Wednesday, March 30, 2011

सरप्लस की अवधारणा अमेरिका में बेहतर है

एक विद्यालय में बच्चों को सिखाया गया कि यदि किसी के पास कोई वस्तु ज़रूरत से अधिक हो तो वह उसे अन्य व्यक्ति को उपयोग के लिए दे देनी चाहिए।इस शिक्षा से प्रभावित होकर एक लड़का घूमते हुए एक झोंपड़ी में जा पहुंचा, जहाँ एक वृद्धा बैठ कर खाना खा रही थी। लड़के ने कहा- माँ, यदि तुम्हारे पास कोई चीज़ ज़रूरत से ज्यादा हो तो वह मुझे देदो, ताकि मैं उसे किसी ज़रूरत मंद को देदूं। महिला ने एक रोटी उसे देते हुए कहा- बेटा यह बच गयी है, मेरे काम नहीं आयेगी, लेजा। लड़का इस से उत्साहित हो गया और चलते-चलते एक विशाल भवन में जा पहुंचा। उसे लगा, यहाँ से और भी कुछ अधिक मिलने की सम्भावना हो सकती है।वहां बैठे व्यक्ति से उसने अपनी बात कही। उस आदमी ने उत्तर दिया- यहाँ तो ऐसा कुछ नहीं है जो उपयोग में ना हो। बचा हुआ भोजन घर के जानवरों के इस्तेमाल में लिया जाता है। बहुत ज्यादा ना बचे इसके लिए थोड़ी प्लानिंग की जाती है। बची वस्तुओं से अन्य व्यंजन बना लिए जाते हैं जो बाद में कम आते हैं। लड़के को आश्चर्य हुआ। उसकी यह धरना गलत साबित हुयी की जिसके पास ज्यादा होगा उसके पास बिना काम की वास्तु भी ज्यादा होगी।

अमेरिका का दर्ज़ा वही है

किसी भी संस्कृति या सभ्यता में मनुष्य भयमुक्त कभी नहीं रहा। वह हर युग में किसी न किसी बात से डरने से नहीं बच पाया।उसे दुनिया-जहान की तमाम तरक्की करते हुए भी कभी यह भरोसा नहीं रहा कि वह किसी दैवी, पारलौकिक शक्ति के बिना रह सकता है। यही कारण है कि उसने हर देश की सीमा में, हर काल में कोई न कोई ईश्वर ज़रूर गढ़ लिया। जब भी उसे लगा कि कहीं कुछ ठीक नहीं हो रहा ,वह इस ईश्वर के सामने हाथ जोड़ कर जा खड़ा हुआ और अपनी तथाकथित विपत्ति से बचने की प्रार्थना करने लगा। भगवानों ने भी तरह-तरह से उसकी सहायता की। इस तरह धर्म और विश्वास पुष्ट होते रहे। इसमें न तो कहीं कुछ गलत है और न ही आश्चर्यजनक। बस, थोड़ी सी दिक्कत तब आयी जब किसी को कोई विपत्ति न रही। ऐसे समय शक्तिशाली मनुष्य या ताकतवर देश भला किसी भी ईश्वर को क्यों याद करे?उसे तो संकटकाल के लिए ही ईजाद किया गया है न ? कष्ट में पड़ा मनुष्य या देश यह रिस्क नहीं ले सकता कि उसका कोई परवरदिगार या रहनुमा न हो । इसी से सम्पन्न देशों को याद किया जाता है। उनसे रिश्ते बनाये जाते हैं। उनसे मदद का व्यवहार दिया और लिया जाता है।इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। हाँ, जो देश या इन्सान अपने आप को अपने पैरों पर खड़ा समझते या समझना चाहते हैं, वे किसी ताकतवर या सर्वशक्तिमान को नहीं मानते। ऐसा तब तक होता है जब तक समय उन्हें कोई सबक न सिखा दे । और हम सब की किस्मत अच्छी है कि कोई भी युग विपत्तियों के बिना ज्यादा दिन नहीं रहता।कभी कभी विपत्तियाँ पैदा करने का काम खुद ईश्वर को करना पड़ता है क्यों की अपना अस्तित्व बचाने की ज़िम्मेदारी भी तो उसी की है।

Tuesday, March 29, 2011

वो अमेरिका जिसकी हर देश नक़ल करना चाहता है

जब कोई ऊपर चढ़ जाता है तो लोगों का ध्यान इस बात पर नहीं जाता कि वह वहां तक कैसे चढ़ा, बल्कि इस बात पर जाता है कि अब वह वहां से नीचे कैसे आये? यह सच कई वर्षों से निर्विवाद है कि अमेरिका दुनिया का नंबर एक देश है। अब सवाल यह है कि इस नंबर एक की परिभाषा क्या है? क्या वहां सबसे ज्यादा लोग रहते हैं? या उस देश के पास सबसे बड़ा भू-भाग है? या फिर उस देश के पास सबसे ज्यादा धन है? इन सभी परिभाषाओं से ज्यादा एक बात और है जो शायद सबसे अधिक सटीक बैठती है - एक ऐसा देश जिसकी दुनिया में सबसे ज्यादा नक़ल होती है। शहरों की साज-सज्जा हो , माल-असबाब की गुणवत्ता हो , विकास के नए-नए सोपान हों, हर बात में सबकी दिलचस्पी यह जानने की होती है कि अमुक बात अमेरिका में कैसे होती है? हर कोई वह करना चाहता है जो अमेरिका में हो रहा हो। यह बहुत आसान भी है। किसी ने कुछ किया, वह उसमे सफल रहा तो झट आपने उसकी नक़ल कर ली। उसे जो कुछ समस्याएं आयीं उनसे आपका कोई लेना-देना नहीं, क्योंकि आपने अपना दिमाग तो लगाया ही नहीं। लेकिन आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि विकसित देशों की कोरी नक़ल कर के जो विकास के गुल खिल रहे हैं , उनसे कम से कम भारत में तो कुछ लोग खुश नहीं हो रहे। जानते हैं क्यों? क्योंकि उन लोगों को आगे बढ़ने की यह परिभाषा पसंद नहीं आ रही। वे कहते हैं कि नक़ल पंचवटी की नहीं हो रही, बल्कि सोने की लंका की हो रही है।

Monday, March 28, 2011

बात वही है जो आप चाहें

कहा जाता है कि नरक आधा भरा हुआ सभागार है। इस छोटे से वाक्य में कहने वाले ने ना जाने क्या-क्या कह दिया है। यह जुमला पिकासो की किसी पेंटिंग की ही तरह है। जिस तरह पिकासो के बनाये चित्र को देख कर सौ लोग सौ तरह की कल्पनाएँ कर लेते हैं, ठीक उसी तरह इस वाक्य के अर्थ भी अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग निकाले हैं। सुनिए, पिकासो की एक तस्वीर जब दस लोगों को एक साथ एक ही जगह दिखाई गई तो उन्होंने अलग-अलग उसके बारे में पूछे जाने पर क्या कहा। एक बच्ची को वह तस्वीर एक उड़ते हुए घोड़े की दिखाई दी। उसी चित्र को एक बुज़ुर्ग महिला ने कुए से पानी खींचती हुई औरत का बताया। एक नौजवान को वह पेड़ की डाल पर बैठा सुनहरी तोता दिखाई दिया, तो एक अन्य व्यक्ति ने उसे युद्ध के बाद वीरान पड़ी रक्त-रंजित ज़मीन के रूप में देखा। तात्पर्य यह है की कला और साहित्य का जादू एक सा है। इसकी कहीं कोई सीमा नहीं है। यही बात विचार की भी है। इसका कोई ओर-छोर नहीं होता । इसे सुनाने वाले के जेहन में उतनी ही बड़ी खिड़की खुल जाती है, जितनी उसके सोच की सीमा होती है। तो नरक को आधा भरा सभागार बताने वाले का आशय भी यही है की दुनिया में बुरे लोग जितने भी हों, अच्छे भी कम से कम उतने तो हैं ही।

