Sunday, September 28, 2014

चूहा आराम से सो रहा था, आपने चक्कर काटने में इतनी खटर -पटर क्यों की?

हर व्यक्ति चाहता है कि वह उन्नति करे और उसका भविष्य उज्जवल हो। यदि हर व्यक्ति अपनी इस चाहत को वास्तविकता में बदल पाये तो उसका देश भी तरक्की करता है।
क्या आप कोई ऐसा ताबीज या उपकरण चाहते हैं जो आपको पहले से ही यह बता कर सचेत करदे कि किस बात से तरक्की होगी, किस से नहीं?
इन घटनाओं को गौर से देखिये-
-रात को सोते वक्त आप अपने कमरे में लगातार खटर-पटर की आवाज़ सुनते हैं तो आपको कैसा लगता है?
-लाइट जला देते ही आपको यदि कमरे में फर्श पर कोई चूहा दौड़ता हुआ दिख जाये तो आप कैसा महसूस करते हैं?
-अगली सुबह आप बाजार से चूहा पकड़ने का एक पिंजरा खरीद लाते हैं तब आपको कैसा लगता है?
-आप किसी तरह चूहे को पिंजरे में डाल देने में कामयाब हो जाते हैं, तब आपको कैसा लगता है?
-आप चूहे को बहुत दूर जंगल-खेत-मैदान में छोड़ आते हैं तब आपको कैसा लगता है?
कुछ समय बाद आप चैन से सोते हुए एक सपना देखते हैं कि चूहा वापस चलता हुआ आपके घर के नज़दीक आ रहा है। इस बार वह अकेला नहीं है, बल्कि उसके साथ काले लिबास में एक और "जीव" है जो आपके दरवाजे पर पहुँचते ही आपको एक पत्र भेंट करता है।
पत्र में लिखा है-
रात दस बजे बाद लाइट जलाने की अनुमति नहीं थी तो आपने लाइट क्यों जलाई?
बाजार में लोहे के पिंजरे उपलब्ध थे तो आपने लकड़ी का पिंजरा क्यों खरीदा?[ज़रूर लकड़ी के लिए कोई पेड़ काटा गया होगा]
क्या आपने जंगल-खेत या मैदान में चूहे को छोड़ने से पहले फॉरेस्ट विभाग,एग्रीकल्चर विभाग या प्रशासन से 'नो ऑब्जेक्शन' लिया था?     
 
   

नया बिरवा मत आने देना ,गिरे दरख्तों की टहनियां घसीट लाओ

कुछ बच्चे मैदान में क्रिकेट खेल रहे थे।  एक सज्जन वहां पहुंचे, और ज़रा संकोच के साथ ख़लल डाला। बोले-"बेटा, केवल आज-आज,एक दिन के लिए अपना खेल मुल्तवी कर सकते हो?"
-"क्यों ?"पूछा केवल दो-तीन लड़कों ने ही, किन्तु प्रश्नवाचक हर चेहरे पर टंग गया।
वे बोले- "मैं चाहता हूँ, कि आज तुम लोग अपना खेल बंद करके मेरे साथ काम करो।  हम मिल कर यहाँ एक रावण का पुतला बनाएंगे और दशहरे के दिन उसका वध करके त्यौहार मनाएंगे।"
कुछ ने खुश होकर, कुछ ने खीज कर, बैट -बॉल को एक दीवार के सहारे टिका  दिया और उन सज्जन के पीछे-पीछे चले आये।
बच्चे आपस में बातें करने लगे। "बाजार में बना- बनाया रावण मिलता तो है "किसी बच्चे से यह सुन कर वे सज्जन मुस्कराये, और बोले- "हाँ,मिलता है,पर मैं चाहता हूँ कि तुम लोग खुद रावण बनाओ,ताकि तुम्हें पता चले कि इसमें ऐसा क्या है जो इसे इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी हर साल जला कर नष्ट किया जाता है।"
-"क्रेकर्स !" एक बच्चे ने कहा तो सभी हंस पड़े।
-"नहीं," वे संजीदगी से बोले। तुम इसमें अपनी गली का सारा कचरा भरना और फिर इसे जला कर राख कर देना।
बच्चे निराश हो गए। लेकिन उन सज्जन के कहने पर आसपास से घास-फूस,कचरा जमा करने लगे।
वे बोले-हमारे सब त्यौहार इसी लिए हमारी संस्कृति में अब तक जीवंत हैं, क्योंकि ये दैनिक जीवन के लिए कुछ न कुछ उपयोगिता सिद्ध करते हैं। बाजार में बन रहे रावण बनाने वालों को रोज़गार ज़रूर देंगे, किन्तु इनसे अगर शहरों को गंदगी मिलती है तो इसे भी तो रोकना होगा।
दिनभर बच्चे काम में लगे रहे,लेकिन रात होते ही बच्चों ने उन पुराने विचारों वाले-सनकी-परम्परावादी सज्जन का "फेसबुक" पर खूब मज़ाक उड़ाया।                        

