Thursday, December 31, 2015

इंसान नहीं, वक़्त बदलता है !

लोग कहते हैं कि लोग बदल जाते हैं, दरअसल लोग नहीं, उनका वक़्त बदल जाता है।
जब आपका वक़्त अच्छा होता है तो सिनेमा के पोस्टर पर भी आपका चेहरा बड़ा हो जाता है। यदि वक़्त ठीक न हो तो आपके बोले संवाद भी सम्पादित हो जाते हैं।
आज से ठीक ५० साल पहले एक फिल्म आई थी "वक़्त"
मैंने उसे तब भी कई बार देखा और अब भी, टीवी पर।
वक़्त के जानकारों ने उसे वक़्त के मुताबिक बदल दिया है।  उसमें से "वक़्त की हर शै गुलाम, वक़्त का हर शै पे राज " जैसा दर्शन-मंडित गीत अब हटा दिया गया है।
उस फिल्म के मुख्य नायक-नायिका अब दुनिया में नहीं हैं, लिहाज़ा फ़ोन पर गाया गया उनका एक लम्बा और बेहद खूबसूरत गीत "मैंने देखा है कि गाते हुए झरनों के करीब,अपनी बेताबी-ए -जज़्बात कही है तुमने"अब काट दिया गया है।
"चेहरे पे ख़ुशी छा जाती है, आखों में सुरूर आ जाता है" गीत में से नायिका के वे 'क्लोज़-अप' हटा दिए गए हैं, जिनके कभी देशभर में कैलेंडर छपे थे, और कई फिल्मों में उन्हें दोहराया गया था।
दूसरी ओर फिल्म की सहनायिका-सहनायक के कुछ दृश्यों में स्टिल दृश्य डाल कर उनका 'वक़्त' कुछ और लम्बा किया गया है। उस फिल्म की वे सहनायिका अब बड़ी हस्ती हैं, सहनायक भी दादासाहेब फाल्के अवार्ड विजेता।
वक़्त की अहमियत की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी कि अपने समय की सबसे लोकप्रिय उस नायिका-अभिनेत्री की चिता अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि टीवी के किसी चैनल ने उसकी कोई फिल्म तो क्या, गीत तक अपने किसी कार्यक्रम में शामिल नहीं किया।
छोड़िये, साधना का जाना अब तो वैसे भी गए साल की बात हो गयी।
"हम चले जाते हैं मगर दूर तलक कोई नहीं,
सिर्फ पत्तों के खड़कने की सदा आती है"                    

सत्य, शिव और सुन्दर !

कहते हैं कि किसी के अंत समय में उसके बारे में केवल अच्छा ही बोला जाना चाहिए। लेकिन कहा यह भी जाता है कि किसी के जाते वक़्त उसके कानों में केवल सत्य का रस ही घोला जाना चाहिए। कई ऐसी बातें जो ज़िंदगी भर राज रहती हैं, किसी के अंतिम समय में ज़ाहिर कर देने का भी अपना ही सुख है।  ये पुण्य भी कहा जाता है। तो अब कुछ ऐसा कहना ज़रूरी है जो सत्य भी हो, शिव भी और सुन्दर भी।
तो सबसे अच्छी बात ये, कि चंद पलों में हमारे हाथ से छूट जाने वाले इस साल के बदले में जो साल हमें मिलने वाला है, वह इससे भी बड़ा है।  इसमें पूरे चौबीस घंटे ज़्यादा हैं।
दूसरी बात ये कि इसी साल के आगमन के साथ हमारी मौजूदा सदी सोलहवें साल में कदम रख रही है। किसी महिला के लिए सोलहवें साल की अहमियत क्या होती है, ये बताने की ज़रूरत नहीं है।  बहरहाल ये ज़रूर बताना पड़ेगा कि इसकी गोद में पुरुष रूपी लम्हे,पल, दिन, महीने, वर्ष कितने भी हों, सदी या शताब्दी महिला है।
शुक्र है कि नया साल शुक्रवार से ही आरम्भ हो रहा है।
और अंत में सबसे अच्छी बात ये, कि ये आनेवाला साल बिलकुल नया है, ये सच में पहले कभी नहीं आया।
एक ऐसे साल के लिए आपको बधाई और शुभकामनायें !
       

Wednesday, December 30, 2015

राज़ जो दफ़न कर देगा ये जाता हुआ वर्ष!

सब जानते हैं कि महान संगीतकार ओ पी नय्यर और महान गायिका लता मंगेशकर में एक बार अनबन हो गयी थी। इसी अनबन ने नय्यर साहब को विवश किया कि वे अपने अधिकांश गाने आशा भोंसले से गवाएं।  संयोग से बनी इस जोड़ी के एक से एक नायाब नग़मे भुलाये नहीं जा सकते, क्योंकि आशाजी के सुरों की महानता भी किसी से छिपी नहीं है।
उस समय के तमाम कैबरे आशाजी के गाये गीतों पर ही होते थे।  कहने वाले कहते थे कि आशा भोंसले की आवाज़ का जादू केवल एक ही गायिका जगा सकती थी, स्वयं आशा भोंसले।
उस समय का बेहद लोकप्रिय गीत "आओ हुज़ूर तुमको सितारों में ले चलूँ " जब अभिनेत्री बबिता पर फिल्माया गया,तब किसी ने लताजी के सामने कह दिया कि ये गीत केवल आशा भोंसले ही गा सकती थीं। मन ही मन लता जी इस बात को चुनौती की तरह ले बैठीं।
उन्होंने एक फिल्म में हेलन के लिए लिखे गए कैबरे गीत को भी खुद गाने की इच्छा जाहिर कर दी।  जबकि इस से पहले अनेक फिल्मों में आशा भोंसले ने कैबरे-नर्तकी के लिए, और उसी फिल्म में लता मंगेशकर ने नायिका के लिए लिखे गीत गए थे।
हेलन पर फ़िल्माया गया, लता का गाया यह नृत्य गीत "आ जाने जां ..."  इतना शानदार था कि निर्माता ने फिल्म की नायिका पर फिल्माने के लिए भी मदिरा के नशे में झूम कर गाया गया एक ऐसा ही गीत लिखवाया। गीत के बोल थे-"कैसे रहूँ चुप कि मैंने पी ही क्या है?"
फिल्म थी इन्तक़ाम और नायिका थीं साधना।
यह गीत इतना ज़बरदस्त हिट हुआ कि इसे "बिनाका गीत माला"ने, जो उस समय फिल्म संगीत का सबसे प्रामाणिक आइना मानी जाती थी,साल का सर्वश्रेष्ठ गीत चुना।
कहते हैं कि इस गीत से जिस तरह लता जी ने बहन आशा भोंसले का एकाधिकार तोड़ा,उसी तरह साधना ने बहन बबिता पर फिल्माए गीत का जलवा भी धुंधला किया।
एक संयोग इसे भी कह लीजिये कि ओ पी साहब की तरह साधना जी भी नय्यर थीं।
इस साल ने अपने साथ ले जाने के लिए जो लोग चुने उनमें अभिनेत्री साधना भी हैं।                       

वे बना रहे हैं शानदार मक़बरा

तेज़ी से बीतते हुए ये पल ईंटें चिन रहे हैं।
इन्हें एक स्मृति भवन तैयार कर देने की जल्दी है।
इस भवन की दीवारों पर ये टांग देंगे एक पूरे साल का लेखा-जोखा, और पहना देंगे उसे इतिहास की माला।पुष्पहार से सजे ये पल फिर नहीं लौटेंगे, कभी नहीं !
मैं असमंजस में हूँ, इस साल घटने वाली घटनाओं में मुझे कुछ ऐसी बातें साफ़-साफ़ दिखाई दे रही हैं, जो किसी के मिटाये से नहीं मिटेंगी।  मुझे उन पल-श्रमिकों पर तरस आ रहा है जो नाहक़ मक़बरा गढ़ रहे हैं, ये लाख कोशिश करें कुछ बातों को तो हरगिज़ नहीं दफ़न कर पाएंगे इतिहास की खोह में।
आइये देखें, ऐसा क्या है जिस पर ये बीतते पल बेअसर रहेंगे?
१. आपकी हमारी उम्मीदें
२. आपके-हमारे रिश्ते
३. और बेहतर दुनिया बनाने की हमारी-आपकी कोशिशें
४. बिना व्यवधान उगते चाँद और सूरज
५. नाचते-गाते लोग
६. हम सबके ख़्वाब
७. हर सुबह नए जोश से उठने के हमारे हौसले
८. हर आँख में प्यार देखने के ललक-भरे सिलसिले
९. सबकी रोटी के लिए सुलगती आंच
१०. पुराना बीतने से पहले एक नया साल लाकर खड़ा कर देने का शाश्वत ज़ुनून !         

Monday, December 28, 2015

पीढ़ी अंतराल और बॉलीवुड

पीढ़ियों में अंतर होता ही है।
पिछले दिनों क्रिसमस की धूमधाम के बीच आने वाले नए साल के प्रति स्वागतातुरता और बढ़ी दिखी। समाचारों ने भी अपने-अपने ढंग से, अपने-अपने देखने वालों के बीच जिज्ञासा जगाई।
नयी पीढ़ी को ये देखना भाया कि दीपिका पादुकोण ने सबसे ज़्यादा फॉलोअर्स के साथ आभासी दुनिया की सबसे बड़ी बॉलीवुड हस्ती का मुक़ाम पाया। उनका साथ दिया क्रम से आलिया भट्टऔर प्रियंका चोपड़ा ने। खबर ये भी बनी कि सोनाक्षी सिन्हा बेहद चपलता से सक्रिय रह कर भी टॉप फ़ाइव में जगह नहीं बना सकीं।
उधर पुरानी पीढ़ी को दुनिया के दूसरे पहलू के अहसासों ने भिगो दिया जब उन्हें लव इन शिमला,परख,एक मुसाफिर एक हसीना, वो कौन थी, मेरे मेहबूब,राजकुमार,आरज़ू,वक़्त,मेरा साया,इन्तक़ाम,एक फूल दो माली, दूल्हा-दुल्हन,हमदोनों , मनमौजी,बद्तमीज़,छोटे सरकार,अनीता,अमानत, इश्क़ पर ज़ोर नहीं,दिल दौलत दुनिया,गीता मेरा नाम, आप आये बहार आई,ग़बन,महफ़िल,हम सब चोर हैं, प्रेमपत्र जैसी फिल्मों की नायिका "साधना" के निधन के बाद उनकी शवयात्रा के समाचार देखने पड़े।
साधना से जुड़े कुछ तथ्य जहाँ रोचक हैं, वहीँ आश्चर्यजनक भी।
-१९६० से १९७० के बीच सर्वाधिक हिट फ़िल्में देने वाली इस नायिका को उस समय के सर्वाधिक प्रतिष्ठित फिल्मफेयर अवार्ड के लिए तो कभी नहीं चुना गया, किन्तु फिल्मफेयर की सहयोगी पत्रिका माधुरी ने  दर्शकों की राय से जब "फिल्मजगत के नवरत्न" चुनने का सिलसिला शुरू किया तब पहले ही वर्ष दर्शकों ने राजेश खन्ना को सर्वाधिक लोकप्रिय नायक और साधना को सर्वाधिक लोकप्रिय नायिका चुना।
-मीना कुमारी,वहीदा रहमान,माला सिन्हा, नूतन और वैजयंती माला के कैरियर के उतार के दिनों में सायरा बानो,आशा पारेख, शर्मिला टैगोर,बबिता,नंदा आदि के बीच स्पर्धा साधना के बाद आरम्भ होती थी, अर्थात वे दौर की सबसे सुंदर और सफल अभिनेत्री मानी जाती थीं।
-साधना ने किसी फैशन या प्रचलित परिधान को अंगीकार नहीं किया, बल्कि जो पहना, जिस तरह खुद को पेश किया, वही फैशन बन गया।
-साधना ने अपने कैरियर में न किसी गॉडफादर का सहारा लिया, न अपना झंडा बुलंद रखने के लिए कोई  गॉडएन्ज़िल छोड़ा।
-साधना अपने सबसे अच्छे दिनों में कैमरे के सामने से हट गयीं और ज़िंदगी भर दर्शकों को अपनी उसी छवि के साथ नज़रआने के लिए सार्वजनिक जीवन से दूर रहीं।
-साधना ने दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन के साथ कोई फिल्म नहीं की।                  
                 

Sunday, December 20, 2015

"किशोर" की परिभाषा


तीन वर्ष पूर्व दिल्ली में घटे भीषणतम दुष्कर्म मामले के बाद ये सवाल उभर कर आया कि आखिर किस उम्र के किशोर को यौन क्रिया की दृष्टि से "पूर्ण मानव" माना जाये?
इसका सबसे सटीक और पूर्ण उत्तर यही है कि जिस उम्र का व्यक्ति [युवक या बालक] ऐसा अपराध करदे,वही उम्र सज़ा के लिए पर्याप्त मानी जानी चाहिए. यदि बच्चा बड़ों जैसा अपराध करे और हम उसे बच्चा समझ कर सजा में छूट देदें,तो हमें इस बात लिए भी तैयार रहना चाहिए कि कल हर चोर/डाकू/आतंकवादी बच्चों को अपराध के लिए प्रशिक्षित करके उनसे ही अपराध करवाएगा और हमारा कानून माफ़ी का गुलदस्ता हाथ में लिए अपराधियों को पुचकारता रहेगा.
यह एक कड़वा सच है कि देश में कोई कानून बनाना अब वैसे भी मुश्किल होता जा रहा है क्योंकि हम दबंग बहादुरी के उस दौर में पहुँच गए हैं जब जनता के चुने हुए लोग काम करने के लिए "जनता से नकारे गए" लोगों के मोहताज़ हैं.देश ने समय-समय पर किस्म-किस्म की गांधीगिरी का साक्षात्कार किया है !       