Sunday, March 27, 2011

राष्ट्रीयता अकेली नहीं होती

अक्सर कहा जाता है कि राष्ट्रीयता की भावना हर देश के हर इन्सान में होनी चाहिएदिलचस्प बात यह है कि राष्ट्र कई बार परस्पर विरोधी भी होते हैंएक दूसरे के दुश्मन भी होते हैंएक दूसरे के खून, ज़मीन और माल के दुश्मन भी होते हैंयहाँ तक कि ऐसी मिसालें भी मौजूद हैं , जब यह दुश्मनी सदियों तक चलती हैएक देश अपने खजाने को दूसरों को बर्बाद करने में खर्च करता हैनक़्शे पर अपनी सीमाओं में इजाफा करने के लिए सीमा पार के जीते-जागते इंसानों के खून से होली खेली जाती हैहजारों घरों को नेस्तनाबूद करके अपनी कूटनीतिक ख्याति बनाने की कोशिशें की जाती हैंऔर इन सब बातों को बनाये रखने के लिए जिस बल- ताकत की ज़रूरत होती है, उसे ' राष्ट्रीयता ' कह कर संजोया जाता हैदेश के युवा और ताकतवर रहवासियों से कहा जाता है कि वे शस्त्र हाथ में लेकर दूसरी ज़मीन के लोगों को जान से मार दें और यदि वे खुद इस प्रक्रिया में मर भी जाएँ तो उनके घर वालों को तसल्ली दी जाती है कि वे मरे नहीं हैं, बल्कि अपने देश के लिए कुर्बान हुए हैंयह दोहरा बर्ताव ' राष्ट्रीयता ' के अंतर्गत माना जाता है

तब क्या यह माना जाये कि राष्ट्रीयता कोई बहुत बुरी भावना हैक्या यह भावना किसी में नहीं होनी चाहिए? यह प्रश्न जितना विचित्र है, इसका उत्तर उतना ही सहज हैइसका उत्तर यह है कि राष्ट्रीयता की भावना सब में होनी चाहिए, और बल्कि किसी भी देश की युवा शक्ति और उसके बचपन में तो यह भावना कूट-कूट कर भरी होनी चाहिएक्योंकि यह भावना जन्मजात नहीं होती, बल्कि देशवासियों में पैदा की जाती हैऔर यह भावना हमेशा बुरी भी नहीं होतीहमेशा खतरनाक भी नहीं होतीबस, केवल एक छोटी सी बात यदि समझ ली जाये तो यह भावना विश्व के लिए पूरी तरह निरापद भी हो सकती हैवह छोटी सी बात यह है कि ' राष्ट्रीयता ' की भावना कभी अकेली नहीं होनी चाहिए, इसके साथ हमेशा " इन्सानियत k भावना भी होनी चाहिए


'

Tuesday, March 22, 2011

इस राह से जाते हैं कुछ सुस्त कदम रस्ते

एक बार एक मुशायरे में गुलज़ार ने लोगों के बीच अपनी एक नज़्म के माध्यम से यह सवाल उठाया था, कि मौत तो न्यायप्रिय है, सभी पर बारी-बारी से आती है, ज़िन्दगी सब पे क्यूँ नहीं आती? उस समय तो शेर पर दाद देने वाली तालियों की गडगडाहट में यह मार्मिक सा सवाल दब कर रह गया, पर बाद में एक दिन बैठे-बैठे मैंने सोचा- शायद कुछ लोगों को दूसरों की ज़िन्दगी से जीवन अमृत खींचने का शौक होता है, इसी से कुछ लोगों पर ज़िन्दगी नहीं आ पाती। यदि सबका पेट अपने हिस्से की ज़िन्दगी से भर जाये, तो ज़िन्दगी भी सभी पे आ जाये।
खैर, हर समय ऐसी बातें करने से साम्यवाद का पक्षधर होने का आक्षेप लग सकता है। एक दिलचस्प बात यह है कि मुझे आक्षेप से भय नहीं लगता, बल्कि साम्यवाद ही अच्छा नहीं लगता।साम्यवाद कूटनीति को बहुत आसानी से छिपा लेता है। इस से आम आदमी को पता नहीं चल पाता कि कौन उसका वास्तविक हितैषी है और कौन उसकी दुर्दशा पर मगरमच्छी आंसू बहाने वाला।
भारत के साम्यवादी गढ़ बंगाल में जल्दी ही चुनाव होने वाले हैं। कुछ लोगों को लग रहा है कि शायद इस चुनाव के बाद बंगाल को एक बार फिर ज्योति बासु की भांति कुर्सी पर लम्बी पारी खेलने वाले मुख्यमंत्री के रूप में ममता बनर्जी मिलने वाली हैं। ममता ने देश भर के रेल संसाधनों का मुंह यथाशक्ति बंगाल की ओर मोड़ तो दिया है, देखना यह है कि इन रेलों में बैठकर कितने वोट बंगाल जा पाते हैं।
वोट, कुर्सी, सत्ता के समीकरण जो भी रहें देश को फासीवाद के रैपर में लिपटा हुआ एक तोहफा ज़रूर मिलने वाला है। सारे देश के लोग अपने घर को जीतकर दिल्ली की ओर देखते हैं। ममता दिल्ली से ऊब कर बंगाल की ओर देखने लगें तो यह क्षेत्रीयता की मानसिकता का पोषण ही तो है।

Monday, March 21, 2011

बिल्ली अपनी जिज्ञासा से भी मरती है.

जापान के हादसे ने एक चिंता और बढ़ा दी। तकनीक के इतने ज़बरदस्त इस्तेमाल वाले देश में किसी अनहोनी का अंदेशा इतने समय पहले क्यों नहीं महसूस कर लिया गया, कि किसी अनिष्ट से बचने की पर्याप्त तैयारी हो पाती। निश्चित ही जापान ने जितने कम समय में भारी विध्वंस को समझ पाने की तत्परता दिखाई वह किसी भी अन्य देश की तुलना में काबिले-तारीफ ही है। पर फिर भी , क्या ऐसी तकनीक का इतना परिमार्जन और नहीं हो सकता कि जान-माल की हानि न हो? जहाँ तक हमारे भारतीय शहरों का सवाल है, कुछ जयपुर, जोधपुर जैसे शहर तो पानी की कमी को झेलते हुए उभर रहे हैं। इन शहरों में बनती ऊंची इमारतें तो इसी बिना पर खड़ी होती जा रही हैं कि बाद में गहरे तक ज़मीनी पानी का विदोहन करके इनकी प्यास को बुझाये रखने का प्रयास किया जायेगा। ऐसे में यदि ज़मीन ने खोखली होते-होते एक दिन जापान जैसा मंज़र दिखा दिया तो न जाने क्या हाल होगा। कहते हैं, मुसीबत से तभी घबराना चाहिए जब वह सर पर आकर खड़ी हो जाये, नहीं तो आशावादी लोग ' नेगेटिव थिंकिंग ' का आरोप जड़ देते हैं। पर क्या ' आशावादी ' लोगों पर मुसीबत मोल लेने के आदी होने का इलज़ाम नहीं लगाया जा सकता।
बात एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप की नहीं है, बात भविष्य को सुरक्षित तरीके से प्लान करने की भी तो है। एक कहावत यह भी तो है कि बुद्धिमान लोग समस्या को सुलझा लेते हैं जबकि विलक्षण लोग समस्या को आने ही नहीं देते।क्या जापान जैसे देश के लोग ' विलक्षण ' की श्रेणी में नहीं आना चाहेंगे?
और भारत में तो हम अपनी गलती भी आसानी से मानने को तैयार नहीं होते। हमारे पास बंदूख चलाने को ' भाग्य ' का कन्धा भी तो है।ईश्वर की लीला भी तो है। हमारी महिमा अपरम्पार है। हम चिंता क्यों करें?बिल्ली अपनी जिज्ञासा के कारण भी तो मारी जाती है।

Saturday, March 19, 2011

अपना हक़ जानिए

भारत में आज होली का त्यौहार है। वर्षों से ऐसा हो रहा है कि इस त्यौहार पर सब लोग एक दूसरे से मिल कर एक दूसरे पर रंग लगाते हैं और एक दूसरे का मुंह मीठा करवाते हैं। संयोग से आज देश की स्थिति ऐसी है कि लोगों के जीवन में काले- मटमैले रंग घुल गए हैं। देश को महंगाई,भ्रष्टाचार,अराजकता जैसे दानवों ने घेर रखा है और आम आदमी किंकर्तव्य-विमूढ़ सा है। देश की उत्पादकता रसातल में गिरती जा रही है। हर कोई बिना श्रम किये चमत्कारी उपायों से धन कमाना चाहता है। ऐसे में सवाल यह है कि यदि हर कोई बैठे-बैठे खाने की मानसिकता पाल लेगा तो देश कि थाली में भोजन आएगा कैसे?
आइये, इस होली पर हम यह व्रत लें कि जब भी खाने बैठेंगे तो एक बार मन में यह ज़रूर विचार लेंगे कि जो कुछ हम खा रहे हैं, क्या पर्याप्त मेहनत कर के हमने उस पर अपना हक़ बना लिया है?यदि नहीं बनाया, तो यकीन जानिए, आप किसी दूसरे के हिस्से का खा रहे हैं।