Wednesday, September 24, 2014

"कहानियों का असर"

 कुछ लोग कहते हैं कि  साहित्य अब जीवन पर से अपनी पकड़ खो रहा है। अब न उसे कोई गंभीरता से लेता है, और न ही उसे थोड़े बहुत मनोरंजन से ज़्यादा कुछ समझा जाता है।
यदि आपको भी ऐसा ही लगता है, तो कल की "दिल्ली ज़ू" की उस घटना की खबर ध्यान से पढ़िए, जिसमें बताया गया है कि  एक बीस वर्षीय युवक बाघ के बाड़े में गिर गया।  बाघ ने उसे कुछ पल ठिठक कर देखा, फिर बाद में एक अन्य दर्शक के पत्थर फेंकने पर क्रुद्ध होकर युवक को मार डाला।
लेकिन इस घटना का साहित्य से क्या सरोकार ?
इसी घटना के प्रत्यक्ष-दर्शियों ने [एक ने तो खूबसूरत फोटो तक उतार लिया]बताया है कि युवक पैर फिसल जाने से दुर्घटना-वश जब बाघ के बाड़े में गिर गया, और बाघ उसके निकट चला आया, तो अकस्मात उसे सामने देख कर युवक ने घबरा कर अपने हाथ बाघ के सामने जोड़े।
सोचिये, ये युवक के दिमाग में कैसे आया होगा? कहाँ देखा होगा उसने ये ?
साक्षात मौत ने दस्तक देकर जब भय से उसकी सारी संवेदनाओं को हर लिया, तो उस मरणासन्न मानव ने वही किया, जो कथा-कहानियों ने उसके अवचेतन में भरा होगा। उस समय तर्क या अनुभव काम नहीं कर रहे थे। साहित्य की देखी-भोगी अनुभूतियाँ संभवतः उस समय भी उसके साथ थीं, चाहे वे पंचतंत्र,बाल साहित्य या लोककथाओं से ही उपजी हों।         