Tuesday, December 15, 2015

लोकतंत्र में सत्ता वह है जिसे हम चुनते हैं ...तो हमने कुछ नहीं खोया

एक पखवाड़े बाद जब ये साल हमारी निगाहों से ओझल हो जायेगा तो शायद हर बीतने वाले साल की तरह कुछ दिन तक हम लोग इसे भी याद करेंगे.इससे वाबस्ता कई बड़ी-छोटी बातें और ख़बरें हमारे सामने लाई जायेंगी.लेकिन कुछ बातें ऐसी भी हैं, जिनके बाबत प्रायः हम नहीं सोचेंगे.आइये,आज उन्हीं के बारे में सोचें.
देश [और दुनिया ने भी] ने तेज़ी से इस साल जिन बातों को खोया है,उनमें से कुछ ये बताई जा रही हैं-
१. नेताओं ने मान-सम्मान
२. अभिनेताओं ने लोकप्रियता
३. खिलाड़ियों ने आत्मविश्वास
४. अमीरों ने सहानुभूति
५. गरीबों ने जीने के स्रोत
६. कलाकारों ने दर्शक
७. साहित्यकारों ने विश्वसनीयता
८. प्रशासकों ने पकड़
९. बच्चों ने बेहतर भविष्य के अवसर
१०. लोगों ने सहनशीलता
किन्तु संतोष की बात ये भी है कि अब देश की दो की जगह चार ऑंखें हो गयी हैं-दो सत्ता की, दो विपक्ष की. और ये सब बातें हमने केवल विपक्ष की नज़रों में खोई हैं, सत्ता की नज़र में नहीं।
      

Wednesday, December 9, 2015

"खान" और "कुमार" एक साथ भी हुए हैं !

बॉलीवुड में अशोक कुमार,मनोज कुमार, राजकुमार, राजेंद्र कुमार, किशोर कुमार, अक्षय कुमार का जलवा रहा तो फ़िरोज़ खान, संजय खान, शाहरुख़ खान, आमिर खान, सलमान खान, सैफ अली खान की चमक भी फैलती रही। 
लेकिन जिस शख़्सियत का जन्मदिन देश कल मनाने जा रहा है वह एक ऐसा खान था,जो कुमार बन कर फ़िल्मी-आसमान में छाया रहा। ये बात है दिलीप कुमार अर्थात यूसुफ़ खान की,जो खान भी है और कुमार भी !
दिलीप कुमार स्वभाव से बेहद शर्मीले रहे हैं. यही कारण है कि वे मुस्लिम नायिकाओं [नर्गिस/मधुबाला/मीना कुमारी/वहीदा रहमान/सायरा बानो/मुमताज़ के साथ जितनी सहजता से काम कर लेते थे, हिन्दू परिवार से आई अभिनेत्रियों के साथ अंतरंगता से जुड़ने में झिझकते थे.
ये आश्चर्य ही कहा जायेगा कि लगातार उनके ज़माने में सक्रिय बनी रही अभिनेत्रियों साधना/नंदा/आशा पारेख/बबिता/हेमा मालिनी/जया भादुड़ी आदि के साथ उन्होंने एक भी फिल्म नहीं की.माला सिन्हा के साथ मात्र एक, और शर्मिला टैगोर के साथ भी सिर्फ एक फिल्म,वह भी तब, जब वे नवाब पटौदी से प्रेमविवाह करके आयशा सुल्ताना बन चुकी थीं.नूतन के साथ गिनी-चुनी भूमिकाएं जिनमें भूमिका में ही पर्याप्त दूरी थी.
यहाँ अपवाद सिर्फ वैजयंतीमाला थीं, जिनके साथ उनकी कालजयी सुपरहिट फिल्म "गंगा जमुना"आई. इसके बारे में भी जानकारों को पता है, कि वैजयंतीमाला मद्रास से आने के कारण उत्तर भारत की संस्कृति के लिए उस दौर में नई थीं, और वे भी दिलीप की तरह हिंदी जगत में औपचारिक रहती थीं.
दूसरी तरफ वहीदा रहमान/मीना कुमारी / मधुबाला के साथ दिलीप की जबरदस्त जोड़ी थी.इन तीनों के साथ उन्हें ट्रेजेडी किंग बना देने वाली यादगार भूमिकाएं मिलीं.
सबसे बड़ा अजूबा तो ये, कि जिन सायरा बानो को दर्शक/समीक्षक बड़ी या संजीदा अभिनेत्री तक नहीं मानते थे, उनके साथ "अभिनय सम्राट" की उपाधि से नवाज़े गए दिलीप ने सर्वाधिक फिल्में दीं, और बेहद लोकप्रिय.
चलिए छोड़िये, ये शायद "दिल का मामला" था, सायरा जी उनकी जन्म-जन्मान्तर की जीवन संगिनी जो बनीं.
बहरहाल, हमारी दुआएं हैं कि दिलीप कुमार का यही नहीं, बल्कि १०० वां जन्मदिन भी देश उनके साथ इसी हंसी-ख़ुशी से मनाये.      
 

Tuesday, December 8, 2015

जब महापुरुषों के बारे में लिखें

कुछ लेखक निरंतर बड़े और महान लोगों के बारे में लिखते रहते हैं।  यह अच्छा है, और नई पीढ़ी के लिए ज़रूरी भी।  यदि ऐसा करते समय कुछ बातों का ध्यान रख लिया जाये तो इस कार्य की उपयोगिता और भी बढ़ सकती है-
१. अब ऐसा समय नहीं है कि समाज में अधिकांश पुरुष ही "महान" दिखाई दें, महिलाएं भी इस कतार में बराबर की हिस्सेदार हैं, इसलिए शीर्षकों में "महान हस्तियां" कह कर संतुलन लाएं.
२. जिस व्यक्ति के बारे में लिख रहे हैं, उसकी योग्यताओं और अच्छाइयों को लेकर व्यावहारिक तथा विश्वसनीय रहें.उसे चमत्कारिक अतिशयोक्ति से "सुपरमैन" बनाने की कोशिश न करें.बच्चे उसी बात को अपनाना चाहते हैं, जिस पर विश्वास कर सकें।
३. यदि आप किसी व्यक्ति के संवाद सीधे [डायरेक्ट स्पीच] लिख रहे हैं तो उन्हें उसी भाषा में देवनागरी/रोमन में लिखने की कोशिश  करें,जिसमें वे कहे गए हैं. अन्यथा उन्हें विवरणात्मक शैली [इनडायरेक्ट स्पीच]में ही लिखें.दूसरी भाषा में प्रत्यक्ष उसी के मुंह से कहलवाना विश्वसनीय नहीं लगता.      

विपक्ष में हैं तो क्या?

इंदिराजी जब प्रधानमंत्री बनीं,उन्होंने शिक्षा मंत्रालय का नाम मानव संसाधन विकास मंत्रालय कर दिया। इसके पीछे सोच ये था कि यदि देश में शिक्षित लोगों की आबादी ४० प्रतिशत है, तो "शिक्षा"मंत्री केवल ४० प्रतिशत लोगों का न रहे, वह शत-प्रतिशत लोगों का ख्याल करे।  वे अनौपचारिक/दूरस्थ/मुक्त शिक्षा की भी पक्षधर थीं। 
देश का सौभाग्य है कि मौजूदा प्रधानमंत्री ने अपने पूर्ववर्तियों की हर "अच्छी" बात स्वीकारने की कोशिश की है.समाज के बीच लोकप्रिय और साधारण शिक्षित स्मृति ईरानी जी को मानव संसाधन विकास मंत्रालय सौंपना भी ऐसा ही एक कदम था। अधिकांश उच्च शिक्षित लोग अशिक्षितों की समस्या समझ, उनके साथ न्याय नहीं कर पाते.
यह एक कठोर सत्य है कि यदि आप किसी खिलाड़ी को किसी काम की ज़िम्मेदारी देंगे तो वह सिद्धहस्त खिलाड़ियों के लिए ही सॉफ्टकॉर्नर रखेगा.यदि गैर-खिलाड़ियों की सही देखभाल चाहते हैं तो बड़े खिलाड़ी को यह काम मत दीजिये.
एक बड़े डॉक्टर जब स्वास्थ्यमंत्री बनाये गए तो उनके जेहन में डॉक्टरों का हित कौंध रहा था.वे आनन-फानन में सभी सरकारी डॉक्टरों की सेवानिवृत्ति की आयु सत्तर वर्ष करने के कागज़ात तैयार कर बैठे.उनके लिए समूची व्यवस्था, बजट,अन्य पेशों के संभावित आक्रोश का मुद्दा गौण रहा.सर्व समावेशी प्रधान मंत्री ने तत्काल सरकार पर ये बोझ आने से रोका.
आप खुद सोचिये, यदि विधायकों-सांसदों के वेतन बढ़ाने का काम किसी गैर-सांसद/विधायक को दिया जाता तो ये इतनी तत्परता से बढ़ पाता ?
एक साधारण बस की कल्पना कीजिये.बस में बैठे मुसाफिर अंदर बैठे मुसाफिरों का ही पक्ष लेते हैं, बाहर खड़ों का नहीं.
इंदिरा जी मंत्री-परिषद का री-शफ़ल इसीलिए जल्दी-जल्दी करती रहती थीं.
         
  

Saturday, December 5, 2015

बुद्धिमत्ता को कोई नहीं भूलता

"द्विअर्थी " साहित्य अकबर के ज़माने से ही लोकप्रिय है।  अकबर-बीरबल के किस्सों में बुद्धिमानी भी होती थी और लतीफ़ापन भी.अब ये दोराहा राजनीति में आता दृष्टिगोचर हो रहा है.
दिल्ली राज्य सरकार ने कोर्ट के कहते ही प्रदूषण की समस्या हल कर दी.सड़क पर दौड़ते वाहनों को आधा-आधा बाँट दिया. तीन दिन ये चलें, तीन दिन वो चलें.
भारत में पूरा तो कभी भी कुछ नहीं हो सकता, लेकिन आधा-आधा हो तो सब हो सकता है. यही हमारी हर समस्या का समाधान है.पूरी तो यहाँ सफाई जैसी चीज़ भी नहीं होती. सरकार साफ करेगी तो हम गन्दा करेंगे, हम विपक्ष हैं.
अगली समस्या है भ्रष्टाचार.
भ्रष्टाचार हटाया तो आधे खुश होंगे कि  काम हो गया , आधे दुखी कि कमाई गयी .
तो सरकार तय कर दे कि सोमवार,बुधवार,शुक्रवार ईमानदारी से काम होंगे, मंगलवार,गुरुवार और शनिवार ले-देकर.
अब  जिनकी कमाई भ्रष्टाचार से है वे भी खुश, और जिनके पास रिश्वत देने को पैसे नहीं हैं वे भी खुश.अपने काम दिन देख कर करवालो.
तो अब सारी योजनाएं अकबर-बीरबल के किस्सों की तरह मशहूर होने वाली हैं.      

Friday, December 4, 2015

विश्वसनीय चुटकुले

जब आपको कोई लतीफ़ा या चुटकुला सुनाया जाता है तो आप हँस कर उसका आनंद उठा लेते हैं।  शायद ये कोई नहीं सोचता कि ये चुटकुला कैसे और कब बना होगा? किसने बनाया होगा। 
लेकिन हम लोग खुशकिस्मत हैं कि लतीफों की फैक्ट्रियां हमारे आसपास ही लगी हैं और हम नित नए उत्पाद बनते देखते हैं। 
कुछ साल पहले एक सरकार ने अपने दफ्तरों में बढ़ती फाइलों और कागज़ों के अम्बार से तंग आकर ये फ़रमान निकाला कि गैर-ज़रूरी कागज़ात को रद्दी में निपटा दिया जाये।  लेकिन सरकार खासी मुस्तैद भी थी, ये भी सोचा कि रद्दी में बेचने के बाद में यदि किसी कागज़ की ज़रूरत पड़ी तो क्या होगा? तत्काल दूसरा आदेश भी निकाला कि रद्दी में बेचने से पहले सभी कागज़ों की एक-एक फोटोप्रति ज़रूर फाइलों में रख ली जाये.
दिल्ली राज्य की सरकार तो एक कदम और आगे बढ़ गयी.प्रदूषण कम करने के लिए निश्चय किया है कि सड़कों पर एक दिन ०,२,४,६,८ अंतिम नंबर वाली गाड़िया चलें और दूसरे दिन १,३,५,७,९ अंतिम नंबर वाली.
सच में दिल्ली की सड़कों पर बेतहाशा बढ़ती गाड़ियों की संख्या ने प्रदूषण तो बहुत बढ़ा दिया है.
तो अब दिल्ली में एक गाड़ी के मालिक दो-दो गाड़ियां खरीदने के लिए आज़ाद हैं। दिल्ली वाले एक दिन कार में, दूसरे दिन बस में तो जाने से रहे.आखिर दिल्ली वाले हैं !
फिर और भी रौनकें बढ़ेंगी.नंबर चैक होंगे तो जगह-जगह ट्रैफ़िक-जाम, ट्रैफ़िक पुलिस डाल-डाल तो वाशिंदे पात-पात.फिर चाट, सलाद,गुटके, चाय-पानी की रेहड़ियां.दिल्ली में हज़ारों गाड़ियों से पटी सड़कों पर लेन नंबर २, ४, ६ तो किसी को दिख नहीं पाती, एक अदद सिपहिया को दो दूनी चार कौन से चश्मे से दिखेगा? सिपाही भी वो, जिनके लिए दिल्ली सरकार दुखी है कि हमारी नहीं सुनते.
एक फायदा ज़रूर होगा- चालान काटने वाले सिपाही विधायकों की अंधाधुंध बढ़ी तनखा तो वसूल देंगे.
तो आदरणीय दिल्लीवासियो,जो सरकार आपको बिजली-पानी मुफ्त देगी उसकी तनखा तो आपको देनी ही पड़ेगी न?
जब तीन दिन आप पब्लिक ट्रांसपोर्ट से चल लेंगे तो शायद पब्लिक ट्रांसपोर्ट को भी ये पश्चाताप होने लगे कि हाय,जब हम इन्हें तीन दिन ले जा पाये तो छहों दिन क्यों न ले गए?      
   