Friday, March 18, 2011

इंसान और कुदरत एक से हो गए

आज भारत के अख़बारों में एक ऐसी खबर है जो मार्मिकता में किसी प्राकृतिक अनावृष्टि, अतिवृष्टि या सुनामी से कम नहीं है, लेकिन फर्क केवल यह है कियह कहर प्रकृति ने नहीं ढाया बल्कि मनुष्य के दिमाग में बैठे हुए शैतान ने ढाया है। और अब दुःख इस बात का है कि ऐसे शैतान रोज़ बेरोक - टोक ज्यादा से ज्यादा इंसानों के दिमाग में बैठते जा रहे हैं । आदमी सोच ही नहीं पाता कि जीवन का अर्थ क्या है, बैठे- बैठे चंद मिनटों में, अपना भी जीवन और दूसरों का भी जीवन नष्ट कर लेता है। मानव अधिकार पर कार्य करने वाले तमाम लोग फिर इन मानवता से छिटके हुए लोगों को बचाने के लिए मैदान में आ जाते हैं पर यह भूल जाते हैं कि जिन लोगों का जीवन इन दैत्य जैसे इंसानों ने ख़त्म कर दिया उनके मानव-अधिकार और न्याय का क्या होगा। क्या प्रकृति यही निर्णय लेगी कि एक दिन सबको मारकर धरती को एक बेजान नक्षत्र की तरह अंतरिक्ष में लटका दे?
ताज़ा घटना यह है। कुछ लुटेरों ने एक वृद्धा के चांदी के आभूषण उसके पैर काटकर चुरा लिए। वे भाग गए। शासन, प्रशासन और कानून उनका कुछ नहीं कर पाए। वृद्धा के परिवार के एक युवक ने ऊँची टंकी से छलांग लगा कर न्याय की गुहार लगाते हुए अपने बदन को आग के हवाले करने के बाद जान दे दी। नीचे खड़ी पुलिस की गाड़ी में बैठे एक अधिकारी को उत्तेजित भीड़ ने घेरकर आग लगा कर मार डाला। अगली सुबह मीडिया ने यह राम कहानी घर- घर पंहुचा दी।
जो न्याय पालिका चालीस साल से लाइलाज बीमारी से जूझ रहे मृत प्राय शरीर को इच्छा मृत्यु की इज़ाज़त नहीं दे सकती अब वह बताये कि वह इन में से किस -किस को क्या- क्या दे सकती है।

Tuesday, March 15, 2011

वे जापान के वाशिंदे हैं

जापान से लगातार आरही खबरें हमें क्या संकेत देती हैं? शायद यह प्रकृति का एक इशारा है कि आज भी सर्वशक्तिमान सत्ता प्रकृति ही है। हम अपनी तमाम प्लानिंग और कार्यक्षमता के बावजूद कभी-न- कभी ऐसे मुकाम पर पहुँच ही जाते हैं, जब हमें महसूस होता है कि अभी भी सब कुछ हमारे हाथों में नहीं है। हमने शक्ति और ऊर्जा के इतने स्रोत विकसित कर लिए कि अब यह स्रोत कब हमारे विकास पर पानी फेर दें, नहीं कहा जा सकता। लेकिन यहाँ एक सवाल फिर यही खड़ा होता है कि क्या ऐसी आपदाओं के प्रत्युत्तर में हम अपनी जिजीविषा को तिलांजलि देदें? कदापि नहीं। किसी आगामी हार के चलते मौजूदा प्रयाण और प्रयास नहीं रोके जा सकते। हमारी कहानी ऐसी नहीं है। हमारा इतिहास तो प्रकृति से लगातार मुठभेड़ का है। हम प्रकृति की सुन कर अपनी करते रहे हैं।हमने अपनी सुनाकर प्रकृति को उसकी मनमर्जी नहीं करने दी है। तो एक बार फिर, हमारा ऐलान वही होना चाहिए, हमारा रास्ता वही होना चाहिए।
सबसे पहले तो सारे विश्व को जापान की जनता को यह भरोसा दिलाना चाहिये कि वे आपदा की घड़ी में अकेले नहीं हैं।फिर हर संभव माली और संवेदनात्मक मदद उनतक पहुंचानी चाहिये। वहां के लोगों को महसूस होना चाहिये कि दुनिया में चारों ओर ऐसे लोग हैं जो उनके साथ ओलम्पिक में खेलते रहे हैं, जो उनके देश घूमने और पढने आते रहे हैं।जो उनके ज्ञान और कर्मठता के कायल हैं।
बहुत ज्यादा देर तक मदद की ज़रूरत उन्हें नहीं पड़ेगी।वे जापान के वाशिंदे हैं।

Sunday, March 13, 2011

लोकतंत्र में उदासीनता का सम्मान न हो

अमेरिका और भारत, दोनों में लोकतंत्र है। लोकतंत्र में लोक, अर्थात जनता की भागीदारी होना बहुत ज़रूरी है। कभी-कभी ऐसा होता है कि जनता की भागीदारी चुनाव में बहुत चिंताजनक स्तर तक कम हो जाती है। विशेषकर भारत में जब कभी चुनावी माहौल ठंडा या उदासीन दिखाई देता है तो वोट डालने वालों का प्रतिशत गिर कर २०-२५ % तक भी आ जाता है। ऐसे में कभी- कभी तो मात्र १० %वोट पाने वाला भी जीत जाता है। तब ऐसा अहसास होता है कि निर्वाचित व्यक्ति जनता का सही प्रतिनिधित्व नहीं करता। क्या ऐसी स्थिति में चुनाव को ख़ारिज कर के दोबारा मतदान की प्रक्रिया अपनाई जाये? शायद नहीं। क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में इन बातों पर सोचना ज़रूरी है-
जो लोग वोट देने नहीं आये उनके विश्लेषण की ज़रूरत है। कभी- कभी ऐसा होता है कि सभी उम्मीदवारों को नाकाबिल जान कर जनता यह रुख अख्तियार करती है कि जो हो रहा है, सो ठीक है। हम इसे - ' कोऊ नृप होय हमें का हानी ' वाली भावना कहते हैं।शायद अब तो लोग ऐसा सोचते हैं कि - कोऊ नृप होय हमें का लाभ?ऐसे में चुनाव को खारिज करके दोबारा चुनाव की मशक्कत करने का कोई फायदा नहीं है।
लेकिन ऐसी परिस्थितियों में जीतने वाले की क्षमता या उपलब्धि को कम करके आंकना क्या उचित है? निश्चित ही नहीं। यहाँ हमें यही मानना होगा कि जो लोग वोट डालने की ज़हमत उठाने नहीं आये वे परोक्ष रूप से जीतने वाले के साथ ही हैं।इसे ऐसे समझिये- क्रिकेट के वर्ल्ड कप में कुल १४ टीमे भाग ले रही हैं। क्या जो टीम जीतेगी वह मात्र १४ देशों की विजेता होगी ? नहीं ना ? तो ठीक ऐसे ही जो लोग मैदान में नहीं आये हैं, वे विजेता को पहले ही स्वीकार कर चुके हैं। अतः लोकतंत्र को केवल संख्या का खेल नहीं माना जा सकता , चाहे बात किसी भी देश की हो।

अमेरिका की यह खाई चौड़ी नहीं है

आजकल एक दौर आया हुआ है, जिसमे लोग आने वाले समय की कल्पना करते हैं और अटकलें लगाते हैं कि तब जीवन कैसा होगा। आने वाले कल को लेकर जिज्ञासु होना एक अच्छा संकेत है। लेकिन जब हम इन कपोल-कल्पित बातों के ज़खीरे को खंगालने बैठते हैं तो एक बात सामने आती है।हम इस तरह बात करते हैं कि आज जीवन ऐसा है और उस समय ऐसा होगा। किन्तु हम इस तथ्य को नज़रन्दाज़ कर जाते हैं कि किसी समय भी सबका जीवन एक सा नहीं होता। बहुत सारे लोग जीवन में बहुत आगे होते हैं, उसी तरह ढेर सारे लोग समय से पीछे भी होते हैं। अतः जब ऐसे आलेखों में ऐसी शंका जताई जाती है कि ' चालीस साल बाद सब कुछ इतना तकनीकी हो जायेगा कि भेड़-बकरी चराने वाले भी उन्हें रिमोट से हैंडल करेंगे...' तो बात की विश्वसनीयता अपने आप दाव पर लग जाती है।क्योंकि भेड़-बकरी चराने वालों के पास अभी वह तकनीक पहुचने में ही बीसियों साल लगेंगे जो आज की मौजूदा तकनीक है। ऐसे में बात अतिशयोक्ति बन कर उसकी गंभीरता खंडित हो जाती है।
खैर , ऐसे सवाल उठाने के पीछे यह मंशा नहीं है कि कल्पना का गला घोटा जाये या हर बात में नकारात्मकता तलाशी जाये। मैं केवल यह कहना चाहता हूँ कि ' ग्लोबल ' होने का मतलब यह भी है कि जीवन में पिछड़ते जा रहे लोगों को साथ लेने की कोशिश भी की जाये। कुछ लोग पथ प्रदर्शक के रूप में आगे अवश्य बढ़ें पर कोई सफलता तभी कारगर होगी जब उसे ज्यादा से ज्यादा लोगों के लिए सुलभ बनाने पर ध्यान दिया जायेगा।
अमेरिका की तारीफ का एक कारण यह भी बनता है कि यहाँ बहुत पिछड़े नहीं छोड़े जाते। देश के सबसे अमीर और सबसे गरीब व्यक्ति के बीच का अंतर अपेक्षाकृत कम है।