Sunday, September 21, 2014

देखा होगा? नहीं देखा तो अब देखिये।

कुछ बच्चे शरारती होते हैं।  उनके क्रिया-कलापों को आप तर्क की कसौटी पर नहीं तौल सकते। उनके रक्त में ही शरारत घुली होती है।
वे यदि अपने माता-पिता के साथ भी कहीं मेहमान बन के जाएँ तो ज़्यादा देर संजीदगी से नहीं रह सकते। वे थोड़ी सी औपचारिकताओं के बाद जल्दी ही अनौपचारिक हो जाते हैं।  और उतर आते हैं अपनी शरारतों पर।उनके माता-पिता भी उनकी शरारतों के इस तरह अभ्यस्त हो जाते हैं कि फिर उन्हें रोकने-टोकने की जहमत नहीं उठाते। बल्कि मन ही मन उनकी शरारतों को अपरिहार्य मान कर उन्हें स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन इस प्रवृत्ति से मेज़बान की नाक में दम हो जाता है। मेज़बान की समझ में नहीं आता कि आमंत्रित मेहमानों का लिहाज करके ऊधमी बच्चों को मनमानी करने दें या फिर सब कुछ भुला कर उन पर लगाम कसें।  ऐसे में निश्चित ही माँ-बाप को भी पूरी तरह निर्दोष नहीं माना जा सकता। आखिर ऐसे बच्चों पर नियंत्रण रखने की पहली ज़िम्मेदारी तो उन्हीं की है। लेकिन कहीं-कहीं तो माँ-बाप पूरी तरह अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं और अपने बच्चों को उनकी मनचाही शरारत करने देते हैं।हद तो तब होती है जब वे अपने बच्चों की करतूत देख कर भी अनजान बने रहते हैं। यदि मेज़बान दबे-ढके शब्दों में उन्हें इस ओर ध्यान दिलाना भी चाहें तो वे गौर नहीं करते।
वो किस्सा तो आपने सुना ही होगा। मेहमान का एक बच्चा बार-बार मेज़बान के पालतू पिल्ले की पूंछ खींच-खींच कर उसे तंग कर रहा था। मेहमान ने उसके माता-पिता का ध्यान उधर खींचने के लिए कहा-"ये आपका बड़ा बेटा है न जो उस टॉमी को तंग रहा है?" मेहमान ने सहजता से कहा-"जी नहीं, वह तो छोटा है, बड़ा वह है जो आपकी खिड़की का कांच तोड़ने की कोशिश कर रहा है।"
आप कभी ध्यान से देखने की कोशिश कीजिये, ये शरारती बच्चे कहीं भी हो सकते हैं, किसी भी उम्र के हो सकते हैं।  किसी भी देश के हो सकते हैं।
हो सकता है कि इनके पिता-समान नेता जब किसी देश के राष्ट्र-प्रमुख के साथ दोस्ती के माहौल में बैठ कर लंच ले रहे हों ये देश की सीमा पर बेवजह भीतर घुसने की शरारत कर रहे हों।  इनके नेता जब शांति से बैठकर दोस्ती और भाईचारे की सनद पर दस्तख़त कर रहे हों,उस समय ये सीमा पर तमंचे दिखा कर दूसरे देश के लोगों को डरा-धमका रहे हों।
खैर, ऐसी गीदड़ भभकियों से किसी का कुछ बनता-बिगड़ता तो नहीं है, पर फ़िज़ूल में मेज़बान देश के नेताओं पर कीचड़ उछालने का मौका तो उनके अपने ही देश के वाशिंदों को मिल जाता है।  आखिर शरारती बच्चे तो दोनों ही घरों में होते हैं -क्या मेहमान और क्या मेज़बान !                     

Saturday, September 20, 2014

"दस" बस है

कहते हैं कि गणित में एक क्या, शून्य यानी ज़ीरो भी बहुत है। फिर दस को कम कौन कह सकता है। दस तो बस है। दस में तो कुछ तूफानी किया जा सकता है।  कहने का मतलब है- डर के आगे जीत है!
तो जीत हो गई।  एकता की जीत, भाईचारे की जीत, मिलजुल कर रहने के ज़ज़्बे की जीत।
जीत ऐसे ही नहीं होती।  उसके लिए जीतना पड़ता है।  पिता को कहना पड़ता है कि बेटा, घर छोड़ कर मत जा, जो तू चाहेगा वही होगा। चार अंगुलियां होने पर ही मुट्ठी बनती है।मुट्ठी में ताकत होती है।  ताकत में हिम्मत होती है।  हिम्मत में गैरत होती है। गैरत में ही ज़िंदगी होती है।
आज समय बहुत बदल गया है। अब सूरज नहीं डूबना कोई बड़ी बात नहीं मानी जाती। सूरज अस्त होगा तभी तो सूर्योदय होगा। यदि सूर्यास्त ही नहीं हुआ तो सूर्योदय की सम्भावना कहाँ रह जाएगी। और सूर्योदय-सूर्यास्त को रोकने का अर्थ है ज़िंदगी को रोकना।  ज़िंदगी रोकने का मतलब है गैरत को रोकना।  हिम्मत को रोकना, ताकत को रोकना, बात घूम-फिर कर वहीँ आ जाती है।
तो अगर पैंतालीस प्रतिशत लोग कहें कि "अलग", और पचपन प्रतिशत लोग कहें कि "साथ-साथ", तो अंतर पूरा 'दस' का हुआ। और दस बस है।
बात यूनाइटेड किंगडम और स्कॉटलैंड की है।
हाँ,एक बात ज़रूर है।
अगर घर के पैंतालीस प्रतिशत लोग घर छोड़ने की मंशा रखते हों, तो घर के बुजुर्गों की नींद भी उड़ जानी चाहिए। चैन से तो हर्गिज़ नहीं बैठा जा सकता। क्योंकि अगर भगवान न करे,कभी दस प्रतिशत और गुस्सा हो गए, तो फिर कुछ भी हो सकता है। दस बस है।                         