Thursday, December 3, 2015

भाग्यशाली भारत

भारत में वर्षों तक कभी राजाओं -रजवाड़ों का शासन था।  राजा न रहे तो उसकी संतान का तत्काल राज्याभिषेक हो जाता था।  जब तक राजा जीवित रहे, ताज उस के सिर पर ही रहता था, चाहे वह वृद्ध, अशक्त या रुग्ण ही हो.उसके मरते ही सत्ता उसके पुत्र के पास चली जाती थी चाहे वह अनुभवहीन, छोटा या नासमझ ही क्यों न हो.राजा का ही यह दायित्व था कि वह जाने से पहले राज्य को शासक दे, चाहे इसके लिए कितने भी विवाह करने पड़ें, किसी को गोद लेना पड़े या किसी शत्रु के हाथों पराजय झेलनी पड़े.
यह परम्परा भारत से अँगरेज़ शासकों ने छुड़ाई,जब उन्होंने छल,बल,छद्म या लालच से उन्हें सत्ता मुक्त किया.
जिस तरह शराब छोड़ने पर भी शराबी के मुंह से मदिरा की गंध आसानी से नहीं जाती, उसी तरह सत्ता छूटने पर उसका ख़ुमार उतरना भी आसान नहीं होता.
राजाओं से छिने राजसी-वैभव की यह लत इंदिराजी ने छुड़वाई,जब उन्होंने पूर्व-राजाओं को सरकार की ओर से दिए जाने वाले गुज़ारे-भत्ते [ प्रिवीपर्स] को बंद किया.
इंदिराजी ने इसी तरह के और भी कई बड़े-बड़े काम किये.
लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि सब बड़े-बड़े कामों की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री की ही मान ली गयी.ठीक तो है, जिसने पहले किया, वही अब करे.
भारत इस अर्थ में अत्यंत भाग्यशाली है कि यहाँ जब भी कोई काम फैलता है तभी कोई न कोई उसे करने वाला भी देश को मिल ही जाता है.बीसवीं सदी की ही तरह इक्कीसवीं सदी में भी !     

प्रेस से छेड़छाड़ सरकारी पाप कहलाता है

प्रेस से छेड़छाड़ सरकारी पाप कहलाता है फिर भी सरकार "असहिष्णुता" रोकने के लिए ये तो कर ही सकती है-
१. चंद मिनटों में सैंकड़ों ख़बरों के प्रसारण वाली शैली पर रोक लगाए [शालीन सम्पूर्ण बयानों में से आधा-अधूरा जुमला ले उड़ना इसी से होता है ]
२. समाचार चैनलों के एंकरों [विशेषकर बहस संचालित करने वाले] के गले की "पिच सीमा" तय करे.ये सभ्य और शालीन प्रवक्ताओं/ नेताओं  को भी प्राइमरी स्कूल के बच्चों की तरह डांट कर बेवजह आक्रामक और उद्दंड बना रहे हैं.
३. चर्चा में कब किसके सामने से कैमरा हटेगा, यह अधिकार किसी तटस्थ मध्यस्थ को सौंपने की बाध्यता हो.इन "बहसों" को देखते समय याद आ जाता है कि भांड-विदूषकों ने गंभीर कवियों को मंचों से कैसे हाशिये पर धकेला !      

Wednesday, December 2, 2015

यदि कर सके तो सरकार ये कर दे !

इस समय माहौल बहुत अच्छा है। 
देश के अधिकांश बुद्धिजीवी, साहित्यकार, कलाकार, संत,विचारक आदि अपने सब दैनिक क्रियाकलाप छोड़ कर "सूरज को देखते हुए सूरजमुखी फूल" की भांति केवल मोदीजी और केंद्र सरकार को ही देख रहे हैं। ये आपको बताते हैं कि सरकार ने क्या नहीं किया, क्या-क्या गलतियां कीं, प्रधानमंत्री कहाँ गए, कहाँ नहीं गए, उन्होंने क्या पहना, क्या पहनना छोड़ दिया, क्या खाया, किसके साथ खाया, क्या बोले, क्यों बोले, क्यों नहीं बोले... आदि। 
सरकार उनकी इस सक्रियता का सकारात्मक लाभ क्यों न ले?
प्रत्येक जिला अधिकारी के कार्यालय में एक बोर्ड और मार्कर रखवा दे, और बुद्धिजीवियों का आह्वान करे कि वे जब चाहें, यहाँ आकर बोर्ड पर लिख जाएँ कि सरकार ने क्या गलत किया, या वो क्या करे?
आवश्यक हो तो सरकार इसके लिए उन्हें आने-जाने का किराया-भत्ता भी दे। जनसम्पर्क विभाग रोज इस बोर्ड की सामग्री स्थानीय अख़बारों को उपलब्ध करवा दे.   
बोर्ड पर शीर्षक हो- "क्या कहते हैं देश/समाज के हितैषी?"

ये चुनौती है

 एक समय था जब हमारे देश का तमाम कामकाज अंग्रेजी में चलता था,उस समय अधिकांश भारतवासी कुछ भी समझ नहीं पाते थे.
किन्तु अब राजभाषा कर्मियों के निरंतर प्रयास से यह दिन आ गया है कि अब काफी कामकाज हिंदी में भी होने लगा है.लेकिन इसके भी अपने नुकसान हैं.अब कई अंग्रेजीदां लोग इसे समझ नहीं पाते.
 हिंदी के तमाम शिक्षकों और विशेषज्ञों के लिए इस समय एक बड़ी चुनौती है। उन्हें या तो "मुहावरों" को सुधारना होगा, या फिर बिलकुल हटा देना होगा।
होता ये है कि कोई मुहावरा बोला जाता है, यथा -"धोबी का कुत्ता,घर का न घाट का"
इसका अर्थ है कि व्यक्ति दो काम करने चला पर कोई भी पूरा नहीं कर पाया."हाथी निकल गया, कुत्ते भौंकते रह गए" का अर्थ है व्यक्ति ने आलोचना की परवाह किये बिना अपना काम कर लिया.
किन्तु हमारी संसद में यदि कोई हिन्दीभाषी ये मुहावरा बोलता है तो उसे समझे बिना कहा जाता है-"हमें कुत्ता कह दिया, हमें हाथी बता दिया"
और इस तरह जो बात 'हिंदी के प्राथमिक ज्ञान' की है उसे "असहिष्णुता"का मुद्दा बता कर संसद ठप्प कर दी जाती है.
मज़ा ये, कि संसद ठप्प करने वाले कभी ये नहीं कहते कि हमने आज न काम किया, न औरों को करने दिया, अतः हमारे वेतन-भत्ते काट लो !    

Tuesday, December 1, 2015

अद्भुत ! आश्चर्यजनक !

आजकल एक बड़ी मज़ेदार चीज़ देखने को मिल रही है। 
वर्षों से हम जिन लेखकों और साहित्यकारों को पढ़ और सराह रहे थे,उनमें से कई आज अपनी पूरी ताकत केवल वर्तमान सत्ता को कोसने, विरोध करने, मज़ाक उड़ाने और उस पर तरह-तरह की टिप्पणी करने में लगाए हुए हैं.
ऐसे-ऐसे नामी संपादक जिन्हें किताबों और पत्रिकाओं के प्रूफ देख पाने तक का समय नहीं मिलता था, वे मोदीजी के भाषण, उक्तियाँ,उच्चारण,पहनावे, कार्यकलाप, भारतीय जनता पार्टी के कार्यों, कार्यक्रमों पर इस तरह टकटकी लगाए हुए हैं जैसे इनका जन्म ही इस काम के लिए हुआ है.देश की जिस जनता ने ३०० सीटें देकर इस दल को सत्तासीन किया है, उसके समर्थकों के लिए भी इन्होंने तरह-तरह के नाम ईज़ाद कर लिए हैं और ये रात दिन, सोते जागते, उठते बैठते केवल यही देख रहे हैं कि मोदीजी पल-पल क्या कर रहे हैं !
किसी समय आपातकाल के बाद इंदिराजी को भी ऐसा ही सौभाग्य मिला था कि हर आदमी उनकी ही बात कर रहा था, चाहे उनके पक्ष में, चाहे उनके विरोध में.शायद वे इसी कारण आराम से दोबारा सत्ता में आई थीं.
लगता है अगले चुनाव में बीजेपी को अपना प्रचार करने की ज़रूरत बिलकुल नहीं पड़ेगी, वो इन "बुद्धिजीवियों" के रात-दिन के भजनालाप से ही जीत जाएगी ! 

Monday, November 30, 2015

क्या हमें अपने से भी ज़्यादा भरोसा पाकिस्तान पर है?

भारत और पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ी आपस में मैच खेलें या नहीं?
इन दोनों देशों के बीच संभावित खेल को लेकर हमारा देश एक मत नहीं है। कुछ लोग मानते हैं कि खेल हो, और राजनीति या कूटनीति को खेल के मैदान से दूर रखा जाये।  जबकि कुछ लोग सोचते हैं कि यदि पाकिस्तान भारत के साथ दुश्मनी का व्यवहार करता है तो उसके साथ खेलने का क्या औचित्य? वहीं ऐसा विचार रखने वाले कुछ लोग भी हैं कि आज की दुश्मनी को मिटाने की जब कूटनीतिक कोशिशें हो रही हैं तो सौहार्द्र की एक कोशिश खेल के जरिये भी क्यों नहीं? खिलाड़ियों और खेल- प्रेमियों की राय यह है कि देशों की सरहद बांटना हुक्मरानों का काम है, मानवीय आधार पर खेल की भावना तो बनी ही रहे।
तात्पर्य यह है कि एक ही मुद्दे पर हम अलग-अलग राय रखते हैं और अपने-अपने हिसाब से एक्शन चाहते हैं।
तो क्या पाकिस्तान को हम एड़ी से चोटी तक "एक" ही मानते हैं? क्या वहां सत्ता, विपक्ष, अवाम, खेल प्रशासन और खिलाड़ी,सबका हम परस्पर जुड़ाव या एकजुटता मानते हैं?
क्या हमारे यहाँ जो सत्ता कहती है, विपक्ष, जनता, खेलसंघ, खिलाड़ी और खेलप्रेमी वही करते हैं?
यहाँ तो आधे से ज्यादा लोग ये शपथ खाए बैठे हैं कि जो केंद्र सरकार करे, उसका उल्टा बोलना है !चाहे वह जनता के स्पष्ट बहुमत से चुनी हुई बिना किसी जोड़गांठ, उठा-पटक,खींचतान वाली सरकार हो।
आखिर साठ साल तक खाया हुआ नमक भी तो कुछ वजन रखता है?  

     

Friday, November 27, 2015

           

युद्ध स्तर पर लड़ने की ज़रूरत है इस से

भारत की आज सबसे बड़ी समस्या शायद जनसंख्या का दबाव ही है। हम अपने सवा अरब देशवासियों पर बेशक गर्व करना न छोड़ें, किन्तु ये बात भी न भूलें कि  -
१. हमारी अधिकांश महत्वाकांक्षी परियोजनाएं बेतहाशा बढ़ते जनसंख्या दबाव के चलते संकट में पड़ जाती हैं।
२. विशाल जनसंख्या में एक बड़ा हिस्सा अनुत्पादक जनसंख्या का है, जो अर्थव्यवस्था पर भार की तरह है।
३. यदि हम "जनसंख्या किस्म" की बात करें तो इसमें निरंतर ह्रास हो रहा है क्योंकि वे लोग ही तेज़ी से बढ़ रहे हैं जो शिक्षा या प्रचार के दायरे में नहीं आ पाते।
४. संख्या नियंत्रण के लिए कुछ कड़े फैसले लिए बिना काम नहीं चलता,और कोई भी ऐसा फैसला विविध-सोच वाले देश में आसान नहीं होता।
५. यह सच है कि बेहद व्यापक हो चुकी "नशाखोरी" ने हमारी जनसंख्या के बड़े हिस्से को नाकारा बना छोड़ा है।
 ६.तथाकथित असहिष्णुता भी भीड़ की एक प्रवृत्ति है, और हर जगह, हर बात में भीड़ होना, जनसंख्या की ही देन है।     
७. हम बाहर से हमारे पास आये लोगों को अपना नहीं समझ पाते इससे वे हमारे पास तो हैं, पर हमारी मानसिक आयोजना में शामिल नहीं हैं।       

Thursday, November 26, 2015

प्रकृति मै ' म [ कहानी- अंतिम भाग (5) ]

मैडम बोलीं- गौरव, बेटा इस ग्रुप में अब बहुत बच्चे हो गए हैं, तुम कल से दोपहर वाले बैच में आया करो।
गौरव ने मुंह में भरा पानी पिचकारी की शक्ल में ऐसे उछाला जैसे नौसिखुए सिगरेट पीने वाले धुआं एक ओर मुंह करके उड़ाते हैं।  फिर धीरे से बोला- जी मैम !
कोच उसके कॉस्ट्यूम की ओर गहराई से देखती हुई झेंप कर रह गयी।
गौरव ने चुपचाप पास की बेंच पर रखा अपना तौलिया लेकर कंधे पर डाला और धीरे-धीरे वाशरूम की ओर बढ़ गया।
मैं  शायद सीढ़ियों की ओर नीचे होने के कारण ऊपर उन लोगों को दिखाई नहीं दिया था लेकिन उनकी आवाज़ मुझ तक साफ-साफ आ रही थी।
बच्चे गौरव को जाते हुए देखते रहे, तभी पीछे से पानी के बीच से अविनाश की आवाज़ आई,जो गौरव से कह रहा था- ... तुम अब ठड़े होने वाले वाशरूम में जाना ...टल से.... ठीट है डौरव ?
बच्चों ने देखा गौरव मुस्कराकर पलटा और फिर बब्बर शेर वाली चाल से चलता हुआ शान से भीतर चला गया।  कोच ने मुझे देख लिया था और वे अभिवादन कर मेरी ओर चली आयीं।
मैं बच्चों को अठखेलियां करते देख रहा था कि तैरते हुए अविनाश की आवाज़ आई- डुरुजी ....नमस्टार !
मैं सोच रहा था, हम तो नाम के शिक्षक हैं बाक़ी असली शिक्षिका तो प्रकृति है जो अपने तरीके से ज़िंदगी के सबक हम सबको सिखाती है।  [ समाप्त ]
[ "सुजाता" सितम्बर 2015 अंक में प्रकाशित ]    

प्रकृति मै ' म [ कहानी- भाग 4 ]