Saturday, March 12, 2011

लम्हों की खता और सदियों का रोना

दो पडौसी थे। वैसे तो दोनों लगभग समान स्तर के थे- कमाई भी बराबर, कामकाज भी एक सा, पर एक अंतर था। एक के बच्चे बड़े समझदार, ईमानदार और बुद्धिमान थे मगर दूसरे के बच्चे शरारती, पढ़ाई से जी चुराने वाले, उधमी।दोनों पडौसी जब भी मिलते, किसी न किसी बात पर बच्चों का ज़िक्र आ ही जाता।समझदार बच्चों के माता-पिता तो फिर भी कुछ न कहते पर शरारती बच्चों के माता-पिता को मन ही मन ऐसा लगता रहता, कि इनके बच्चे देखो, कितने होशियार हैं। आखिर उनकी ईर्ष्या ने एक तरकीब निकाल ही ली।अब वे जब भी आते, खुद अपने बच्चों का ज़िक्र न करते, बल्कि उन्होंने अपने किसी दूर के रिश्तेदार के बच्चों का ज़िक्र करना शुरू कर दिया। संयोग से इन दूर के रिश्तेदार के बच्चे भी होशियार और समझदार थे। बस, अब उन्हें अपने पडौसियों को बार-बार नीचा दिखाने का बहाना मिल गया। वे जब भी आते रिश्तेदार के बच्चों की तारीफ के पुल बांध-बांध कर अपने पडौसियों के सामने अपना जी हल्का करते रहते। वे अपने खुद के बच्चों की नालायकी को छिपाने का तरीका तलाशने में ऐसे खो गए कि धीरे-धीरे अपने बच्चों से दूर होते चले गए।समझदार पडौसी उनकी चेष्टाओं का मज़ा मंद-मंद मुस्करा कर लेते रहे।
कई बार हमारे भीतर कीचड़ का ऐसा ही ज्वार पनप जाता है। हम दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ में और भी रसातल में जाते चले जाते हैं। यदि हम अपनी ईर्ष्या पर काबू पाने में सफल नहीं होते तो एक दिन हमारी स्थिति उस पोंगा-पंडित की तरह हो जाती है जो दूसरे की थाली गन्दी करने के लिए उसमे विष्ठा खाने को उद्यत हो जाता है।यह स्थिति केवल आदमी की ही नहीं, बल्कि समाजों या देशों तक की भी हो जाती है। और ऐसा जब देशों के मामलों में होता है तो लम्हों की खता सदियों तक रुलाती है।

ऐसे दिन किसी पर कभी न आयें

जीवन के प्रति हमारा नजरिया प्राय दो तरह से काम करता है- एक तो यह, कि जीवन हमारा है, और यह तभी तक है, जब तक हम हैं।यदि हम दुनिया से जा रहे हैं, तो अब हमें किसी बात से कोई मतलब नहीं है। कहीं भी, कुछ भी हो जाये। चाहे दुनिया तहस-नहस हो जाये। हमें क्या करना?
दूसरा यह, कि जीवन हमारा है। दुनिया हमारी है, जब तक हैं, शान से जियेंगे, जब नहीं रहेंगे तब भी हमारे परिजन तो रहेंगे। कुछ भी ऐसा न करें कि दुनिया को किसी भी तरह का नुकसान हो। बल्कि इस बगिया को इस तरह छोड़ कर जाएँ कि हमारे जाने के बाद भी हमारे बच्चे और दूसरे लोग यहाँ आराम से रहें और हमें याद भी करें।
आपने देखा होगा कि जीवन का यह दूसरा रूप इंसानों ही नहीं, बल्कि अन्य प्राणियों में भी कभी-कभी दिखाई दे जाता है। जब एक गाय अपने बछड़े को बचाने के लिए शेर के सामने आ जाती है, तब यही भावना काम करती है। उस समय गाय यह नहीं सोचती कि मेरे मरने के बाद भी शेर मेरे बछड़े को मार ही सकता है,अतः अभी अपनी जान बचालूं।उसकी हार्दिक इच्छा यही होती है कि उसके जीते-जी उसके बछड़े को कुछ न हो।
जीवन का यही रूप स्वस्थ दृष्टिकोण है। जहाँ तक हो सके हमें इसी भावना का पोषण करना चाहिए।
और आज तो हमारे सामने एक इससे भी बड़ा सवाल है। हम कल रात से जीवन को तहस-नहस होता देख रहे हैं।हमारे जाने के बाद नहीं, यह तांडव तो हमारे जीते जी हुआ है। प्रकृति की यह विभीषिका उन लोगों को झेलनी पड़ी है, जो मानसिक और तकनीकी रूप से अत्यंत सक्षम हैं।जापान के इस विनाशकारी भूकंप को हम यह कह कर अनदेखा नहीं कर सकते कि यह एक प्राकृतिक आपदाएं झेलने के अभ्यस्त देश की सामान्य भौगोलिक घटना है।
हमें अपनी शक्ति-भर कोशिश इस दुःख को कम करने की ज़रूर करनी चाहिए।

Thursday, March 10, 2011

आन्दोलन का श्रम सीखने में लगे

अमेरिका भौगोलिक रूप से जितना विशाल है, उतना ही विशाल वह हर तरह से एक देश के रूप में भी है। वहां सैंकड़ों जातियों,धर्मों, विचारों के लोगों का आना-जाना भी होता रहा है। लेकिन वहां की वर्तमान भाषा क्या है? अमेरिकी अंग्रेजी। शासन के कामकाज में इसके सिवा कोई और भाषा नहीं है, चाहे दर्ज़नों भाषाओँ में अनुवाद की बेहतरीन सुविधाएँ मौजूद हों।वहां का हर व्यक्ति तो इसके लिए तैयार रहता ही है, बाहर से आने वाले भी, चाहे वह जिस देश से भी आये हों, इसके लिए तैयार होकर ही आते हैं। यही कारण है कि देश एक सुर से बोल पाता है।
वहां ऐसी भाषिक विविधता नहीं है कि शासकीय कामकाज में भी देश के एक राज्य का व्यक्ति माता को मां बोले,दूसरे राज्य का माई बोले,तीसरे राज्य का चाई बोले,चौथे का आई बोले, पांचवे का अम्मा बोले ...और इसकी कहीं कोई सीमा नहीं हो।इतना ही नहीं, बल्कि माँ बोलने वाला बरसों बाद इस बात के लिए आन्दोलन पर उतर आये कि उसे महतारी बोलने की अनुमति क्यों नहीं दी जा रही? ऐसे में देश की भाषिक स्वाधीनता की बात करना तो बेमानी है ही, देश को एक सूत्र में बांधे रखना और भी कठिन है।
अमेरिका और दूसरे विकसित देशों ने इस का हल बेहद संजीदगी से निकाल रखा है। वहां यह सवाल कभी नहीं आता कि यह भी कोई समस्या है। एक भाषा में एक ही चीज़ के लिए कई शब्दों का होना, साहित्यिक रूप से उसकी सम्रद्धता का द्योतक हो सकता है, पर उसमे से अपनी जानकारी वाले शब्द के लिए ही लड़ मरना सामूहिक खोखलेपन के सिवा कुछ और नहीं हो सकता।इससे न भाषाएँ सम्रद्ध होती हैं न समाज। विकल्प यही है कि देश की एक ज़बान हो, और उसे न जानने वाले - सीखें।