Wednesday, September 17, 2014

गांव हमारा शहर तुम्हारा

विकास बहुत आसान है। शरीर को कोई रोग हो जाये,तो उसका इलाज नहीं करने से बीमारी का विकास हो जाता है।  लेकिन ये बापू,अर्थात महात्मा गांधी की विकास की अवधारणा नहीं है।  उनके विकास का मतलब तो बड़ा गहरा है।  वैसा विकास आसान नहीं है।  आइये देखें, कैसा विकास चाहते थे बापू?
पहले तो ये जानना ज़रूरी है कि शहरी और ग्रामीण विकास में अंतर क्या है!यदि शहर की खुशहाली बढ़े, रोज़गार बढ़े, सुविधाएँ बढ़ें तो ये शहरी विकास है।  और यदि यही सब बातें गांवों में बढ़ें तो ये ग्रामीण विकास है।  मतलब ये हुआ कि विकास चाहे शहरों में हो या गांवों में, इस से देश का भला तो होता ही है।
तो फिर बापू ग्रामीण विकास की बात क्यों करते थे? ग्रामीण विकास को देश के लिए ज़रूरी क्यों मानते थे? गांवों के विकास की बात इसलिए होती थी, क्योंकि हमारे देश की अस्सी प्रतिशत जनसँख्या गांवों में रहती है।  यदि गांव खुशहाल होंगे तो ज़्यादा आबादी को इस विकास का लाभ मिलेगा।  लोग रोजगार और रोटी के लिए गांव छोड़ कर शहर की ओर  नहीं भागेंगे।
दूसरे,बापू ये मानते थे कि पूँजी गांवों में पैदा होती है शहरों में पैदा नहीं होती।  वहां तो उसका प्रयोग होता है, बंटवारा होता है, उपभोग होता है।  उपजाने का काम गांवों का है।  हर तरह की उपज वहां होती है।  गांवों को विकसित बनाने से उत्पादन का काम और ज़ोर पकड़ेगा।गांव में काम करने वाले खुशहाल होंगे तो वे देश की उन्नति में ज़्यादा योगदान देंगे।
शहर में लोग एक-एक फुट ज़मीन बेच कर हज़ारों रूपये कमा लेते हैं,लेकिन गांव में जिनके पास लम्बी-चौड़ी धरती है उनके तन पर ठीक से कपड़ा भी नहीं होता।उनके बच्चे अच्छे स्कूलों में नहीं पढ़ पाते।  उनकी बीमारी के इलाज के लिए अच्छे डॉक्टर,अच्छे अस्पताल नहीं होते।  जबकि शहरों में सुख-सुविधाओं में जीने वालों की रोटी गांवों से आती है।  हल गांवों में चलते हैं।
एयर कंडीशंड कमरे में सवेरे नौ बजे उठ कर दोपहर पांच सितारा होटल में लंच के लिए पनीर का ऑर्डर देने वाले ये नहीं जानते कि इस पनीर के लिए दूध किसी फटेहाल किसान ने सर्दी-गर्मी-बरसात में अलस्सुबह चार बजे उठ कर निकाला है।
बापू ये जानते थे।  बापू को ये पता था कि शहरों में बैठे-बैठे पैसे को दुगना कर लेने की कई योजनाएं हैं, लेकिन गांवों में मेहनत करते-करते भी तन के कपड़े आधे हो जाते हैं।  शहर के स्कूलों में पढ़ कर बच्चों को इतना ज्ञान मिलता है कि  उन्हें लाखों की नौकरी मिल जायें पर गांव में बच्चे माँ-बाप के जोड़े हुए गहने-रूपये फीस में चले जाने पर भी अज्ञानी रह जाते हैं।  इसलिए बापू ग्रामीण विकास की बात करते थे।  गांव की खुशहाली की बात करते थे।            