तभी लड़कियों के झुण्ड के बीच से अविनाश की तेज आवाज़ आई- ये बब्बर शेर है, बब्बर शेर ! देठो -देठो ...इस टे बाल ! चारों टरफ़ बाल ही बाल ...बब्बर शेर ...जंडल टा राजा !
बड़े सर को पास आया देख बच्चे संयत हो गए थे।  लड़कियां भी झुण्ड से तिरोहित होने लगी थीं।  सभी आगे बढ़ने लगे।
बच्चों ने भरपूर आनंद लिया पिकनिक का।  शाम गहराने से पहले ही बच्चों को अपने-अपने घर पहुंचा दिया गया।
अगले दिन अवकाश था लेकिन बच्चों की एक्स्ट्रा एक्टिविटीज़ चल रही थीं।  मैं अपने नियमित राउंड पर था।  पिछवाड़े के खेल मैदान के किनारे-किनारे चलता हुआ मैं स्वीमिंग पूल की ओर  जाने लगा।
विद्यालय का स्वीमिंग पूल तीन शिफ्टों में चलता था।  सुबह छोटे बच्चे आते थे जिनके लिए कॉमन व्यवस्था थी।  बारह वर्ष तक की आयु के लड़के-लड़कियां इसमें तैरना सीखते थे। बाद में दोपहर को लड़के और शाम को लड़कियां आती थीं। ये बड़ी कक्षाओं के लिए निर्धारित समय था।  पूल पर अलग-अलग दो वाशरूम और चेंजरूम बने हुए थे।  छोटे बच्चों और लड़कियों का एक वाशरूम था तथा बड़े लड़कों के लिए दूसरा।
मैं कल की सैर के विचारों में खोया धीरे-धीरे चलता हुआ स्वीमिंग पूल की सीढ़ियों तक आ गया।  सुबह की बच्चों वाली शिफ्ट चल रही थी।  कोच मैडम छोटे बच्चों को तैरना सिखा रही थीं। पिछले दिनों पड़ने वाली गर्मी और उमस के कारण बच्चों को ठन्डे पानी में अठखेलियां करना भा रहा था।
सीढ़ियों पर कदम रखते ही भीतर का कोलाहल सुनाई देने लगा।  शायद इस शिफ्ट में बच्चों की संख्या भी कुछ ज्यादा थी जिससे चहल-पहल भी बढ़ गयी थी।
तभी तो कमर में ट्यूब बांधकर हाथ-पैर मारते बच्चों को पूरी तरह से जगह भी नहीं मिल पा रही थी।  वे एक-दूसरे पर पानी की बौछारें उछालते जीवन के झंझावातों के लिए मानो अपने को तैयार करने की मीठी मुहिम में जुटे थे।  मुझे कोच मैडम की आवाज़ सुनाई दी।  वे एक लड़के को इशारे से पानी से बाहर आने को कह रही थीं। गौरव नाम का वह लड़का था तो बच्चों की इसी क्लास का, मगर शायद देर से पढ़ने या फेल हो जाने के कारण अपनी कक्षा के बच्चों से डील-डौल में ज़रा बड़ा लगता था।
गौरव अपने माथे पर छितराये भीगे बालों को हाथों से पीछे करता पानी निकल कर कोच के पास आने लगा।  उसके स्वीमिंग कॉस्ट्यूम से पानी की धार अब भी टपक रही थी।
[... जारी ]                

प्रकृति मै ' म [ कहानी-भाग 3 ]

 एक बड़े घुमावदार रास्ते के बाद बने पिंजरे के सामने किलकारियां भर-भर के लड़के खुश हो रहे थे।  कुछ-एक तो हाथ हिला-हिला कर सीटियां मार रहे थे।  पिंजरे के सामने के रास्ते के पार एक पीपल के पेड़ के नीचे कुछ लड़कियां जमा हो गयी थीं।
मैं उस ओर देखता हुआ कुछ बड़े-बड़े डग भरता हुआ बढ़ने लगा।  मैंने देखा, लड़कियां पिंजरे के पास नहीं आ रही थीं बल्कि दूर पेड़ के नीचे झुण्ड में खड़ी मुंह फेर कर हंस रही थीं।  वे इशारे में एक दूसरी को दिखा कर हँसतीं और उस ओर  से मुंह घुमा लेतीं। आखिर ऐसा कौन सा जानवर था जिसे देख कर लड़के इतने प्रफुल्लित हो रहे हैं और लड़कियां शरमाकर इस तरह दूर हट रही हैं?
मैंने कदम कुछ और तेज़ कर दिए।  तभी मेरा माथा ठनका-कहीं ऐसा तो नहीं कि  पिंजरे में कोई जोड़ा रतिक्रिया कर रहा हो।  जानवर में इतनी समझ थोड़े ही होती है कि वह भीड़ और एकांत के बीच फर्क कर सके।  मुझे कुत्तों या गाय-बैलों के ऐसे कई सार्वजनिक दृश्य याद थे जब मैंने उनकी ऐसी अवस्था में उन्हें देख कर लड़कों को खुश होते और लड़कियों को मुंह छिपा कर चुपचाप वहां से गुज़रते देखा था। तो क्या इस अवस्था के छोटे बच्चे भी ऐसे दृश्यों से आनंदित होने लगे? ये क्या होता जा रहा है, मैं सोच में डूबा उस ओर बढ़ा।
मेरा आश्चर्य वहां पहुँच कर और भी बढ़ गया, क्योंकि वहां ऐसा कुछ भी नहीं था। वह तो बब्बर शेर का पिंजरा  था। बचपन में सुनी कई कहानियों के आधार पर लड़के जंगल के राजा का इस्तकबाल खुश होकर, सीटियां और किलकारियां भर के कर रहे थे और वह शान से अपने दर्शकों को देखता हुआ इधर से उधर पिंजरे में टहल रहा था।  लड़कों की ख़ुशी जायज़ थी।
लेकिन लड़कियों का शरमाना और मुंह छिपा कर हंसना मेरी समझ में बिलकुल नहीं आया।  क्या वे शेर से डर रही थीं? क्या जंगल का राजा उन्हें उत्साह-उल्लास से नहीं भर रहा था? आखिर क्या बात थी?
[... जारी ]        

प्रकृति मै ' म [ कहानी- भाग 2 ]

स्कूल के प्रिंसिपल के छुट्टी पर होने के कारण  मैं कार्यवाहक के रूप में उनका काम देख रहा था, इसलिए रविवार को बच्चों के साथ यहाँ भी चला आया था।  मुझे पता था कि  बारह वर्ष तक के बच्चों का वहां आधा टिकट ही लगा करता था, इसलिए विद्यालय स्तर पर कन्सेशन की व्यवस्था की कोई ज़रूरत वैसे भी नहीं थी।
पिछले दिनों शहर के कुछ स्कूलों में छेड़छाड़ व दुष्कर्म की घटनाएँ अख़बारों में उछल जाने से मैं अपनी जिम्मेदारी अधिक मानकर बच्चों के साथ चला आया था।  मैं कुछ ही दिन के लिए नया-नया प्रिंसिपल बना था इसलिए मैंने सचेत रहने की कोशिश की।  कहते हैं न कि नया मुल्ला कुछ ज्यादा ही अल्लाह-अल्लाह करता है।
टिकट लेने के बाद बच्चे अपने-अपने झुण्ड में जानवरों को देखने में मशगूल हो गए।  हाथी , जिराफ़,ऊँट,शुतुरमुर्ग, दरियाई घोड़ा, बारहसिंघा, गेंडा , घोड़ा , जंगली भैंसा, ज़ेबरा, शेर, बाघ, रीछ,लकड़बग्घा .....एक न ख़त्म होने वाला सिलसिला था।  बच्चे अपने-अपने तरीके से निसर्ग-प्राणियों के बंदी जीवन का आनंद ले रहे थे।  लड़कों की रूचि जहाँ चिम्पांजी की उछलकूद और भालू की शरारतों में थी, वहीँ लड़कियां हरिणों के सौंदर्य और रंग-बिरंगे पंछियों की कलाबाजियों में डूबी थीं।  अविनाश या तो अकेला होता या फिर लड़कियों की जिज्ञासा को शांत करता, उनको नई-नई जानकारी देता, उनके झुण्ड में दिखाई देता। दूसरे दोनों अध्यापक, जिनमें एक महिला थी,अपनी बातों में मगन पीछे-पीछे चले आ  रहे थे।  किताबों से दूर एक दिन की तफ़रीह मानो उन्हें भी सुहा रही थी।
मुझ पर आनंद लेने से अधिक, बच्चों का दायित्वपूर्ण अभिभावक होने का नशा तारी था।  इसलिए मैं पशुओं से अधिक बच्चों के कार्यकलाप और उनकी बातों पर भी सतर्कता से नज़र रखे चल रहा था।  मेरी वरिष्ठता दोनों अध्यापकों को भी जैसे मुझसे दूर-दूर रखे हुए थी।
जब पिंजरों के बीच दूरी अधिक होने पर बच्चे गलियारों और ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलते तो उनकी बातें भी बहती धारा की तरह तेज़ और घुमावदार हो जातीं। हँसी -मज़ाक छींटाकशी बढ़ जाते।  आगे बढ़ जाने वाले लोग किसी पेड़ की छाँव में ठहर कर पीछे आने वालों का इंतज़ार करते।
तभी आगे कुछ दूरी पर कुछ हलचल सुनाई दी।
[ .... जारी ]          

प्रकृति मै 'म [ कहानी ]

अरे सर, रुटना रुटना ...अविनाश दौड़ता-चिल्लाता आया।
-क्या हुआ? मैं पीछे देख कर चौंका।
-सर, टन्सेसन मिलेडा।
-अरे कन्सेशन ऐसे नहीं मिलता।  मैंने लापरवाही से कहा।
-तो टेसे मिलटा है?
-उसके लिए प्रिंसिपल को सिगनेचर करने पड़ते हैं। मैंने समझाया।
-तो टर दो, आप ही तो हो।
-अरे बेटा, उस पर स्कूल की सील लगानी पड़ती है। मैं बोला।
-तो लडाडो न सर।
-सील यहाँ नहीं लाये। मैंने बताया।
-ट्यों नहीं लाये?
-चुप ! अब मुझे गुस्सा आ गया था।
-तो ठरीदो सबटे फुल टिटट ... अविनाश अब धीरे से बुदबुदा कर चुपचाप पीछे खड़ा हो गया।
मैं 'ज़ू' के मुख्यद्वार के पास बने बुकिंग कार्यालय की खिड़की पर जाकर स्कूली बच्चों के लिए टिकट लेने लगा। तब तक दो-दो, चार-चार के झुण्ड में बाकी बच्चे भी आकर इकट्ठे होने लगे थे।  चिड़ियों की तरह उनकी चहचहाने की आवाज़ें गूँज रही थीं।
ये सभी शहर के एक नामी पब्लिक स्कूल के नौ से बारह वर्ष की आयु के बच्चे थे जिन्हें दो-तीन अध्यापकों के साथ रविवार के दिन शहर का चिड़ियाघर दिखाने के लिए पिकनिक पर लाया गया था।  बच्चों में लड़के और लड़कियां दोनों थे, जो स्कूल बस से उतरने के बाद अपनी-अपनी मित्र-मण्डली में बंटे अध्यापकों के पीछे-पीछे आ रहे थे।
अविनाश विद्यालय का होनहार-समझदार बच्चा था, किन्तु तुतलाकर बोलने की आदत के कारण साथी लड़के उसका खूब मज़ाक बनाया करते थे।  यही कारण था कि वह साथियों से कटता था और ज्यादा समय या तो अकेला रहता था या फिर लड़कियों के साथ।  मजे की बात यह, कि लड़कियां उसे पसंद करती थीं और अपने साथ उसे रख कर खुश होती थीं क्योंकि एक तो वह बहुत सहयोगी भावना वाला था, दूसरे बुद्धिमान होने से उनका सलाहकार भी बना रहता था।  यों वह उम्र में बारह से कुछ ज्यादा ही रहा होगा।  अविनाश ने ही खुद आगे बढ़कर विद्यार्थियों को वहां कन्सेशन मिलने की बात  बताई थी।
[... जारी ]                  

Wednesday, November 25, 2015

तब क्या होगा?

आज हमारे पास टीवी देखने के लिए ढेर सारे चैनल्स हैं। इनमें बहुत विविधता भी है। कहा जाता है कि आप जो कुछ देखना चाहें वही उपलब्ध है। मनोरंजन की दुनिया में यह उपलब्धि ही है।
लेकिन यह भी सत्य है कि आज मनोरंजन के ये स्टेज भी विचारधाराओं से ग्रसित हैं।
यदि आपका प्रवेश इन अलग-अलग चैनल्स में अबाधित है तो ये आपके लिए ज्ञान और स्वस्थ मनोरंजन का जरिया हो सकते हैं। आप अपने मूड और समय के मुताबिक मनमाफिक कार्यक्रम देख सकते हैं।
लेकिन अगर आपको मितव्ययता के कारण इनमें से अपनी पसंद के चंद चैनल्स चुनने के लिए कहा जायेगा, तो एक आशंका है। यदि आपने समाचार चैनलों का चयन सावधानी से नहीं किया तो हो सकता है कि आप जबरन एकतरफ़ा सोच के शिकार बना दिए जाएँ।
बड़ी संख्या में समाचार चैनल्स आज आपके लिए  'ब्रेनवाश' करने की कोशिश करने वाले आक्रामक हमलावर बनते जा रहे हैं।  कुछ तो ऐसे हैं कि जिन्हें देखते हुए आपको ये साफ लगेगा कि  यदि आपने इनकी बात नहीं मानी तो इनके प्रस्तुतकर्ता परदे से निकल कर आपसे झगड़ा करने लगेंगे।
देश में फैलती सहिष्णुता-असहिष्णुता की रस्साकशी में इनकी भूमिका कितनी है, ये नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
            

Monday, November 23, 2015

सहिष्णुता या असहिष्णुता आपके अपने भीतर है !