जो कुछ नहीं कहते

बोलने से कितना फर्क पड़ जाता है। शायद बोलने, न बोलने वाले के व्यक्तित्व में ज़मीन-आसमान का फर्क पड़ जाता है। चिड़िया,मक्खी,चींटी,छिपकली यह सब हमारे घर, यहाँ तक कि हमारे शयन-कक्ष या बाथरूम में भी बेरोक-टोक घूमते रहते हैं। कोई इनकी उपस्थिति को गंभीरता से नहीं लेता। ज़रा कल्पना कीजिये कि यदि यह सब बोलने में सक्षम होते तो क्या हम इन्हें अपने आस-पास यूँ ही बेख़ौफ़ घूमने देते?
इसी तरह इंसानों की नियति भी होती है। यदि इन्सान वाचाल या बात को परख कर उसपर टिप्पणी करने वाला है तो उसकी उपस्थिति को लोग हलके में नहीं लेते। उसकी मौजूदगी का पूरा ध्यान रखा जाता है। उसके समक्ष गोपनीय कार्य-व्यवहार नहीं किये जाते। किन्तु यह बात भी एक सीमा तक ही काम करती है। यदि आप हर बात पर अनावश्यक टोकाटाकी करने वाले हैं, तो भी लोग आपको गंभीरता से लेना बंद कर देते हैं।
अमेरिका, यूरोप या ऐसे ही विकसित क्षेत्रों के निवासियों को ध्यान से देखिये। उनमे यह जन्म-जात गुण होता है कि वे जितना परिश्रम टीका- टिप्पणी में करते हैं, उससे कहीं ज्यादा चीजों को ख़ामोशी से ' ओब्ज़र्व ' करने में करते हैं। शांत अवलोकन भी एक कला है जो आपको संजीदा और सभ्य बनाती है।हाँ, यहाँ एक बात ध्यान रखिये कि मैंने एक नहीं , बल्कि दो बातें कहीं हैं। हमें वाचाल या मुखर होना चाहिए, एक बात। और हमारी मुखरता मर्यादित व सोची-समझी हो, यह दूसरी बात।
अब एक बात और। आप सोच रहे होंगे कि यह बात मैं क्यों कह रहा हूँ।इसलिए, कि आगे मैं अमेरिका और भारत की भाषिक असमानता पर भी कुछ बात करना चाहता हूँ। कहते हैं कि जिसे बोलना आता है वो बाज़ार में खड़ा होकर मिट्टी भी बेच देता है, और जिसे बोलना नहीं आता उसकी दुकान पर सोना भी बिना बिका रखा रह जाता है।

Saturday, March 5, 2011

पर नहीं चाहिए कल्पना की उड़ान को

पिछले दिनों पढ़ने में आया कि अमेरिका में वाशिंगटन में एक समूह से पूछा गया कि २०८८ में दुनिया में जन-जीवन कैसा होगा। लोगों ने बड़े दिलचस्प उत्तर दिए। ज़्यादातर उत्तरों में यही संकेत था कि लोग जो कुछ अभी हो रहा है, उसे और शिद्दत से जीने को लालायित होंगे। लोगों ने जवाब देते समय कल्पना का सहारा कम लिया, किन्तु संवेगों के बढ़ने को ज्यादा तरजीह दी। मुझे तो यही लगता रहा- कि काश मैं भी इस वक्त वाशिंगटन में होता और सवाल पूछने वालों से मुखातिब हो पाता।
यदि मुझे इस सवाल का जवाब देने का अवसर मिलता तो मेरा उत्तर दो भागों में बंटा हुआ होता। पहले तो मैं कल्पना के सहारे बताता कि २०८८ कैसा होगा, फिर मैं यह भी बताता कि उसे कैसा होना चाहिए।
मुझे लगता है कि २०८८ तक आते-आते प्राणिजगत के कम से कम कुछ जीव मनुष्य पर ' डोमिनेट ' करने लग जायेंगे।उनमे से कुछ तो हमारी तरह बोलने लग जायेंगे। ऐसी सम्भावना बहुत है कि जो जीव ' पेट ' के रूप में हमारे साथ रहते आये हैं वे ऐसा कौशल ज़रूर हासिल कर लेंगे।हाँ, इसमें कोई शक नहीं कि वे ऐसी दक्षता हमारे सहयोग से ही प्राप्त करेंगे। कुछ तो अभी डोमिनेट करते ही हैं। वे हमसे ज्यादा ताकतवर हैं, ज्यादा तेज़ दौड़ते हैं, उड़ सकते हैं, पानी और हवा में हम से ज्यादा दूर तक देख सकते हैं। बस, जब वे बोलने लग जायेंगे तो वे अभिमान से बढ़-चढ़ कर हम पर रोब भी ज़माने लगेंगे। अभी तो घोड़े को तेज़ भगा कर आदमी इनाम लेने खड़ा हो जाता है। शेर - हाथी जो करतब दिखाते हैं , उनकी मेहनत से पैसा आदमी बटोर ले जाता है।वे खामोश रहने को अभिशप्त हैं।
हाँ, २०८८ की दुनिया को कैसा होना चाहिए, इस पर मैं यह कहूँगा कि हमारी जनसँख्या जितनी भी हो, वह पूरे विश्व में एकसार बटी हुई होनी चाहिए। मुझे लगता है कि एक जगह पर ज्यादा लोगों का होना उनकी ताकत कम, बेबसी ज्यादा बनता है।
अविकसित देशों की एक समस्या यह भी है।

प्रावधान, प्रयोग और अमेरिका

किसी चीज़ या सुविधा के इस्तेमाल के दो तरीके हैं। एक, वह चीज़ हमें प्रयोग करने को मिल रही हो। दूसरा, हमारे पास उसका प्रावधान हो। हम जब चाहें या ज़रूरी समझें, उसे इस्तेमाल कर सकें। पहले तरीके में वह हमारी मिल्कियत हो या न हो, कोई फर्क नहीं पड़ता।हम उसका आनंद उठाते हैं।
अमेरिका के लोगों की एक जबरदस्त खासियत यह है कि वे प्रावधान में यकीन रखते हैं। बेवजह प्रयोग करने में उनकी दिलचस्पी नहीं रहती।
इसे यूँ समझिये- अमेरिका की सड़कों पर चलते वाहनों से आप होर्न की आवाज़ बहुत कम, या बल्कि ज़रूरी होने पर ही सुनेंगे। वहां अकारण ध्वनि प्रदूषण फ़ैलाने पर जुर्माना भी है।हजारों कारें एक साथ चल रही हैं, लेकिन होर्न केवल उसका सुनाई देगा, जिसके लिए बहुत ज़रूरी हो। सड़क पर बिना-बात शोर मचाने का बचकाना पन वहां नहीं मिलेगा। यदि एम्बुलेंस रोगी को ले जा रही है, वह आवाज़ करेगी। यदि फायर-ब्रिगेड जा रही है, आप उसकी आवाज़ सुनेंगे। यहाँ तक वीआइपी जा रहे हों, तो भी अकारण शोर नहीं मचेगा। पुलिस की गाड़ियाँ भी शांति और ज़िम्मेदारी से आती-जाती दिखेंगी।
क्षमा कीजिये, ऐसा तो हरगिज़ नहीं होगा कि सरकारी गाड़ी में अफसर की बीबी ब्यूटी-पार्लर जा रही हो तो भी लाल-बत्ती और सायरन दहाड़ते चलें।या फिर डाक्टर शाम को सब्जी लेने जा रहा हो और एम्बुलेंस जोर से सायरन बजाती चले।
गाड़ियों में चलते ड्राइवरों के इस ज़िम्मेदारी-भरे अहसास के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है, कि ड्राइविंग लाइसेंस शायद गाड़ी चलाने की क्षमता और सड़क पर चलने के सलीके को जांचने के बाद ही दिए जाते हों।

यह स्थिति सौ साल बाद की है?