Tuesday, September 16, 2014

फेसबुक पर

कल "इंजीनियर्स डे" था, दुनिया को तकनीक के सहारे ऊंचा उठाने वालों के नाम।  ओह,जाने ये कैसे लोग हैं जिन्होंने दुनिया को बदल दिया, लोगों की ज़िंदगी को बदल दिया। सतत चिंतन और कर्म से कहाँ से कहाँ ले गए  बातों को।
समुद्र में उफनते लहराते पानी को कैद करके पाइपों के सहारे हमारे घरों के भीतर भेज दिया।  सूरज डूबने के बाद घिरी अँधेरी उदासी को चकाचौंध जगमगाती रोशनी में बदल दिया। सीढ़ी दर सीढ़ी हमारे घरों को आसमानों तक ले गए। दुनिया के एक सिरे से दूसरे सिरे तक इंसान को उड़ाते ले जाने लगे। लोहे-इस्पात से आदमी के इशारे पर नाचने वाले आज्ञाकारी सेवक गढ़ दिए। ज़मीन के भीतर से बेशकीमती नगीने निकाल-निकाल कर इंसानी काया को सजा दिया। 'असंभव' नाम के लफ्ज़ का तो जैसे नामो-निशान मिटाने पर तुल गए।
मुझे तो लगता है कि एक न एक दिन इनकी पकड़ 'जीवन-मृत्यु' के चक्र से निकल कर जन्म-जन्मान्तरों पर हो जाएगी।
सच, कितना मज़ा आएगा ?
तब हमारे मित्र गण आसानी से "फेसबुक" पर [फोटो सहित] बता पाएंगे कि वे इंसान बनने से पहले की चौरासी लाख योनियों में से अभी कौन सी योनि में हैं।                  

Sunday, September 14, 2014

सागर आज भी सीमा है

ये बात बड़ी तकलीफ देने वाली है कि हम वैज्ञानिकों को आसानी से सम्मान देने को तैयार नहीं होते। वे किसी भी सार्वभौमिक समस्या को पहचान कर उसके निदान के लिए शोध-अनुसन्धान में अपना सारा जीवन लगा देते हैं,कोई न कोई हल भी खोज लेते हैं, मगर हम हैं कि अपने "ढाक के तीन पात" वाले रवैये से बिलकुल भी बदलने को तैयार ही नहीं होते।
वैज्ञानिकों ने चाँद पर हमें भेज दिया, वैज्ञानिकों ने दुनिया की दूरियां मिटा डालीं, पर हम मन की दूरियाँ मिटाने को तैयार नहीं। जहाँ एक ओर पूरे ग्लोब को एक साथ बांधे रखने की कोशिशें हो रही हैं, वहीं हम हैं कि टूटना चाहते हैं, बिखरना चाहते हैं, छिटकना चाहते हैं। हमें अलगाव चाहिए,एकांत चाहिए, स्वच्छंदता चाहिए।
सागर पर इंजीनियर लाख पुल बना डालें,हमारा आवागमन सहज कर दें, किन्तु हमारे लिए तो समुद्र अभी भी सीमा है। उसके इस पार अलग दुनिया हो, उस पार अलग दुनिया।
कल "इंजिनीयर्स डे" है। न जाने कैसे मनेगा?
लेकिन ज़मीन के बीच बहता समंदर तो मचल कर कसमसा रहा है, धरती के दो टुकड़ों को अलग करने के लिए। बात इंग्लैंड और स्कॉटलैंड की है। प्रतीक्षा १८ तारीख की।       

