इधर चींटी के मासूम डंक से शिकारी का निशाना चूका, और उसका तीर आसमान में विचर रहे बाज़ पर जा लगा. इस तरह पंछियों के लिए दोनों रास्ते खुल गए.
आज इस रचना का रचनाकार न जाने कहाँ होगा?
लेकिन उसकी दूरदर्शिता मुझे बेचैन कर रही है. क्या इतने बरस पहले ही उसे पता चल गया था कि दिल्ली में कभी ऐसे चुनाव भी होंगे जिनमें उसकी कविता मंचित होगी? क्या उसने प्रेमपाखियों के जोड़े के दोनों पैर कुर्सी के चार पैरों के रूप में देख लिए थे.
वह कवि यदि आज होता तो शायद आगे ये भी लिखता कि "कुर्सी" हड़बड़ा कर बेचारी चींटी पर ही गिर पड़ी और फिर चींटी से न मरते बन पड़ा, और न जीते।
"रक्कासा सी नाचे दिल्ली !"