आज अंतर राष्ट्रीय महिला दिवस है। खास बात यह है कि इसे मनाते हुए हमें सौ साल भी बीत गए हैं। अभी आधा घंटा पहले मैंने आज का अख़बार पढ़ा है। अख़बार किसी त्यौहार की तरह खुश है। तरह- तरह से उसने अपनी ज़िम्मेदारी जाहिर की है।
एक फीचर में उसने जयपुर शहर की दस ऐसी महिलाओं का सचित्र परिचय दिया है जिन्होंने शहर के जीवन पर अपना प्रभाव छोड़ा है। एक पूरे पेज पर पचास ऐसी ताकतवर महिलाओं के बारे में बताया गया है जिन्होंने अपने ज़बरदस्त कामों से पूरे देश के जन-जीवन को आंदोलित किया है। इनके साथ कुछ और ख़बरें भी हैं।
पहली खबर यह कि चार दशक पहले ज्यादती की शिकार होकर एक अस्पताल में पड़ी नर्स की जीवनलीला समाप्त करने की याचिका पर न्यायालय ने मंजूरी नहीं दी है।
एक और खबर है कि बारह वर्षीय एक बालिका को हवस का शिकार बनाया गया है।
फिर एक बड़ी खबर यह है कि शहर की महिला मेयर ने जिन अफसरों पर घपलों और भ्रष्टाचार के इल्जाम सरेआम लगाये थे, उन्होंने पलटवार करते हुए मेयर पर भी वैसे ही इल्जाम लगा दिए हैं ।
चलिए,पूरा अख़बार नहीं सुनाऊंगा। मेरा कहने का मतलब यह है कि आज तो महिला दिवस है, इसलिए दमदार व्यक्तित्व वाली महिलाओं के बारे में आप को पढने को मिला। कल से तो बाकी ख़बरों से ही काम चलाना है।अमेरिका की तारीफ पर आयें ?

क्या बयां करती है ये सादगी

पूरी दुनिया में तहलका मच गया था। बात ही कुछ ऐसी थी। कमसे - कम मैंने तो अपने सत्तावन साल के जीवन में किसी अख़बार में इतने बड़े अक्षरों में लिखी ' हैडलाइन ' नहीं देखी।भारत जैसे देश में, जहाँ दिन भर उपवास करने के बाद रात को महिलाओं को चन्द्रमा को अर्घ्य देकर भोजन करते देखा जाता है, वहां तो यह बात कल्पनातीत ही थी। मानव चाँद पर जा उतरा था।
अमेरिका के नील आर्म स्ट्रोंग की बात की जा रही है। वे चन्द्रमा की सतह पर कदम रखने वाले विश्व के पहले इन्सान बने थे। उन्होंने अपने दो और साथियों के साथ इतिहास रच दिया था । वे रातोंरात विश्व के हीरो बन गए थे। उनका पूरा जीवन एक अंतरिक्ष वैज्ञानिक की तरह प्रयोगों में ही व्यतीत हुआ।
लेकिन शायद बहुत कम लोग ये बात जानते होंगे कि उनके जीवन में भी साधारण लोगों की भांति छोटे मोटे कष्ट उसी तरह आये, जैसे किसी गुमनाम आम-आदमी के जीवन में आते हैं।एक बार तो उनके घर में भीषण आग लग गयी। सब कुछ जल कर खाक हो गया। ऐसे में उन्होंने कुछ देर के लिए बेघर हो जाने का दर्द भी झेला। उनके पड़ोसियों ने ऐसे में उनकी काफी मदद की।उन्होंने अपना मकान दोबारा बनवाया।और इस दोबारा मकान बनवाने में उन्होंने यह अनुभव भी किया की वैज्ञानिक होने के कारन वे अपने मकान के पुख्ता पन पर समुचित ध्यान नहीं दे पाए। शायद इसी से पहला हादसा हुआ। दूसरी बार मकान बनवाते समय उनकी पत्नी ने इस बात का विशेष ध्यान रखा कि पहले जैसी कमियां न रह जाएँ।
मुझे ऐसा लगता है कि यह भी अमेरिकी जीवन का एक 'प्लस पॉइंट ' है कि व्यक्ति को वीआइपी होने के बाद भी अपने निजी कामों के लिए आम आदमी ही समझा जाये।

प्रभु अनंत प्रभु कथा अनंता

अमेरिका के राष्ट्रपति रहे अब्राहम लिंकन अद्भुत वक्ता थे। उनके बारे में कहा जाता है कि एक बार कुछ लोग उन्हें किसी भाषण के लिए निमंत्रित करने के लिए आये। वे चाहते थे कि लिंकन किसी सभा में भाषण दें। लिंकन ने उनसे पूछा- मुझे कितनी देर बोलना होगा? आगंतुक विनम्रता से बोले- आपके लिए कोई समय सीमा नहीं है, आप जितना समय चाहें, लें, किन्तु आप जैसे प्रखर वक्ता के लिए भला समय की क्या सीमा।लिंकन ने सादगी से कहा-मुझे यदि पांच मिनट बोलना है तो तय्यारी के लिए काफी समय लगेगा, हाँ, यदि एक-दो घंटे बोलना हो तो तय्यारी की कोई ज़रूरत नहीं है।
लिंकन महोदय का जो आशय था वह आज वक्त्रत्व-कला का एक सिद्धांत बन चुका है। हमें यदि कोई बात संक्षेप में सारगर्भिता से कहनी हो तो इसकी व्यापक तय्यारी होनी चाहिए। यदि हम बिना तय्यारी, बिना सीमा और बिना लक्ष्य के बोल रहे हों तो अनर्गल कुछ भी , कैसे भी बोला जा सकता है।
यह अद्भुत तथ्यात्मक सिद्धांत अमेरिकी संविधान में भली प्रकार देखा जा सकता है। अमेरिकी संविधान आश्चर्यजनक रूप से संक्षिप्त और सरल है। फिर भी ये सुगमता से प्रशासनिक ज़रूरतों को पूरा करता है। दुनिया में ऐसे भी उदाहरण भरे पड़े हैं जब किसी देश के पास लम्बा-चौड़ा संविधान का पोथा उपलब्ध हो और फिर भी प्रशासनिक समस्याएं उसमे से ऐसे निकल-निकल कर गिरती हों जैसे ज्यादा भरी गठरी में से माल-असबाब । फिर नेताओं का सारा समय इसी बात में जाता हो कि इसमें क्या जोड़ा जाये और क्या घटाया जाये।
बड़ा अच्छा लगता है जब आप वाशिंगटन में अमेरिकी संसद का भव्य भवन देखने जाएँ और वहां आपको एक छोटी सी पतली ऐसी पुस्तिका भेंट की जाये जिसे आप जेब में रख कर साथ ला सकें। और यह पुस्तिका है-दुनिया के सबसे सम्रद्ध देश का 'संविधान'।

100post पूरी

आपको बधाई कि आपने मेरी १०० बातें सुनलीं। अब कुछ ठहर कर...

बड़े भी सीखते हैं छोटों से

क्या आपने कभी किसी बड़े को किसी छोटे से कुछ सीखते हुए देखा है? ज़रूर देखा होगा, क्योंकि न तो सीखने की कोई उम्र होती है और न सिखाने की ।यह भी तो कहीं नहीं लिखा कि बड़े सब अच्छी बातें जानते हैं। फिर यह भी कहाँ लिखा है कि सब अच्छी बातें ही सीखना चाहते हैं। छोड़िये, इस चर्चा से भी क्या लाभ?
मुझे याद पड़ता है कि कुछ साल पहले ही वह ज़बरदस्त आंधी शुरू हुयी थी जिसे हम लोग ' ग्लोबलाइजेशन ' के नाम से पुकारते हैं।इस दौर में दुनियावी विपणन अर्थात मार्केटिंग के बड़े आक्रामक तरीके बाज़ार में आये। एक के साथ एक मुफ्त, यह लेने पर वह फ्री, आदि-आदि। लेकिन मार्केटिंग का एक तरीका, जहाँ तक मैं समझता हूँ खालिस भारतीय ही है। वह है - बारगेनिंग का तरीका। दुकानदार कहता है कि यह चीज़ बीस रुपये की है , हम कहते हैं कि नहीं, पंद्रह में देदो। वह कहता है कि अच्छा चलो, अठारह देदो। हम कहते हैं कि बस, सत्रह देंगे। वह मान जाता है , और हम यह सोचते हुए घर आते हैं कि हमें तीन रुपये का फायदा हो गया।वह यह सोचता हुआ अपना गल्ला समेटता है कि कल से इस चीज़ का दाम चौबीस रुपये बोलना पड़ेगा। भारतीय बाज़ारों में महंगाई के सिर्फ और सिर्फ बढ़ते जाने का एक कारण शायद यह भी हो।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि बड़े बड़े अमेरिकी नगरों में अब कहीं कहीं व्यापार के इस तरीके की झलक भी दिखाई देने लगी है।भीड़ भरे पर्यटन स्थलों पर या महानगरीय इलाकों में आप ऐसा होते देख सकते हैं। पर जब ऐसा कहीं कुछ देखें तो कृपया यह मत सोचिये कि इस इलाके में अब भारतीय भी खूब रहने लगे हैं।