हवा न चले तो पतंग नहीं उड़ती, पतंग बेचने वाले भी मायूस हो जाते हैं।
हवा चले तो पतंग लहराती है। पतंगें उड़ें तो पेंच लड़ते हैं।
पेंच लड़ें, तो एक पतंग कटती है, एक काटती है।
कटने वाला मायूस,काटने वाले के मज़े।
हमेशा एक की ही पतंग कटे तो वह उड़ाना छोड़ देगा।
काटने वाले के मज़े भी ख़त्म! अकेला उड़ाता रहा तो ऊब कर वह भी उतार लेगा।
अतः मज़ा पेंच लड़ाने में ही है, हारने-जीतने में नहीं।
जीत जाएँ तो आनंद उठाइये, हार जाएँ तो जीतने का इंतज़ार कीजिये।
 
 


     
    


Thursday, November 19, 2015

ये भी है नए समय की एक विशेषता

एक समय था जब जीवन के किसी भी क्षेत्र के बारे में बात करते समय कहा जाता था कि "इस में राजनीति नहीं", अर्थात राजनीति केवल राजनीति में ही होती थी। खेल,साहित्य,शिक्षा,फिल्म, विज्ञान,कला आदि क्षेत्रों में इसका प्रवेश वर्जित था।
लेकिन आज ठीक इसका उल्टा है। आप बिना राजनीति के आज किसी से, किसी भी मुद्दे पर बात कर ही नहीं सकते।  आप चाहे कर भी लें ,पर सामने वाला आपकी बात को बिना राजनीतिक परिप्रेक्ष्य के ग्रहण कर ही नहीं पायेगा।
इसका कारण बहुत स्वाभाविक है।
आज़ादी के आधी सदी बाद तक हमारे यहाँ एक ही सोच की सत्ता रही। उसके बाद का समय उथल-पुथल का रहा। कभी तू, कभी मैं। ऐसे-ऐसे अजीबोगरीब गठजोड़ होते रहे जो किसी नौटंकी से भी ज़्यादा मनोरंजक होते थे। एक दूसरे को गरियाते-लतियाते चुनाव लड़ते, और बाद में एक-दूसरे से गले मिल कर कुर्सी पर आसीन हो जाते। सालों बाद देश में जनता ने करीने से किसी एक विचार को केंद्रीय सत्ता सौंपी।
हर समय समाज या देश में मूलतः दो वर्ग होते हैं- "हैव्स और हेवनॉट्स" यानी एक, जिस के पास है और दूसरा, जिसके पास नहीं है। वैचारिकता के परिवर्तन से जिनके पास था, उनसे खिसक कर दूसरे के पास जाने लगा।  
अब सावन के अंधे की भांति एक वर्ग को अपनी हरियाली की आदत है, वह दूसरे वर्ग को फलते-फूलते देख कर सहन नहीं कर पाता और बात-बेबात "असहिष्णुता"राग आलापता है। यह नहीं समझ पाता कि ये तथाकथित असहिष्णुता उसकी अपनी ही है।
हाँ, एक लम्बा-चौड़ा तीसरा वर्ग भी है, जो पहले भी खा रहा था, अब भी खा रहा है। चलिए, फ़िलहाल उसके वाशिंदों को सामान्य आदमी नहीं मानते।   
                  

आपभी नाप सकते हैं असहिष्णुता

आजकल भारत में असहिष्णुता पर एक खास किस्म की बहस चल रही है। इस बहस में हिस्सा लेने के लिए मीडिया के विभिन्न चैनलों पर उन लोगों को आमंत्रित किया जाता है, जो किसी भी मुद्दे पर सहिष्णु नहीं हों। क्योंकि यदि वे सहिष्णु होंगे तो वे चर्चा के दौरान मुंह भी नहीं खोल पाएंगे। असहिष्णु लोगों द्वारा तेज़ आवाज़ में, जल्दी-जल्दी इस तरह चर्चा करनी होती है कि एक बार शुरू होने पर किसी के भी रोके से आप न रुकें,और केवल मुद्दे की बात को छोड़ कर बाकी सब कुछ बिना रुके कहते रह सकें।आप इतने तन्मय होकर चीखें कि आपके सामने से माइक अथवा कैमरा हटा लिए जाने का भी आप पर असर न हो। सहिष्णु लोगों को यह अभ्यास नहीं होता।
आइये देखें, कि असहिष्णुता कैसे लायी जाती है, और कितनी?
आजकल प्रचलित परम्परा के अनुसार किसी भी समाचार चैनल के पास प्रति दस मिनट में से आठ मिनट विज्ञापनों के लिए तथा दो मिनट समाचारों के लिए उपलब्ध होते हैं।  कर्णभेदी मधुर पार्श्वसंगीत के साथ चैनल के पहचान चित्र-जंजाल और बोधवाक्य के लिए तीस-चालीस सैकंड का समय भी इन्हीं दो मिनट में से निकालना होता है। क्योंकि आठ मिनट के विज्ञापन तो वैसे भी साढ़े आठ मिनट ले लेते हैं।
अब आपको दो मिनट में पिच्चासी ख़बरों का रसास्वादन कराया जाना है, स्टार्ट ....
१. बॉलीवुड की मशहूर आयटम गर्ल ने किया जुहू-बीच पर डांस
२. नाचीं हरी चुनरी में
३. दुपट्टा था हल्का पीला
४. 'क' दल के एक नेता ने दिया विवादास्पद बयान
५. साक्षात्कार में कहा- हम नहीं देखते नचनियां का नाच
६. 'ख' दल के प्रवक्ता ने इसे नृत्यकला का अपमान बताया
७. सुदूर प्रान्त की राजधानी में एक राजनर्तकी ने कुपित होकर लौटाया उन्हें मिला सम्मान
८. राजनर्तकी के समर्थन में उतरे मृदंग वादक
९. 'ग' दल ने शहर के मुख्य मार्गों से नगर कोतवाल की कोठी तक कलाकारों के साथ मार्च-पास्ट किया
१०. शहर के मशहूर कालेज में इस असहिष्णुता पर राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित
११. 'घ'दल ने की इस मुद्दे पर सरकार के इस्तीफ़े की मांग
बस, इसके बाद आपने टीवी ऑफ़ कर दिया। तो आपकी असहिष्णुता हुई-"सौ प्रतिशत"[आप राष्ट्र की रंग-रंगीली हलचल को सह नहीं न पाये!]
                    

Thursday, October 29, 2015

ये अच्छा है या बुरा?

जब किसी दर्द के इलाज के लिए आप डॉक्टर के पास जाते हैं, तो डॉक्टर इलाज से पहले आपके दर्द वाले स्थान को हिलाकर , सहलाकर , दबाकर , पकड़कर या  खरोंच कर और बढ़ा देता है।
इस समय रोगी की मनोदशा सतरंगी हो सकती है-
१. ये दर्द मिटा रहा है या और बढ़ा रहा है?
२. इसे कुछ समझ में ही नहीं आ रहा, क्या इलाज करेगा?
३. ध्यान से देख तो रहा है, निदान करेगा।
४. हिसाब लगा रहा है, कौन-कौन से टेस्ट कराये जा सकते हैं?
५. बढ़िया डॉक्टर है।
६. पड़ौसी ठीक कहता था, ज़रा समय लगाएगा पर दर्द छूमंतर कर देगा।
७. इसका तो हाथ लगते ही दर्द गायब हो गया?
रोगी कोई भी हो सकता है-इंसान, जानवर या देश !   

Sunday, October 25, 2015

"हरी-नीली-पीली-गुलाबी पतंगें"

कल मुझे एक छात्र ने पूछा-"सर, मकरसंक्रांति पर जयपुर में तो बहुत पतंगें उड़ती हैं, आप जयपुर में ही पढ़े, क्या आप भी पतंगें उड़ाते थे?"
उसे दिया गया जवाब आपके लिए भी-

हरी नीली पीली गुलाबी पतंगें
न जाने मगर कौन सी अब कहाँ है?

किसी-किसी के रंग, लगते सजीले
किसी-किसी के अंग,होते नशीले
किसी-किसी के तंग, थे ढीले-ढीले
तरसाती थीं दूर से भी पतंगें !

इन्हें देखते छत पे आते थे लड़के
गली में मिलीं, लूट लाते थे लड़के
पकड़ डोर जबभी, हिलाते थे लड़के
धरा से गगन पे, जातीं पतंगें !

कोई दोस्तों से मिलके उड़ाता
कोई लेके इनको,अकेले में जाता
सभी का मगर इनसे कोई तो नाता
होतीं सभी की मुरादें पतंगें !

पड़ता था घर के बड़ों को मनाना
कहते थे बाबा, थोड़ी उड़ाना
जैसा हो मौसम उसी से निभाना
देती हैं भटका,ज़्यादा पतंगें ! 





Wednesday, October 7, 2015

मासूम सादगी

कुछ लोग "साहित्य अकादमी" द्वारा दिए गए सम्मानों को वर्षों बाद वापस लौटा रहे हैं। आइये देखें, कि वे जाने-अनजाने अपनी मासूमियत में क्या कह रहे हैं? अर्थात इसके क्या निहितार्थ हैं?
-वे कह रहे हैं कि उन्हें पुरस्कार/सम्मान उनकी रचनाओं पर नहीं मिला, बल्कि इसलिए मिला है, क्योंकि उस समय की सरकार और नेता अच्छा काम कर रहे थे।
-साहित्य के पुरस्कार साहित्य के विशेषज्ञ, समालोचक तथा वरिष्ठ साहित्यकर्मी नहीं तय करते बल्कि सत्ता में बैठे हुए नेता तय करते हैं।
-अब वे अपमानित महसूस कर रहे हैं क्योंकि 'अब सत्ता में उनका कोई नहीं' है।

"लौटा रहे हैं 'मान' वे, सत्ता को कोस कर
लगता है उनके मान में, सत्ता का हाथ था"

तो अब वे सरकार के नयनों के तारे नहीं रहे।       

Tuesday, September 29, 2015

कृष्णा अग्निहोत्री "राही रैंकिंग-2015-हिंदी के 100 बड़े वर्तमान रचनाकारों में"

 कृष्णा अग्निहोत्री को हिंदी के 100 बड़े वर्तमान रचनाकारों की "राही रैंकिंग-2015" में सम्मिलित किया गया है।उन्हें 32 वां क्रमांक दिया गया है।     

Wednesday, September 23, 2015

"राही रैंकिंग-2015" हिंदी के वर्तमान 100 बड़े रचनाकारों की सूची ध्यान से देखिये और चुनिए 3 नाम

   आसमान में उड़ती पतंगों की तरह साहित्यकारों की लोकप्रियता भी स्थायी नहीं है।  कुछ गिने-चुने कलमकार अवश्य साहित्याकाश पर अपनी लेखनी के कालजयी हस्ताक्षर कर जाते हैं, जो किसी के मिटाये नहीं मिटते।
लेकिन हम बात कर रहे हैं "वर्तमान"रचनाकारों की।  वो रचनाकार जो अभी उत्तुंग शिखरों की चढ़ाई में निमग्न हैं, जो अभी सागर की अतल गहराइयों में दुर्लभ खोज की आस में गोते लगा रहे हैं,वो सर्जक जिनके और अच्छे दिन भविष्य के गर्भ में हैं।
लेकिन यदि इस सूची में अपनी जगह बनाने कोई और आएगा तो निश्चित ही वह किसी को हटा कर आएगा।
हमारे अनुसन्धान दल की हथेली पर ऐसे तीन नाम उभर कर आये हैं।
१. महीप सिंह,२. कृष्णा अग्निहोत्री,३. कुसुम अंसल
अब आप बताइये कि क्या आप इन नामों से सहमत हैं?
यदि हाँ, तो इनके लिए सूची में जगह बनाइये। केवल १,२,३, लिखकर उनके आगे वे ३ नंबर लिख दीजिये, जिनकी जगह आप इन्हें मानते हैं। आप तीनों, दो या एक के लिए भी ऐसा कर सकते हैं।         

Tuesday, September 22, 2015

राही रैंकिंग 2015 -"हिंदी के वर्तमान 100 बड़े रचनाकार-रामदरश मिश्र"

हिंदी के सुप्रसिद्ध रचनाकार बालशौरि रेड्डी का पिछले दिनों निधन हो गया।  हम उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि देते हैं।
हमारे अध्ययन दल के पास उपलब्ध अद्यतन जानकारी के अनुसार रामदरश मिश्र का नाम "हिंदी के वर्तमान 100 बड़े रचनाकारों की "राही रैंकिंग-2015"में सम्मिलित किया गया है।     

Saturday, August 15, 2015

"राही रैंकिंग-2015" हिंदी के 100 वर्तमान बड़े रचनाकार

"राही रैंकिंग -2015"
हिंदी के 100 वर्तमान बड़े रचनाकार

रैंक / नाम
1.  मैत्रेयी पुष्पा
2.  नरेंद्र कोहली
3.  कृष्णा सोबती
4.  ज्ञानरंजन
5.  रमणिका गुप्त
6.  गिरिराज किशोर
7.  चित्रा मुद्गल
8.  विनोद कुमार शुक्ल
9.  मृणाल पाण्डे
10.  काशीनाथ सिंह
11.  नासिरा शर्मा
12.  अजित कुमार
13.  असगर वज़ाहत
14.  सूर्यबाला
15.  नामवर सिंह
16.  गोविन्द मिश्र
17.  दूधनाथ सिंह
18.  मृदुला गर्ग
19.  गोपालदास "नीरज"
20.  केदारनाथ सिंह
21.  मन्नू भंडारी
22.  किशोर काबरा
23.  मृदुला सिन्हा
24.  सूरज प्रकाश
25.  अभिमन्यु अनत
26.  विवेकी राय
27.  सुरेन्द्र वर्मा
28.  उदय प्रकाश
29.  अशोक वाजपेयी
30.  रमेश चन्द्र शाह
31.  गुलज़ार
32.  कृष्णा अग्निहोत्री
33.  रमेश उपाध्याय
34.  उषा प्रियंवदा
35.  राजी सेठ
36.  हरि जोशी
37.  मिथिलेश्वर
38.  तेजेन्द्र शर्मा
39.  मेहरुन्निसा परवेज़
40.  अब्दुल बिस्मिल्लाह
41.  संजीव
42.  आलोक पुराणिक
43.  एस आर हरनोट
44.  रामशरण जोशी
45.  लीलाधर जगूड़ी
46.  सुभाष पंत
47.  अनुराग शर्मा "स्मार्ट इंडियन"
48.  चंद्रसेन विराट
49.  सतीश दुबे
50.  अशोक चक्रधर
51.  लीलाधर मंडलोई
52.  विभूति नारायण राय
53.  दिविक रमेश
54.  अंजना संधीर
55.  शिवमूर्ति
56.  भारत भारद्वाज
57.  धीरेन्द्र अस्थाना
58.  भगवान अटलानी
59.  शेरजंग गर्ग
60.  नीरजा माधव
61.  ज्ञान चतुर्वेदी
62.  पंकज बिष्ट
63.  ज्ञानप्रकाश विवेक
64.  रामदरश मिश्र
65.  प्रभाकर श्रोत्रिय
66.  अमृतलाल वेगड़
67.  सुधीश पचौरी
68.  ममता कालिया
69.  बलराम अग्रवाल
70.  चंद्रकांत मेहता
71.  मालती जोशी
72.  मंगलेश डबराल
73.  मैनेजर पाण्डेय
74.  पद्मा सचदेव
75.  धनञ्जय वर्मा
76.  गिरीश पंकज
77.  सुधा ओम ढींगरा
78.  हबीब कैफ़ी
79.  सुधा अरोड़ा
80.  सूर्यकांत नागर
81.  जीतेन्द्र भाटिया
82.  प्रेम जनमेजय
83.  क़मर मेवाड़ी
84.  विश्वनाथ त्रिपाठी
85.  कमल किशोर गोयनका
86.  विष्णु खरे
87.  रत्नकुमार सांभरिया
88.  संतोष श्रीवास्तव
89.  विष्णु नागर
90.  प्रताप सहगल
91.  डॉ दामोदर खड़से
92.  मणिका मोहिनी
93.  उर्मिकृष्ण
94.  रूपसिंह चंदेल
95.  विश्वनाथ सचदेव
96.  मीठेश निर्मोही
97.  वेदप्रताप वैदिक
98.  प्रकाश मनु
99.  सैन्नी अशेष
100. सुकेश साहनी
    