Friday, September 12, 2014

आदमी की बातें

मैदान में एक भैंस घास चर रही थी। उसके पीछे-पीछे एक सफ़ेद-झक़ बगुला अपने लम्बे पैरों पर लगभग दौड़ता सा चला आ रहा था।
नज़दीक पेड़ पर बैठे एक तोते ने वहां बैठे एक कबूतर से कहा-"प्रेम-प्रीत अंधे होते हैं, देखो, रुई के फाहे सा नरम-नाज़ुक धवल प्राणी उस थुलथुल-काय श्यामला के पीछे दौड़ा जा रहा है। "
कबूतर ने जवाब दिया-"प्रेम-प्रीत का तो पता नहीं, परन्तु भूख ज़रूर अंधी होती है, भैंस चरने में मगन है, उसे पीछे आते मित्र की कोई परवाह नहीं, और बगुला भी कोई भैंस की मिज़ाज़-पुरसी करने नहीं आया है, बल्कि भैंस की सांसों से घास में जो मच्छर उड़ रहे हैं, उन्हें अपना निवाला बनाने आया है।"
"ओह, तो वे दोनों ही अपने-अपने ज़रूरी कार्य में व्यस्त हैं, तब हमें अकारण उन पर छींटाकशी करने का क्या हक़?" तोते ने पश्चाताप में डूब कर कहा।
कबूतर बोला-"हाँ, लेकिन जोड़ी तो बेमेल है ही।"
तभी चरती हुई भैंस कुछ दूर बने एक तालाब के पास जाकर पानी में उतर गई। बगुला भी पानी के किनारे मछलियों पर ध्यान लगा कर खड़ा हो गया।
तोता फिर चहका-"देखो-देखो, जोड़ी बेमेल नहीं है, दोनों की मंज़िल एक ही थी, दोनों को तालाब में ही जाना था, दोनों रास्ते के मुसाफिर थे, अगर एक ही मंज़िल के राही हों, उनमें तो अपनापा हो ही जाता है।"
"कुछ भी हो, वह भोजन के बाद नहाने गई है, और बगुला तालाब से नहा-धोकर ही भोजन के लिए निकला होगा,कितना अलग स्वभाव है दोनों का" कबूतर ने उपेक्षा से कहा।
तोता बोला-"अब घर लौट कर वह दूध देगी, और ये यहाँ मछली खायेगा।  जबकि कहते हैं, दूध और मछली का कोई मेल नहीं है, दोनों एक साथ खा लो तो पचते नहीं हैं।"
कबूतर ने कहा-"और क्या, आदमी तो ऐसा ही कहते हैं।"
तभी पेड़ की तलहटी में बैठी एक गिलहरी बोल पड़ी-"आदमी की बातें खूब सीख रखी हैं तुम दोनों ने!"

            

Thursday, September 11, 2014

ये अच्छा है

पिछले पूरे सप्ताह जम्मू-कश्मीर में जो विकराल तांडव चला, उससे निपटने में भारतीय सेना की तत्परता अत्यंत सराहनीय है। विपदाओं का आना तो किसी ढब रोका नहीं जा सकता,किन्तु सेना ने यह अवश्य जता दिया कि यदि धरती समस्याओं से भरी है, तो समाधानों से भी, ज़ज़्बों से भी और हौसलों से भी।
लगभग ऐसी ही विपदा की आहटें आज जापान से भी आ रही हैं। काश,कुदरत की उद्दंडता को वहां भी मुंहतोड़ जवाब मिले।
लेकिन कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि इस तरह जन-आपदाओं में सेना को उत्तरदायी बना कर झोंक देना उचित नहीं है।  ऐसे अवसरों, बल्कि कुअवसरों पर तो आपदा-प्रबंधन दलों और स्थानीय प्रशासनों को ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए।
यह बात किसी भी देश,और विशेषतः विकासशील देश के लिए तो उपयोगी नहीं हो सकती। अन्य बचाव दल इंफ्रा-स्ट्रक्चर में सेना जैसे सज्जित और त्वरित नहीं हो सकते।उनके लिए प्रशिक्षण और सामानांतर सुविधाएँ जुटाना बेहद खर्चीला है। दूसरी ओर युद्धों का अत्यंत सीमित हो जाना सेना के अनुप्रयोग को भी तो सीमित करता है।  ऐसे में,यदि ऐसे विकट अवसरों पर सेना आम जनता के बीच मदद के लिए आती है तो एक ओर उसका अभ्यास बना रहेगा और दूसरे आम लोगों और सेना के बीच प्रगाढ़ परस्पर सौहार्द पूर्ण सम्बन्ध भी बनेंगे।  लोग देखेंगे कि कौन सीमा पर हमारा रक्षक है, और सेना के जवान भी जानेंगे कि हमने किस अवाम की हिफ़ाज़त को अपनी ज़िंदगी का सबब चुना है।  यह रिश्ता अच्छा है, पर भगवान करे कि इसकी ज़रूरत देश को कम से कम ही पड़े।             

Wednesday, September 10, 2014

आप क्या लेंगे अपने साथ?