Friday, March 4, 2011

अमेरिका शिक्षा को ज़िन्दगी की बेहतरी का अस्त्र मानता है

इस तुलना का कोई अर्थ नहीं है कि अमेरिका में प्रति विद्यालय कितने बच्चे हैं, या कितने बच्चों पर एक अध्यापक है। या फिर विश्व-विद्यालय या कालेज कितने हैं।सवाल यह है कि वहां शिक्षा को क्या माना जाता है? शिक्षा एक इन्सान के लिए क्या भूमिका अदा करती है। वहां शिक्षित व्यक्ति की कद्र बाकी दुनिया में कैसी होती है। यह एक लगभग सर्वमान्य तथ्य है कि किसी भी देश के किसी भी संकाय के होनहार बच्चों के मन के किसी कोने में यह इच्छा अवश्य रहती है कि वह अपनी शिक्षा की कोई न कोई डिग्री अमेरिका से ज़रूर लें। क्या इसे सही शिक्षा पाए बच्चे की वास्तविक अभिलाषा नहीं कहा जाये? ठीक प्रकार शिक्षित और शिक्षा को सही परिप्रेक्ष्य में ग्रहण करने वाला विद्यार्थी शायद ' सर्वश्रेष्ठता ' का मतलब समझना सीख जाता है।
थोड़ा विषयांतर होगा, पर आपने लोक कथाओं के बारे में अवश्य सुना होगा। ऐसी कई लोक कथाओं में बताया जाता है कि कोई व्यक्ति पैसा कमाने, कुछ सीखने, या फिर कुछ खोजने घर से निकला। वह विभिन्न बाधाओं के बावजूद अपने मकसद में कामयाब हुआ।बाद में उसकी कामयाबी को देख कर, कोई दूसरा व्यक्ति भी उसी तरह घर से निकला। किन्तु दूसरे व्यक्ति को वैसी सफलता नहीं मिली और वह खाली हाथ लौट आया।लोक कथाएं प्राय इसका कारण यह बता कर पटाक्षेप करती हैं कि दूसरा व्यक्ति ईर्ष्या से वहां गया था या वह मात्र नक़ल करने के लिए गया था।
लोक कथाओं का यह लोकप्रिय सूत्र हमें बताता है कि शिक्षा में ' मौलिकता ' का क्या महत्व है। शायद अमेरिकी शिक्षा की गुणवत्ता का एक कारण यह मौलिकता भी है।शिक्षा में नक़ल भला कैसे स्वीकार्य हो सकती है?

Thursday, March 3, 2011

शीशों के उसपार देखिये

  • अमेरिका में घूमते हुए दो बातों पर आपका ध्यान चला ही जायेगा।वहां ज़्यादातर मकानों में आपको चार दिवारी नहीं मिलेगी। अर्थात चारों ओर बनने वाली 'वाल' का चलन नहीं है। मकानों के अहाते सीधे सड़कों पर खुलते हैं। दूसरे,मकानों की दीवारों में पारदर्शिता ज्यादा है। कांच का प्रयोग अधिकता से होता है। पत्थर की बंद हवेलियों की तरह का निर्माण वहां नहीं के बराबर होता है,जिनमे न बाहर की धूप अन्दर जा सके, न अन्दर की हवा बाहर आ सके।इन हवेलियों में छिपाने को न जाने क्या कुछ होता होगा कि इन की बनावट इतनी अपारदर्शक रखी जाती है। बहरहाल अमेरिकी आशियानों में आपको बेहद खुलापन द्रष्टिगत होता है।
    वैसे किसी के घर में बेवजह झांकना असभ्यता मानी जाती है, फिर भी एक उडती नज़र इन मकानों पर डालिए।आपको जो द्रश्य दिखेगा वह मन को सुकून देने वाला होगा। आप देखेंगे कि यदि घर के भीतर कोई बड़ा बुजुर्ग भी है तो वह खाली नहीं बैठा है। उसके पास अनेकों छोटे-छोटे काम हैं। वह घर की सफाई कर रहा है, या पालतू कुत्ते की विष्ठा ही साफ कर रहा है , या फिर घर की मरम्मत का कोई छोटा मोटा काम ही कर रहा है।पेड़-पौधों की साज संभाल करते भी आप उन्हें देख सकते हैं। तात्पर्य यह है कि वहां ऐसा नहीं है कि यदि आपके पास किसी तरह चार पैसे आ गए तो आपके कुत्ते को भी कोई दूसरा संभाल रहा है, आपके पांव कोई दूसरा दबा रहा है, आपको चाय-पानी देने के लिए भी चार नौकर लगे हैं।अर्थात आदमी की सेवा में आदमी लगे होने की अमानुषिक सामंतशाही से दुनिया का यह सबसे विकसित देश पूरी तरह मुक्त है।हैरत तब होती है कि विकलांगों को भी पूरे आत्म-सम्मान के साथ आप यहाँ मशीनों के सहारे अपने काम अपने आप गर्व से करते हुए देखते हैं।

स्त्री-विमर्श की ज़रुरत अमेरिका को नहीं पड़ी

अमेरिकी साहित्य बहुत ज़बरदस्त ढंग से सम्रद्ध है। साहित्य के ' नोबल ' भी उनकी झोली में न जाने कितने गए हैं। किसी काल के एक दर्ज़न सर्वश्रेष्ठ नाम किसी भी देश में बैठ कर कोई छांटे तो उनमे कई अमेरिकी साहित्यकारों का होना तय है। लेकिन इतना सब होते हुए भी वहां के साहित्य में नारी-विमर्श जैसी कोई चीज़ नहीं है। वहां शायद हमारे जितनी सीता,सावित्री,अनुसुइया,मीरा,राधा,लक्ष्मी,दुर्गा नहीं हुईं । फिर भी आम अमेरिकी महिला की ज़िन्दगी के फैसले लेने के लिए किसी विमर्श या आन्दोलन का दौर नहीं गुज़रा। इसका कारण शायद यही है कि उन्होंने जो ठीक समझा, कर लिया। ऐसा नहीं हुआ कि जो नहीं चाहिए था वह घटता रहा, और जो चाहिए था उसके लिए विभिन्न मंचों पर तरह - तरह से जुगाली के विमर्श चलते रहे। समाज दोमुंहा नहीं रहा। आज अमेरिकी शहरों या गांवों में घूमते हुए आपको सपने में भी ये ख्याल नहीं आता कि महिला कोई अलग वर्ग है, जिसके लिए पुरुषों को दरबार लगाकर फैसले लेने की ज़रूरत है। ऐसा तो हरगिज़ नहीं लगता कि इस जमात को कैसे जीना है यह अलग से तय करने की बात है।
वहां की रसोई स्त्री को देखकर ख़ुशी से नहीं झूमती। कहने की ज़रुरत नहीं कि भूख वहां भी होती है। रोटी वहां भी कमाई -खाई जाती है।वहां ऐसा कोई सम्मान या ' इज्ज़त ' नहीं है जो केवल स्त्री के लिए ही सुरक्षित हो। वहां की शानदार सड़कों पर दौड़ती शानदार कारों में से अधिकांश को महिलाएं ही चला रही होती हैं। इतना ही नहीं, बड़ी बड़ी बसें भी महिलाओं के हाथों में सुरक्षित चल रही होती हैं।
यह बचकाना हास्यास्पद सा ख्याल भी ज़ेहन में नहीं आता कि इन्हें देख कर कोई हंस रहा होगा, या किसी तरह की छींटा - कशी कर रहा होगा ।अपने देश से प्यार होना एक बात है और घटिया पन को गले लगाना दूसरी। इन्हें मिलाया नहीं जा सकता।