  

Sunday, August 9, 2015

जीत सकते हैं आप

नीचे दी गयी पोस्ट में हिंदी के उन १०० वर्तमान साहित्यकारों के नाम दिए गए हैं,जिन्हें विशेष शोध के बाद सबसे बड़ा व लोकप्रिय रचनाकार माना गया है।
जल्दी ही आप इस सूची में सम्मिलित रचनाकारों का "लोकप्रियता क्रमांक" भी जानेंगे।
यदि आप समझते हैं कि इन सिद्ध कलमकारों को लोकप्रियता क्रम से सजाने का काम आप भी कर सकते हैं, तो आप हमें आपकी अपनी लोकप्रियता सूची भेज सकते हैं।आपको सभी नाम लिखने की ज़रूरत नहीं है, केवल १ से १०० तक गिनती लिखिए और उन नंबरों के आगे लिखिए उस पर अंकित रचनाकार की आपके द्वारा दी गयी रैंकिंग !
यदि आपका क्रम हमारे अनुसन्धान दल के चुने क्रम से मिल जाता है, अथवा अधिकतम सटीक सिद्ध होता है तो आपके लिए हैं आकर्षक पुरस्कार[नकद और पुस्तकों के रूप में]।
आपका "क्रम" हमें यहाँ अथवा prabodhgovil@gmail.com पर १५ अगस्त तक अवश्य प्राप्त हो जाना चाहिए। क्योंकि स्वतंत्रता दिवस का सूरज ढलते ही हम खुद ले आएंगे आपके लिए-
हिंदी के १०० वर्तमान बड़े व लोकप्रिय रचनाकारों की "रैंकिंग"    

100 Noted HINDI Writers-2015 [In Alphabetical Order]

1. Abdul Bismillah
2. Abhimanyu Anat
3. Ajit Kumar
4. Alok Puranik
5. Amrit lal Vegad
6. Anjana Sandheer
7. Anurag Sharma"Smart Indian"
8. Asghar Wazahat
9. Ashok Chakradhar
10. Ashok Vajpayee
11. Balram Agrawal
12. Ramdarash Mishra
13. Bhagwan Atlani
14. Bharat Bhardwaj
15. Chandrakant Mehta
16. Chandrasen Virat
17. Chitra Mudgal
18. Dhananjay Verma
19. Dhirendra Asthana
20. Divik Ramesh
21. Doodhnath Singh
22. Giriraj Kishor
23. Girish Pankaj
24.Gopal das "Neeraj"
25. Govind Mishra
26. Gulzar
27. Gyan Chaturvedi
28. Gyanprakash Vivek
29. Gyanranjan
30. Habib Kaifi
31. Hari Joshi
32. Jitendra Bhatia
33. Kamal Kishor Goenka
34. Kamar Mewadi [Quamar Mewari]
35. Kashinath Singh
36. Kedarnath Singh
37. Kishor Kabra
38. Krishna Sobti
39. Leeladhar Jagoodi
40. Leeladhar Mandloi
41. Maitreyee Pushpa
42. Malti Joshi
43. Mamta Kaaliya
44. Manajar Panday
45. Manglesh Dabral
46. Manika Mohini
47. Mannu Bhandari
48. Meethesh Nirmohi
49. Mehrunnisa Parvez
50. Mithileshwar
51. Mridula Garg
52. Mridula Sinha
53. Mrinal Panday
54. Namvar Singh
55. Narendra Kohli
56. Nasira Sharma
57. Neerja Madhav
58. Krishna Agnihotri
59. Padma Sachdev
60. Pankaj Bisht
61. Prabhakar Shrotriya
62. Prakash Manu
63. Pratap Sehgal
64. Prem Janmejay
65. Raji Seth
66. Ramanika Gupt
67. Ramesh chandra Shah
68. Ramesh Upadhyay
69. Ramsharan Joshi
70. Satish Dube
71. Ratnakumar Sambhariya
72. Dr. Damodar khadse
73. Roop singh Chandel
74. Sainni Ashesh
75. Sanjeev
76. Santosh Shrivastava
77. Sherjang Garg
78. Shivmoorty
79. SR Harnot
80. Subhash Pant
81. Sudha Arora
82. Sudha Om Dheengra
83. Sudheesh Pachauri
84. Sukesh Sahni
85. Suraj Prakash
86. Surendra Verma
87. Suryabala
88. Suryakant Nagar
89. Tejendra Sharma
90. Uday Prakash
91. Urmikrishna
92. Usha Priyamvada
93. Ved Pratap Vaidik
94. Vibhutinarayan Ray
95. Vinod Kumar Shukla
96. Vishvanath Sachdev
97. Vishvanath Tripathi
98. Vishnu Khare
99. Vishnu Nagar
100. Viveki Rai  
    

Thursday, May 28, 2015

"केयर टेकर" के लिए कोई और अच्छा सा शब्द बताइये

मेरे एनजीओ का कार्यालय काफी दिनों तक खाली रहा। उस दौरान मैंने उस ऑफिस की देखभाल के लिए एक "केयरटेकर" रखा। एक दिन मैं ऑफिस आया तो मैंने वहां एक कैलेंडर ज़मीन पर पड़ा देखा। प्रस्तुत है मेरा और केयरटेकर का इस सन्दर्भ में हुआ वार्तालाप-
मैं- मैंने कल कहा था कि पड़ौस के घर से हथौड़ा मांग कर एक कील ठोक कर ये कैलेंडर टांग देना, तुम गए नहीं?
के- मैं गया था सर,उन्होंने कहा कि वे नहीं देंगे।
मैं- क्यों?
के-क्योंकि उनके पास है ही नहीं।
मैं-होता तो दे देते?
के-हाँ,वो तो कह रहे थे कि यदि ज़रूरी है तो हम गाँव से लाकर दें?
मैं-तो लिया क्यों नहीं?
के-मैंने पत्थर से कील ठोक ली।
मैं-तो कैलेंडर टांगा क्यों नहीं?
के-टांगा  था सर,वो हवा से गिर गया।
मैं-दोबारा टांग देते।
के-कैलेंडर पिछले साल का पुराना था सर।
मैं- तो इसे फेंको।
के-फेंक दिया था सर,उड़ कर फिर आ गया।
मैं-खिड़की बंद रखो, बाहर का कचरा कैसे आता है?
के-खिड़की का पल्ला ढीला है।
मैं-तो इसे ठीक करो।
के-करूँगा सर,इसके लिए हथौड़ा चाहिए।
मैं- ओके,बी क्विक।  
   

Saturday, May 9, 2015

निजी या सार्वजनिक ?

इस कशमकश से लगभग हर युवा कभी न कभी गुज़रता है कि वह अपने कैरियर के लिए निजी क्षेत्र को चुने, या सार्वजनिक। मतलब नौकरी प्राइवेट हो या सरकारी।
एक कष्टकारक बात ये है कि भारत में बहुत कम युवाओं को ही अपना क्षेत्र चुन पाने का यह अवसर मिल पाता है। अधिकांश को तो अपनी नैया हवा के रुख और उपलब्ध मौकों को देख कर ही खेनी पड़ती है। लेकिन फिर भी आपको ये पता होना चाहिए कि आप जिस कल के "सपने" देखें उसकी झोली में क्या मीठा है, क्या खट्टा और क्या तीखा?
यदि आप कोई व्यवसाय न करके नौकरी की ही तलाश में हैं, तो जानिए कि प्राइवेट और सरकारी, दोनों ही तरह के काम में कुछ अच्छाइयाँ हैं।
प्राइवेट नौकरी में आपकी योग्यताओं को तत्काल पहचानने वाला 'लिटमस टेस्ट' पल-पल पर आपके लिए उपलब्ध है।
सरकारी नौकरी में आपकी कमियों को ढूंढने वालों को लम्बे-लम्बे टेस्ट देने होंगे।              

Saturday, April 11, 2015

मुनाफ़ा ही मुनाफ़ा

यह दिलचस्प है कि  इस मुद्दे पर भी लोग एकमत नहीं हैं। कुछ लोग कहते हैं कि  किसी भी समाज के लिए अमीर लोग लाभदायक हैं। और इसी बात पर कुछ लोगों का मानना है कि गरीब लोग ही समाज को मज़बूती देते हैं। आइये देखें, क्यों कहते हैं लोग ऐसा?-
अमीर लोग रोज़गार बढ़ाएंगे क्योंकि वे हर काम खुद नहीं कर सकेंगे लेकिन उन्हें हर काम चाहिए।  वे ज़्यादा उपभोग करेंगे जिससे अधिक उपभोग की प्रवृति बढ़ेगी जो कालांतर में उत्पादन बढ़ाएगी।वे संस्कृति से बंधकर नहीं रहना चाहेंगे, जिससे विकास के नए आयाम सुलभ होंगे।   
इसी तरह गरीब लोग उपभोग सीमित करेंगे जिससे बचत बढ़ेगी, और अर्थव्यवस्था में धन आसानी से सुलभ रहेगा। वे रोज़गार की चाह में रहेंगे जिससे विकासात्मक गतिविधियाँ बढ़ेंगी। उनकी सन्तुष्टिकारक मानसिकता समाज में संतुष्टि का स्तर बढ़ाएगी, जो किसी भी आर्थिक प्रक्रिया का अंतिम उत्पाद है।  वे संस्कृति सहेजने में रूचि लेंगे।
देखा आपने? देश में कोई गरीब हो या अमीर, देश के पौ बारह हैं। अर्थात मुनाफ़ा ही मुनाफ़ा।    
  

Tuesday, April 7, 2015

तो एक साधारण "भारतीय" किसे कहेंगे ?

आइये, देखें, कि हम अर्थात साधारण भारतीय कैसे हैं?
आज हमारा बैरोमीटर है इतिहास !
-आप कैकेयी और कौशल्या में से किसे ज़्यादा पसंद करते हैं?
-आप की नज़र में अर्जुन और एकलव्य में से कौन ज़्यादा श्रेष्ठ है?
-आप गौतम और आम्रपाली में से किससे ज़्यादा प्रभावित हैं?
-आप रवीन्द्र नाथ टैगोर और राजेश खन्ना में से किसका जीवन देश के लिए ज़्यादा उपयोगी मानते हैं?
-क्या आप भारत के नक़्शे के उस भाग के किसी भी एक शहर या गाँव का नाम बता सकते हैं, जो भारत-पाक के बीच विवादास्पद बताया जाता है?  

Friday, April 3, 2015

अब सवाल सिर्फ मात्रा का,किस्म का नहीं !

 अभी कोई ज़्यादा समय नहीं गुज़रा है जब हम भारतवासियों में "विदेशी" को लेकर ज़बरदस्त क्रेज़ था। हम हर बात में अपने को उनसे कमतर आंकते थे।  एक हीनभावना हमारी जड़ों में गहरे तक पैठी हुई थी। हम उनके हर माल, हर अदा, हर जलवे और हर जादू को ललचाई नज़रों से देखते थे। और हकीकत ये है, कि हम केवल ऐसा सोचते ही नहीं थे, बल्कि कई मामलों में ऐसा था ही।
हमारे कुछ दूरदर्शी नेताओं ने हमारी इस बेचारगी को भांपा।  इनमें केवल राजनैतिक नेता ही नहीं, सामाजिक,आर्थिक, वैज्ञानिक सोच वाले नेता भी शामिल थे।  इन सबके प्रयासों से एक मुहिम छिड़ी, और हर बात में विदेशी नक़ल, विदेश की बराबरी,विश्वस्तर से होड़ का सिलसिला शुरू हो गया।
नतीजा ये हुआ कि हमारा हर काम,सौ में से एक,उनके बराबर होने लगा।  सौ में से एक डॉक्टर,सौ में से एक इंजीनियर,सौ में से एक अर्थशास्त्री, सौ में से एक शिक्षक, सौ में से एक वकील,सौ में से एक व्यापारी विश्व-स्तरीय हो गया।
इस बात से इतना लाभ तो ज़रूर हुआ कि हमलोग हर बाहरी चीज़ को ही सब कुछ समझने की अपनी मानसिकता से उबरने लगे। लेकिन फ़िलहाल इसका एक नुकसान भी होता दिख रहा है।अब हम बाहर की किसी भी चीज़ को देखते ही तुरंत उसके मुकाबले पर उतर आते हैं और अपनी "सौ में एक"उपलब्धि को उसके समकक्ष रख कर झूमने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि जो सुविधा वे अपने "सब" लोगों को दे रहे हैं वही हम केवल सौ में एक भारतीय को दे पाते हैं।  इस तरह अभी हमें बहुत काम करना है, चाहे वह किस्म का नहीं, बेशक मात्रा का ही हो।  और किस्म में भी अभी गुंजाइश है।   
           