देखते-देखते कश्मीर की अतिवृष्टि और बाढ़ बेहद खतरनाक विभीषिका में तब्दील हो गयी। निरीह और निर्दोष लोगों ने अपने घर की छत पर खड़े-खड़े मौत को तेज़ी से अपने करीब आते देखा।
ऐसे में राहत और बचाव में लगे लोग किसी देवदूत की तरह लोगों की जान सहेजने की मुहिम में जुटे रहे। अथाह पानी के ऊपर से उड़ता हुआ कोई हेलीकॉप्टर जब छतों पर सहारे की रस्सी लटकाता,या फिर पानी के ऊपर से गुज़रती कोई नाव छत पर खड़े लोगों से कूद पड़ने का आग्रह करती तो हर एक के मन में यही ख्याल आता कि शरीर के भीतर जो एक "जान" नाम की चिड़िया बैठी है, केवल उसे ही अपने साथ में लेकर भागना है।बाकी सब कुछ भूल जाना है।
आज से छह साल पहले आज के ही दिन ऐसा ही एक नज़ारा हुआ था। लेकिन तब किसी हेलीकॉप्टर की रस्सी या कश्ती के आह्वान की सुविधा नहीं मिली। 'जान'नाम की चिड़िया को साथ ले उड़ने की मोहलत भी वक़्त ने नहीं दी। पुराने दुःख नए दुःखों को कम तो क्या करेंगे, हां, बढ़ा भले ही दें।   
खैर, कुदरत का करीना भी यही है, और करिश्मा भी यही !           

Tuesday, September 9, 2014

इतने कठिन प्रश्न-पत्र नहीं बनाये जाते एक्ज़ामिनर महाशय !

आपने एक न्यायप्रिय राजा और दो स्त्रियों की कहानी ज़रूर सुनी होगी। दोनों स्त्रियों में एक ही बच्चे को लेकर विवाद हो गया। वे दोनों ही उसे अपना कहती थीं। जाहिर है कि बच्चे की माँ तो दोनों में से एक ही होगी, किन्तु दूसरी ने भी अपना दावा इस संवेदनशीलता से रखा कि बात बढ़ गई। यह तय नहीं हो पा रहा था कि बच्चे की असली माँ  दोनों में से कौन सी है। बच्चा भी इतना छोटा था कि अपनी वास्तविक माँ का कोई प्रभावी संकेत न दे सका। जटिल समस्या लोक-चौपाल से निकल कर राजदरबार में पहुँच गई।
बहुत प्रयास के बाद भी जब कोई फैसला न हो सका तो बुद्धिमान राजा ने घोषणा की कि बच्चे को काट कर आधा-आधा दोनों महिलाओं में बाँट दिया जाये। बस फिर क्या था,बच्चे की असली माँ तड़प उठी कि ऐसा न किया जाए, और बच्चा चाहे पूरा ही दूसरी महिला को दे दिया जाय। फ़ौरन दूध का दूध व पानी का पानी हो गया। नकली माँ दण्डित की गई, और बच्चा असली माँ को सौंपा गया।
ईश्वर इसी न्याय प्रियता से शायद और भी मसले सुलझाना चाहता है। उसने धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर को दरिया की तरह मचलते हुए सैलाब में झोंक दिया। अब वह आसमान में बैठा देख रहा है कि  उसके दोनों दावेदार मुल्कों में से किस का दिल धड़कता है? बेचैनियां कौन से देश का खाना-खराब करती हैं? मदद और इमदाद के लिए कौन दौड़ता है? दुआ के हाथ किस जानिब से उठते हैं? और कौन फ़क़त तमाशाई बना रहता है?
जो भी हो, ईश्वर को ऐसे सख्त इम्तहान शोभा नहीं देते। भला कोई इंसान और इंसानियत को यों मुश्किल में डालता है?      
           