Wednesday, March 2, 2011

अमेरिकी समरसता प्राकृतिक होती है

मैं नहीं जानता कि ये जो मैंने कहा है, वह ठीक से कह दिया या नहीं।दोहराता हूँ। अमेरिकी लोगों में आपको एक विशेषता मिलेगी-उनके बीच जो समूह-भावना मिलेगी वह लगभग प्राकृतिक ही है। ऐसा कभी नहीं लगता कि उनके बीच किसी समता या समरसता के बीज को सायास रोपा गया है।यदि एक इकाई के रूप में एक व्यक्ति है, तो वह तभी तक है जब तक दूसरा द्रष्टिगोचर नहीं हो रहा। दूसरे के किसी रूप में द्रश्य पर आते ही एक स्वचालित समरसता आपको फिर दिखने लगेगी।
किन्ही समाजों में भरपूर कोशिशों के बाद भी यह साम्य नहीं आ पाता।न्यूयार्क के 'स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी 'के चेहरे पर काफी देर गौर से नज़र रखने,और उसके बाद रास्तों में नमूदार होते अमेरिकी वाशिंदों को पहचानते हुए यह बात मेरे ज़ेहन में आयी। वहां एक मशहूर पर्यटक स्थल होने के नाते आपको कई देशों,कई नस्लों, कई स्तरों के लोग दिखाई देते हैं। इस से आपके लिए यह आसान हो जाता है कि आप इस तरह के अवलोकनों से पर्याप्त निष्कर्ष निकाल लें।यदि आप वहां के लोगों की भाषिक चहल-पहल पर थोड़ा बारीकी से गौर करें तो आप सबकी सारी बात न समझ पाते हुए भी इस बात को भली-प्रकार समझ पाएंगे कि इनमे से कुछ समूह आपके सामने ऐसे आ रहे हैं जिन्हें शायद प्रकृति ने एक गुलदस्ते की तरह पेश कर रखा है। इन गुलदस्तों में अपवादी, विलग फूल भी हैं तो सही मगर उनकी आभा इस तरह महिमा-मंडित है - मानो एक अद्रश्य आदर से संलग्न हो। प्रकृति जिन बातों में अपना दखल रखती है उनमे रखती ही है। फिर चाहे वह किसी देश की कोई धरती ही हो।

छोटा-बड़ा कोई तय नहीं करता

क्या सर्वश्रेष्ठ में कोई बुराई या कमी नहीं होती? क्या अमेरिका की कोई ऐसी बात नहीं है जो अच्छी न हो ?नहीं, ऐसा तो कभी भी नहीं होता कि किसी देश की सभी बातें अच्छी ही हों। ऐसे देशों की एक कमी तो यही हो जाएगी कि उनमे कोई बुराई नहीं है। अमेरिका के नज़रिए को यदि आप समय-समय पर थोड़ा गौर से देखते-पढ़ते रहें हों तो आपको यह अवश्य पता होगा कि यहाँ एक सीमित सहिष्णुता है। सीमित सहिष्णुता को हम धैर्य की कमी भी कह सकते हैं। यह देश बहुत लम्बे समय तक किसी घटनाक्रम को उदासीनता से देखता नहीं रह सकता। यह प्राय प्रतिक्रिया देने में देर भी नहीं करता। प्रतिक्रिया देने में कंजूसी करे, यह तो हो ही नहीं सकता। विश्व घटनाक्रम में दिलचस्पी रखने वाले भली-भांति जानते हैं कि दुनिया के किसी भी कौने में कुछ भी घटित होते ही तमाम दुनिया का मीडिया सबसे पहले अमेरिका की ओर ही देखता है।यहाँ तक कि कभी-कभी तो उस देश के विचारों से भी ज्यादा तरजीह अमेरिका की प्रतिक्रिया को दी जाती है, जहाँ वह घटना घटी हो अथवा जो देश उस घटना से सीधे तौर पर जुड़े हों। और शायद अमेरिका ने भी ऐसे में किसी बात पर प्रतिक्रिया देने में देर करके इंतजार करती प्रेस को कभी निराश नहीं किया।प्रतिक्रिया आती है, और तुरंत ही नहीं बल्कि बिना किसी लागलपेट के आती है, पूरी बेबाकी से आती है। यहाँ तक कि कभी-कभी तो प्रतिक्रिया इस तरह आती है जैसे वहां कूटनीति का कोई वजूद न हो।
यहाँ कोई यह भी कह सकता है कि बहुत से मसले तो ऐसे हैं जिन पर अमेरिका अभी तक स्पष्ट नहीं है। भारत और पाकिस्तान के संबंधों को लेकर यह बात कही जा सकती है। शायद एशिया में चीन की भूमिका को लेकर भी कुछ लोगों को यही लग सकता है। ऐसे कुछ मामलों में अमेरिकी बयान तात्कालिकता या अवसर के प्रभाव में आते दिखे हैं।लेकिन ऐसी बातों को अपवाद की तरह न देख कर हम फ़िलहाल इस तरह सोचें कि यह अंदाज़ आप कमी के रूप में मानेंगे या खूबी की तरह।

Tuesday, March 1, 2011

यहाँ हितग्राही ही भाग्य विधाता होते हैं

जी हाँ, यह भी अमेरिका की एक विशेषता ही है। यहाँ किसी भी कार्य पर प्रतिक्रिया देने वाले सबसे पहले उस काम के लाभान्वित ही होते हैं ।सरकारों का पहला प्रयास भी यही होता है कि किसी भी एक्शन पर पहला फीडबैक उन्ही लोगों का लिया जाये जिनके लिए वह काम किया गया है। कहने का मतलब यह है कि वहां विशेषग्य को बात-बेबात राय देने की ज़रूरत नहीं पड़ती। न ही दलालों या मध्यस्थों की रायशुमारी का बोलबाला है। इस का सीधा-सीधा असर यह दिखता है कि वहां सरकारी योजनाओं या कार्यक्रमों की ट्रिक-फोटोग्राफी नहीं होती। ऐसा प्राय नहीं होता कि बाज़ार किसी कमी से जूझ रहे हों और राजनैतिक छतरी के नीचे बैठे विशेषग्य बयान देते रहें कि कमी नहीं है या यह अस्थाई है। या फिर महंगाई अवाम की कमर तोड़ती रहे और दलाल नेताओं की ज़बान में बोलें कि यह महंगाई विकास के कारण है।
एक छोटी सी बात आपको बताता हूँ। कुछ समय पहले मैं अमेरिका के न्यूयार्क शहर की एक लायब्रेरी में गया। वहां शहर के तत्कालीन मेयर ने पुस्तकों का बजट कुछ समय के लिए कुछ कम कर दिया था। मैंने देखा कि छोटे-छोटे बच्चे भी लायब्रेरी की सुझाव-पुस्तिका में यह लिख रहे थे कि इसके दूरगामी नतीजे होंगे,इसे फ़ौरन बढ़ाया जाये।वहां पुस्तकों के खरीदने वाले अभिकरणों या बेचने वाले विक्रेताओं की आवाज या तो बहुत कम थी या फिर उसे महत्त्व नहीं दिया जा रहा था। अख़बार भी सीधे पाठकों के मंतव्यों को ही महत्त्व दे रहे थे चाहे वे बच्चे ही क्यों न हों। इसे व्यापारियों के हितों पर कुठाराघात की तरह न देख कर हितग्राहियों के नुकसान की तरह ही माना जा रहा था। कहने को बात छोटी और साधारण है पर यह विकास के गंतव्य की पहचान करने की सरकार की इच्छा को प्रदर्शित करती है।

जब जीता ओबामा ने नोबल

अभी ज्यादा समय नहीं गुज़रा है जब अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को शांति का नोबल पुरस्कार देने की घोषणा हुई थी। उस समय सारे विश्व में अलग-अलग प्रतिक्रिया हुई थी।एक बड़ा तबका यह मानता था कि ओबामा को पुरस्कार देने में बहुत जल्दी की गयी है। इस तबके का सोचना था कि अभी उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया है कि उन्हें दुनिया के इस सर्वोच्च पुरस्कार से नवाज़ा जाये। दूसरी तरफ एक वर्ग ऐसा भी था , जो सोचता था कि यह पुरस्कार अब अपनी विश्वसनीयता खो रहे हैं और इनके चयन में राजनीति हावी हो रही है।लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि इस खबर पर दुनिया भर में सबसे संजीदा राय शायद बहुसंख्य अमेरिकी अवाम की ही थी। वहां लोग सोचते और कहते थे कि इस सबसे बड़े पुरस्कार हेतु चयन के लिए केवल जीत जाना ही कसौटी नहीं होती बल्कि जीतने का हौसला लेकर अपनी विश्वसनीय तैयारी का प्रदर्शन भी मायने रखता है।क्योंकि जीत जाने में तो भवितव्य अर्थात भाग्य की भूमिका भी होती है, पर प्रत्यंचा चढ़ा कर निडरता से आगे बढ़ना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। इस द्रष्टि से ओबामा के चयन को बहुत संतुलित और सटीक ठहराया गया था।
सोच का ऐसा बारीक विश्लेषण कम से कम दो बातों की ओर इंगित करता है। एक तो यह, कि आम तौर पर बेबाक दिखने वाले अमरीकी सोच के विश्लेषण की पूरी योग्यता रखते हैं और दूसरी यह कि वे अपनी अभिव्यक्ति में अपेक्षा कृत मौलिक हैं।
कुल मिलकर कहा जा सकता है कि आम अमरीकी की एक बड़ी खासियत उसका राष्ट्रीयता में अगाध विश्वास भी है।

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...