Tuesday, March 24, 2015

हज़ारों तरह के ये होते हैं आंसू

कल जब वर्ल्ड्कप क्रिकेट के सेमीफाइनल मुकाबले का अंत हुआ तो दक्षिण अफ्रीका के कुछ खिलाड़ियों को मैदान पर बैठ कर रोते हुए देखा गया। इस विलक्षण दृश्य के कई कारण हो सकते हैं।
-धुआंधार फ़ील्डिंग के दौरान आँख में कुछ गिर जाना।
-खेल में पराजय हो जाना।
-समस्त विश्व की आँखों का तारा बने आभामंडल से अकस्मात् छिटक कर बाहर हो जाना।
-ज़िंदगी में आसानी से न मिलने वाले एक शानदार अवसर का हाथ से फिसल जाना।
-खेल-खेल में कोई भीतरी चोट लग जाना।
कहते हैं कि हज़ारों तरह के ये होते हैं आंसू।
लेकिन आंसुओं से दुनिया ठहरती नहीं है। कल फिर आएंगे उम्मीदों के नए सितारे।            

Saturday, March 14, 2015

कॉमेंट्रेटर नहीं हैं कपिलदेव

क्रिकेट ने विश्व को भारत से जो सितारे दिए हैं उनमें सर्वाधिक चमक बिखेरने वाले नामों में कपिलदेव का नाम शामिल है।
मुझे याद है, मुझे क्रिकेट की कॉमेंट्री सुनते हुए लगभग बावन साल तो हो गए हैं।  बचपन में हम लोग ट्रांज़िस्टर से कान लगाए आँखों देखा हाल सुनते थे, और अब हम सब अपनी आँखों से देखते हुए नेपथ्य से, पार्श्व विवरण के रूप में कॉमेंट्री सुनते हैं।
पहले खेलने वाले और होते थे और खेल के टिप्पणीकार और।  अब ज़्यादातर पूर्व खिलाड़ी ही कॉमेंट्री करते हैं। इस बदलाव के नतीजे बहुत बेहतर हैं। इससे हम उन्हीं लोगों से सुनते हैं जो खुद भी खेल के माहिर हैं, और हम तकनीकी बातों की पेचीदगियों को विश्वसनीयता से देख भी पाते हैं।
लेकिन आप कपिलदेव को कॉमेंट्री करते हुए थोड़ा ध्यान से सुनिए।  आपको लगेगा कि वे कॉमेंट्री नहीं कर रहे।  कॉमेंट्री तो वह होती है, जिसमें जो कुछ हो जाये, उस पर टिप्पणी की जाये। किन्तु कपिल लगभग सभी वे बातें आपको पहले ही बता देते हैं, जो होने वाली हैं। और मज़ेदार बात ये, कि वही होता भी है।इस विश्वविजेता का लम्बा अनुभव और खेल-कौशल किसी खिलाड़ी की तैयारी ,बॉडी- लैंग्वेज,परिस्थिति, तथा मौके की नज़ाकत को पहले ही भांप कर वह सबकुछ पहले ही कहलवा देता है, जो होने वाला है। ध्यान से सुनिए, हैरान कर देने वाली  पूर्वोक्तियां आपको चौंका देंगी।             

Friday, March 13, 2015

आपका सपना किसी दूसरे की आँखों में क्यों और कैसे जाता है?

आपने साहित्य या फिल्मों में तो ऐसी हास्य स्थितियां देखी होंगी जब किसी मरणासन्न व्यक्ति को लेने यमदूत आये, और वे गफलत में किसी दूसरे को उठा ले गए। कभी-कभी हॉरर फिल्म के निर्माताओं ने भी ऐसे दृश्य दिखाए हैं जो हास्य या भय निर्मित करते हैं।
लेकिन आपको ये जान कर अचम्भा होगा कि किसी व्यक्ति को नींद के दौरान आने वाला संभावित सपना कभी-कभी वास्तव में किसी और की आँख में स्थलांतरित हो जाता है।
ऐसा होने के कई कारण हैं।
यदि किसी व्यक्ति ने जाने-अनजाने आपके बारे में लगातार बहुत देर तक सोचा हो, तो हो सकता है कि जो बातें स्वाभाविक नींद में आपके स्वप्न में आने वाली थीं,उनमें से कुछ छिटक कर उस व्यक्ति की आँखों में जगमगाने लगें जो आपके बारे में सोचता रहा है। यहाँ "सोच"बैट्री का काम करती है, और ये 'कॉन्फ्रेंसिंग' हो जाती है। ये क्रिया क्षणिक ही होती है, किन्तु स्पष्ट और याद रखने लायक़ हो सकती है।
दूसरा कारण ये भी हो सकता है कि यदि किसी दिन आप और कोई अन्य व्यक्ति बिलकुल समान परिस्थितियों [विशेष,जैसे दुर्घटना,डूबना, आदि ] से गुज़रे हों तो उसके स्वप्न-संकेत आपको भी कुदरतन सूचित हो सकते हैं।
आश्चर्य की बात ये है कि ऐसे व्यक्ति से आपकी दूरी की कोई सीमा नहीं है।
प्रायः दोनों ही स्थितियों में दूसरा व्यक्ति आपका रक्त- सम्बन्धी नहीं होगा।  

Thursday, March 12, 2015

अच्छा ऐसे हैं चीन-जापान !

कुछ समय पहले तक हमें ये बात हैरत में डालती थी कि ओलिम्पिक खेलों में जहाँ हमारा देश एक-एक पदक के लिए लालायित रहता है, वहीँ चीन जैसे देश स्वर्ण-पदकों का अम्बार लगा देते हैं।जब "लौह-पर्दा" हटा तो पता चला कि चीन में बालक पैदा होते ही, जैसे ही आँखें खोलता है तो वह अपने को खेल-प्रशिक्षकों के क्रूर पंजों में पाता है,जो उसे किसी मछली की भांति स्विमिंग पूलों में डुबकियां लगवाते हैं, ताकि पंद्रह-सोलह साल का होते ही वह तैराकी का विश्व-विजेता बन जाये। और तब हम इस विचार दुविधा में बँट गए कि हमें सोना चाहिए या बचपन?
ऐसे ही अब जापानी बच्चों की संजीदगी का राज़ भी आखिर खुल ही गया।  वे बचपन से ही बुद्ध-महावीर की भांति गुरु-गंभीरता से ध्यानमग्न इसलिए दिखाई देते रहे , क्योंकि उन पर बचपन से ही शोर-शराबा करने पर पाबन्दी लगी हुई थी,जिसे अब हटा दिया गया है।
छी छी, ऐसी पाबन्दी तो हमारे यहाँ संसद -विधानसभा में शोर मचाने पर भी नहीं ! जबकि वहां बड़ों के वोट से "बड़े" ही जाते हैं।              

Thursday, March 5, 2015

प्रेम-संसर्ग और महज़ संसर्ग

प्रेम-संसर्ग में दो लोग परस्पर आकर्षण की अगली कड़ी के रूप में सहबद्ध हो जाते हैं। महज़ संसर्ग में परस्पर सहबद्ध हुए लोग सहबद्धता के पूर्व या पश्चात आकर्षण के शिकार नहीं होते। यद्यपि इस मामले में भी पश्च आकर्षण हो सकता है। अथवा एकतरफा पूर्व आकर्षण हो सकता है। रोचक बात ये है कि प्रेम-संसर्ग में भी पश्च विकर्षण या उदासीनता हो सकती है।
उपर्युक्त पंक्तियों का अभिप्राय केवल आपको ये बताना है कि प्रेम और यौनाचार दो अलग-अलग बातें हैं।
संसर्ग दोनों स्थितियों में होता है किन्तु एक स्थिति में ये वृद्धिमान होता है, और दूसरी स्थिति में ये विलोमानुपाती हो सकता है।
इन दोनों स्थितियों को हम स्वयं अपने ही स्वप्न-संकेतों से विश्लेषित कर सकते हैं। अर्थात जब हम निकट भविष्य में संसर्ग जीने वाले होते हैं, तो हमें गहरी नींद के सपने कई जानकारियां दे देते हैं। इसमें एकमात्र शर्त ये है कि हमारी नींद स्वाभाविक,बिना किसी दवा या ड्रग के हो। साथ ही हमारे सपने पेट की खराबी, थकान, गहरे अवसाद के कारण बाह्य आवेगों से घनीभूत न हों।                   

Saturday, February 28, 2015

क्या केलिफोर्निया के मेरे मित्र सहयोग करेंगे?

मेरी एक कहानी पिछले कुछ दिनों से अधूरी है। कहानी का एक पात्र बड़ी मुश्किल और जतन से एक छोटी सी डिबिया में अपने साथ एक तितली वहां [केलिफोर्निया में ] लेकर गया था।  अपनी स्कूली पढ़ाई जापान से पूरी करके केलिफोर्निया गए इस बच्चे को न जाने क्यों, मन में ये विश्वास था कि इस तितली को आज़ाद करते ही यह उड़ कर किसी लड़की के बालों पर बैठेगी और सिर्फ इतना ही नहीं, बल्कि स्वप्न में उस लड़की की झलक उसे दिखाएगी भी।
लड़के ने सोच रखा था कि यदि सचमुच ऐसा हुआ, तो वह अपने सपने के आधार पर ही उस काल्पनिक लड़की का एक चित्र बनाएगा, और उस चित्र के आधार पर लड़की को खोजने का भरसक प्रयास भी करेगा।
लड़के को न जाने किस बात के आधार पर ये यकीन भी था, कि तितली लड़की की झलक उसे दिखाने के तुरंत बाद मर जाएगी।
डेट्रॉइट एयरपोर्ट के लाउंज में नाश्ता करते हुए एक बुजुर्ग महिला को मेज़ पर एक तितली मरी हुई पड़ी दिखी है। वह रेस्त्रां मालिक से वहां सफाई न होने की शिकायत करने काउंटर पर जा चुकी है।
उधर केलिफोर्निया के एक बोर्डिंग स्कूल के वार्डन की रिपोर्ट संस्थान के डॉक्टर के पास पहुंची है कि उनके एक छात्र को कुछ दिन से नींद न आने की शिकायत हो गयी है।
भारत के एक स्वप्न-वैज्ञानिक का दावा है कि सपने कभी-कभी एक व्यक्ति की आँख से उड़कर किसी दूसरे की आँखों में भी चले जाते हैं, और इस तरह वे मानस बदल लेते हैं। इस बात पर प्रकाश डाला जायेगा कि  ऐसा कब होता है और क्यों होता है।
अभी तो आपसे केवल इतनी गुज़ारिश है कि यदि आपको कोई ऐसा सपना आया हो, या आपने किसी से ऐसा सपना आने के बाबत सुना हो, तो कृपया अवश्य सूचना दें !स्वप्न-वैज्ञानिक का अनुमान है कि यदि किसी और का सपना उड़ कर आपकी आँखों में आया है तो सम्भावना है कि लड़की आपको सीढ़ियां उतरते हुए या फिर किसी पक्षी को हाथ में लिए हुए दिख सकती है।
             

Friday, February 27, 2015

आप किस तरफ हैं?

वैसे तो दुनिया गोल है, हर कोई हर तरफ हो सकता है, लेकिन फ़िलहाल मैं बात कर रहा हूँ दोस्ती की। सबके असंख्य दोस्त होते हैं। किसके कितने दोस्त हों, कैसे दोस्त हों, ये सब इस बात पर निर्भर करता है कि वह स्वयं कैसा है।
मुझे लगता है कि दोस्तों में भी एक बेहद खास किस्म के दोस्त होते हैं, जिन्हें आप अपने आप को दुरुस्त रखने का जरिया मान सकते हैं। अर्थात ये दोस्त आपको अपने आप को देखने-आंकने का नजरिया देते हैं।ये आपके गुरु दोस्त होते हैं। इनसे आप सीखते हैं। इनसे आपका रिश्ता एक ऐसे छिपे सदभाव का होता है कि इन्हें पता भी नहीं होता, और आप इनके हो जाते हैं।
अब मैं मुद्दे पर आता हूँ। कुछ लोग मानते हैं कि ऐसे दोस्त हमेशा उम्र और अनुभव में आपसे बड़े होने चाहिए, क्योंकि आप इनसे सीखते हैं, आप इनसे प्राप्त करते हैं। लेकिन वहीँ कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि ये दोस्त आपसे छोटे हों तो बेहतर, क्योंकि इनके रूप में आप अपना जीवन दोबारा जीते हैं। इनकी उपलब्धियों को देख कर आपको ऐसा लगता है कि आपको वह सब अब मिल रहा है जो पहले नहीं मिला, या कि वह आनंद फिर आ रहा है जो कभी पहले आपने लिया। इन्हें छूकर आप अपने गुज़रे दिन फिर छूते हैं।
तो अब आप बताइये कि आप किस तरफ हैं? अर्थात आपका ये आदर्श दोस्त आपसे बड़ा है या आपसे बहुत छोटा? बराबर के दोस्त अक्सर 'बराबर' के ही होते हैं, इसलिए फ़िलहाल हम उनकी बात नहीं करते।                  

Friday, February 20, 2015

साहित्यकारों के फ्लैप मैटर

एक गाँव में कहीं से घूमता हुआ एक फ़क़ीर आ पहुंचा। 'पड़ा रहेगा', 'किसी का क्या बिगड़ेगा', 'मांग-तांग कर पेट भर लेगा', सो किसी ने कुछ न कहा।
दो चार दिन बाद किसी मुसाफिर की निगाह पड़ी तो उसने देखा कि जिस गली में फ़क़ीर पड़ा रहता है, वो और गलियों से कुछ ज़्यादा साफ-सुथरी लग रही है। ऐसा लगा जैसे वहां रोज़ झाड़ू लगती हो।
कुछ दिन बाद उस गली के पेड़-पौधे कुछ ज़्यादा हरे-भरे नज़र आने लगे।  ऐसा लगता था मानो कोई पेड़ों की कांट -छांट कर उनमें खाद-पानी डाल जाता है। परिंदे भी वहां ज़्यादा चहचहाते,मवेशी वहां आराम करते, बच्चे वहीँ आकर खेलते।
लेकिन बुज़ुर्ग फ़क़ीर जल्दी ही एकदिन चल बसा।
अब लोगों का ध्यान इस बात पर गया, कि अरे, ये आखिर था कौन? कहाँ से आया था? क्या करता था?
लोगों ने इसकी खोज-खबर ली,और एक बोर्ड पर फ़क़ीर का नाम-गाँव-परिचय लिख कर यादगार के तौर पर गली में लगा दिया।
साथ ही गाँव-वालों ने तय किया कि सब लोग अपनी-अपनी गली की वैसे ही देख भाल करेंगे जैसे फ़क़ीर अपनी गली की किया करता था।
चंद दिनों में हर गली के नुक्कड़ पर चमचमाते बोर्ड लग गए जिन पर उस गली के मुखिया का रंगीन फोटो, नाम, पता, परिचय, प्रशस्ति आदि जगमगा रहा था।               