Wednesday, September 3, 2014

"रिहर्सल" ऐसी आशंकाओं को कम करते हैं

किसी ने कहा है कि जब हम बोल रहे होते हैं, तब केवल वह दोहरा रहे होते हैं जो हम पहले से ही जानते हैं। किन्तु जब हम सुन रहे होते हैं तो इस बात की सम्भावना भी रहती है कि हम कुछ नया सीख भी रहे हों।
हमेशा सुनना कमतर होने और बोलना श्रेष्ठ होने की निशानी नहीं है।
मेरे एक मित्र परसों एक कार्यक्रम की यह कह कर बड़ी सराहना कर रहे थे कि हर वर्ष यह बड़ा अच्छा कार्यक्रम होता है।  मैंने उनसे पूछा - वो फिर हो रहा है,क्या आप उसमें जायेंगे?
वे बोले- यदि मुझे वक्ता के रूप में आमंत्रित करेंगे तो चला जाऊँगा, खाली सुनने तो जाता नहीं हूँ।
मैंने उनसे कहा -इसका अर्थ है कि वहां जो श्रोता आएंगे, वे आपसे तो कमतर ही होंगे? तो घटिया लोगों के बीच जाकर आपको क्या मिलेगा? वे सोच में पड़ गए।  उन्हें इस बात का असमंजस था कि उनका मित्र उनका मज़ाक कैसे उड़ा सकता है।
कुछ दिन पूर्व कुछ लोग चंद ऐसे ख्यातिप्राप्त वरिष्ठ लोगों का इस बात के लिए उपहास कर रहे थे, कि राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री से किसी समारोह में पुरस्कार लेते समय उन लोगों से इसका "रिहर्सल" करवाया गया। क्या इसमें आपको भी कोई हैरानी की बात लगती है? हमेशा पुरस्कार ग्रहण करने वाला पुरस्कार देने वाले से छोटा नहीं होता।  इसके अलावा-
-आयोजकों पर कार्यक्रम को समयबद्धता और गरिमापूर्ण ढंग से संपन्न करने की ज़िम्मेदारी होती है, यदि वे इसके लिए पूर्व तैयारी करते हैं तो आपको अस्त-व्यस्तता से बचाने के लिए। इसमें किसी की हेठी नहीं है।
कुछ साल पहले विश्वसुंदरी प्रतियोगिता में कार्पेट पर चलते हुए मिस लाइबेरिया के सैंडिल की हील अटकने से वे गिर गयी थीं, रिहर्सल ऐसी आशंकाओं को कम करते हैं।                      

Monday, September 1, 2014

सूरज का ठंडा टुकड़ा

एक बार जंगल में घूम रहे शेर से एक परिंदे ने पूछा- "क्यों भई , तू किस बात पर दहाड़ता रहता है, तेरे जबड़े दुखते नहीं ?"
शेर ने कहा-"मुझमें ताकत का घमंड है, मेरे स्वभाव में श्रेष्ठता की गर्मी है,मुझे अच्छा लगता है सबको अपनी उपस्थिति का अहसास कराना।"
पंछी बोला-"ये सब तो ठीक है, मगर याद रख, तू सूरज के टुकड़े पर रहता ज़रूर है, लेकिन वह अब ठंडा हो चुका है।"
शेर ने कहा-"तू जानता है न मैं कौन हूँ?"
-"हाँ,राजा है,पर मेरा नहीं, जानवरों का।" पक्षी ने लापरवाही से कहा।
-"तो तेरा राजा कौन है?"शेर ने आश्चर्य से कहा।
-"मोर !" परिंदा बोला।
शेर ने सोचा, इसके मुंह लगना ठीक नहीं,इसे मेरी कोई बात पसंद नहीं आएगी। वैसे भी,ये मेरा वोटर तो है नहीं! शेर अपने रास्ते पर बढ़ गया।           

राही रैंकिंग/Rahi Ranking 2023

  1. ममता कालिया Mamta Kaliya 2. चित्रा मुद्गल Chitra Mudgal 3. सूर्यबाला Suryabala 4. नासिरा शर्मा Nasira Sharma 5. रामदरश मिश्र Ramdar...

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