Wednesday, February 18, 2015

आशा की पराकाष्ठा

आशा तो छोटी सी भी हो, उम्मीदभरी होती है। और बड़ी आशा का तो कहना ही क्या ?
एक बार एक शिक्षक ने क्लास में पढ़ाते हुए अपने विद्यार्थियों से पूछा-"आशा का सबसे बड़ा उदाहरण क्या है?"
एक छात्र ने कहा-"सर, दुनिया में कैसे भी व्यक्ति का निधन हो जाय, यही कहा जाता है कि  वह स्वर्गवासी हो गया, अर्थात सबको यही आशा होती है कि  हर मरने वाला स्वर्ग ही जायेगा, जबकि दुनिया में लगभग अस्सी प्रतिशत लोगों के कार्य अपने जीवन में ऐसे नहीं होते कि  उन्हें स्वर्ग में स्थान मिल सके।"
शिक्षक ने कहा-"ठीक है, ठीक है, पर कोई ऐसा उदाहरण दो जिससे तुम्हारे मन की आशा का पता चलता हो, जिसमें तुम्हारे ह्रदय का उल्लास छलकता हो, जिसकी कल्पना-मात्र ही तुम्हें बाग-बाग कर डाले।"
एक और छात्र ने कहा-"सर,आपकी क्लास ख़त्म होने में केवल एक मिनट शेष है।"
पूरी कक्षा विद्यार्थियों की उल्लास भरी किलकारियों से गूँज उठी।      
  

Sunday, February 15, 2015

कलाक्षेत्र में ज़ुनून

कला और मनोरंजन का क्षेत्र ऐसा है कि वहां हर दर्शक अपने मन को पसंद आने वाली,अपने भावों को सहलाने वाली प्रस्तुतियाँ देखने जाता है।  उसे जो भाये वही उसका है। वही उसके अंतर में उतरेगा, वही उसकी स्मृतियों में बसेगा।  दर्शक बाकायदा उसके लिए पैसा देता है, समय देता है,दिमाग़ देता है।
लेकिन दूसरी तरफ इन सृजन क्षेत्रों में भी कुछ जुनूनी,व्यावसायिक,स्वार्थी प्रवृत्तियों के लोग अपने को दर्शक के दिल-दिमाग पर येन-केन-प्रकारेण "थोपने"की कोशिश में लगे रहते हैं।  वे अपना घनघोर विज्ञापन करें, वहां तक तो ठीक, लेकिन वे तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर,भ्रम फैला कर माहौल अपने पक्ष में करने में भी नहीं चूकते। यहाँ तक कि भ्रामक अतिशयोक्ति-पूर्ण जानकारी देना,अपने प्रतिस्पर्धियों को जबरन नीचा दिखाना,तथा अपना बाजार बनाने के लिए दूसरों का रास्ता रोकना तक उनकी इस मुहिम में शामिल होता है।
मनोरंजन के क्षेत्र सिनेमा को ही ले लीजिये। यहाँ जितना स्याह-सफ़ेद है, शायद ही किसी और क्षेत्र में हो।
आज युवा हो रही पीढ़ियों के सामने पिछले साठ साल का जो इतिहास ढोल बजा-बजा कर प्रस्तुत किया जा रहा है,उसका सार यही है कि सवा सौ करोड़ लोगों के देश में "प्रतिभा"केवल चंद गिने-चुने परिवारों में ही रही है। अपने आप को शिखर पर दिखाने के जुनून में कई ऐसे महारथी हैं जो करोड़ों कमाते दिखाई दे रहे हैं पर असलियत ये है कि वे आज भी अपना बाजार बनाये रखने के लिए अपने बाप-दादा की मिल्कियत से ही खर्च कर रहे हैं।                  

Friday, February 13, 2015

महिलाओं का सम्मान

महिलाओं का सम्मान दो तरह से होता है।
एक,जब पुरुष कहीं भी हो, उसके साथ उसकी वामा भी हो।  वह श्रृंगार से विभूषित हो। पुरुष से कहीं महंगे वस्त्र पहने हुए हो। गहने-आभूषणों से सज्जित हो। जब पुरुष कुछ कहे तो वह मुस्काये, पुरुष कुछ सोचे तो वह उकताए। पुरुष जो कमाए, वह उसके बटुए में आये, पुरुष जो खर्चे, वह उसकी अँगुलियों से गिना जाकर जाये।पुरुष के किसी भी निर्णय पर वह आँखें झुका ले, उसके किसी भी निर्णय पर पुरुष आँखें तरेरे।
दूसरा सम्मान वह होता है, जहाँ पुरुष हो न हो, वह हो। वह जो कहे पुरुष सुनें। वह जो सलाह दे,पुरुष उसे मानें। दोनों परस्पर परामर्श करें या न करें, महिला के निर्णय को पुरुष क्रियान्वित करने के लिए प्रयासरत हो।
भारत की राजधानी के पिछले दिनों हुए चुनावों में "महिला सम्मान" भी एक मुद्दा था।
ये चुनाव कई अर्थों में विलक्षण थे। इसमें लोकतंत्र ने कई चमत्कार किये।  सोनियाजी की पार्टी खाता नहीं खोल पाई। शीलाजी की किसी ने नहीं सुनी। सुषमाजी की बात को तवज्जो नहीं दी गयी,उन्हें बाहर भेज दिया गया । किरणजी को वोट नहीं दिए गए। कुछ वामाओं को टिकट, तो कुछ को मंत्री-पद नहीं दिए गए।
दिल्ली में सैंकड़ों सुल्तानों के बाद एक रज़िया होती है
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है                    

Thursday, February 5, 2015

सुविधा की लत

अपनी खिड़की पर खड़े होकर पेड़ों की फुनगियों,खुले अहातों, आंगनों में चहचहाती चिड़ियों को देखिये।  क्या इन्हें ज़रा सा भी इस बात का अहसास होता है कि अगले पल ये क्या करेंगी, कहाँ बैठेंगी, कहाँ उड़ जाएँगी, किससे  मिलेंगी , किससे बिछड़ेंगी,क्या खा लेंगी, कौन से पानी के बर्तन पर बैठ जाएँगी, बैठ कर भी पानी पियेंगी या बिना पिये ही उड़ जाएँगी, कौन सी आहट इन्हें डरा देगी,कौन सी आहट इन्हें आकर्षित करेगी। पानी के बुलबुले सी इनकी ज़िंदगी के ठहराव पर सोचिये।
क्या आपको नहीं लगता कि धैर्य,सहिष्णुता,आत्म विश्वास के मामले में हमारी नई नस्लें भी इसी तरह व्यवहार करने की आदी होती जा रही हैं?
शायद इसका कारण यह हो कि हम आभासी,क्षणिक,चलायमान जीवन के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। गहराई, स्थायित्व,प्रतीक्षा,धैर्य जैसी चीज़ें हमारे जीवन से लुप्त होती जा रही हैं।
 सोचिये,पति-पत्नी ऊपरी मंज़िल पर रहते हैं और बाजार जा रहे हैं,पति तैयार होकर नीचे बाहर आ गया है, पत्नी को ताला लगा कर नीचे आना है,नीचे आने में लगभग एक मिनट का समय लगता है, पत्नी अब तक नीचे नहीं आई है, लगभग ढाई मिनट का समय हो गया है, तो यकीन जानिए, उसके पास मोबाइल पर फोन आ जायेगा, "अरे भई क्या हुआ?"
पति का धैर्य यह सोच पाने जितना न होगा कि हो सकता है, उसे भीतर से कुछ लेना याद आ गया हो, रस्ते में कोई परिचित मिल गया हो, लघुशंका की हाज़त हो गयी हो, प्यास ही लग आई हो!
      

Sunday, February 1, 2015

सफल लोगों का शहर

एक शहर था।  उसे सब लोग सफल लोगों का शहर कहते थे।  वैसे नाम तो उसका कुछ और था, किन्तु वह अपने नाम से ज़्यादा अपनी फितरत से पहचाना जाता था।  उसे सफल लोगों का शहर कहने के पीछे कोई बहुत गूढ़ या रहस्यमय कारण नहीं था, बल्कि वह तो केवल इसीलिए सफल लोगों का शहर कहलाता था कि उसमें रहने वाले सभी लोग अपने-अपने कामों में सफल थे। वे जो कुछ कर रहे थे, वह हो रहा था।
देखा जाय तो यह कोई बड़ी बात नहीं थी। यदि कोई कुछ करे तो वह होना ही चाहिए।लेकिन अमूमन ऐसा होता नहीं है। क्योंकि लोगों की इच्छाएं और कार्य प्रायः एक दूसरे के विलोमानुपाती होते हैं। "यदि यह होगा तो वह नहीं हो सकेगा","यदि यह नहीं हो पा रहा तो उसका होना स्वाभाविक है",आमतौर पर ऐसा होता है।  चीज़ें इसी तरह आकार लेती हैं, और इसीलिये सब नहीं हो पाता।  यदि आप अमीर बन रहे हैं, तो कोई दूसरा गरीब हो रहा है। आप बीमार हैं तो डाक्टर पनप रहा है।कोई हार गया तो आप जीत गए। आप भूखे मर रहे हैं तो कोई और जमाखोरी का लुत्फ़ ले रहा है।  तात्पर्य ये, कि सबका अच्छा नहीं हो पाता।
लेकिन जिस शहर की बात हम कर रहे हैं, वहां वह सब हो रहा था, जो-जो वहां के लोग करना चाहते थे।  इसी से वह सफल लोगों का शहर कहलाता था।
दरअसल, वह अवसरवादी लोगों का शहर था। वहां के लोग वही करते थे जो हो जाये। मसलन यदि वहां कोई "दहाड़ने" की कोचिंग देता था तो उसमें केवल शेरों को ही प्रवेश दिया जाता था।वहां लोग बंदरों को छलांग लगाना सिखाते थे,बतखों को तैरना। यदि कोई आँसू बहाना सिखा रहा है तो वह उन्हीं लोगों को सिखाएगा, जो दुखी हों। इस तरह काम न होने का अंदेशा नहीं होता था।
यदि लोग ठान लेते कि वहां कोई सरकार न हो, तो वह अपने आप को वोट दे देते थे।
                    

Friday, January 30, 2015

अहिंसा की मौत ?

मृत्यु जीवन पर विराम है।  लेकिन जिस मौत से जीवन शुरू हो गया हो, वह मृत्यु नहीं हो सकती।  वह केवल महाप्रयाण है, केवल पारगमन।  
जीवन और मरण किसी के हाथ में नहीं है।  
अगर माचिस की तीली रगड़ खाकर जल उठे और राख हो जाए तो यह उस तीली की मृत्यु नहीं है। यह तो प्रकाश अथवा अग्नि के लिए वांछित सहज क्रिया है।  
यदि तीली अनंत काल तक सुरक्षित डिबिया में बंद में पड़ी रहे तो उसका बचे रहना शायद उसकी मौत है।  
अहिंसा का अर्थ है-प्रहारक, मारक,आतताई,विंध्वंसक दुरशक्तियों के विरुद्ध उन्हें भस्म कर देने वाली निस्सीम शांति से भरी सहज अवस्थिति।
अहिंसा की मौत नहीं हो सकती क्योंकि तथाकथित मृत्युकारक ये शक्तियां सीमित बल वाली हैं, जबकि अहिंसा अनंत बलशाली।  
आइये, अहिंसा का ध्यान करें, अहिंसा का मान करें।  हिंसा के मानमर्दन की यही स्वाभाविक प्रक्रिया है।        

Sunday, January 25, 2015

तंत्र तो तंत्र, गण भी

 गणतंत्र दिवस शुरू हो गया है।  कुछ घंटों के बाद राजपथ पर देश एक जीवंत हलचल का साक्षी बनेगा।  विश्व के सबसे शक्तिशाली देश के सर्वोच्च नागरिक बेहद खास मेहमान के रूप में आज की रात दिल्ली में हैं।  कहते हैं कि "जब घर में हों मेहमान तो कैसे नींद आये",लिहाज़ा देश जाग रहा है। आज देश की हर खास महफ़िल में रतजगा है।  आज आँखों-आँखों में यूँ ही रात गुज़र जाने वाली है।
कई लोग पद्म पुरस्कारों से खेल रहे हैं।  कब मिलेंगे, किसे मिलेंगे, की औपचारिक सूची अभी आई नहीं है लेकिन "उसे क्यों मिला, इसे क्यों नहीं, इसे देर से मिला, मैं तो नहीं लूँगा,मुझे तो काफी पहले मिल जाना चाहिए था, अरे, मुझे क्यों दे रहे हो भाई, मेरा नाम सूची में क्यों नहीं गया"सब तरह के जुमले तथाकथित बड़े और महान लोगों से देश सुन चुका है।
देश का संविधान लागू हुए पैंसठ साल बीत गए। इस लिहाज से संविधान भी हमारा "वरिष्ठ नागरिक"हो चुका है। लेकिन यह आज भी किसी को नहीं पता कि इस संविधान में धर्म और जाति के बारे में क्या लिखा है।कोई नहीं जानता कि आरक्षण देने के पीछे कौन सी भावना थी। किसी को इस बात से मतलब नहीं कि ये संविधान भाषा के सवाल पर क्या कहता है।
लेकिन फिर भी आज ये सब बातें करने का समय नहीं है।  आदमी कैसा भी हो, उसके मरे पर तो रोया ही जाता है। कितना भी निकम्मा,नाकारा या अयोग्य हो, उसके जन्म पर तो बधाई दी ही जाती है।
अमर रहे गणतंत्र हमारा !
आखिर गीता,कुरआन,बाइबल,रामायण जैसे ग्रन्थ रोज़ तो नहीं लिखे जाते। और ऐसे महान किसी ग्रन्थ को अपनाने का दिन, हो न हो खास ही होगा ! इस खास दिन की खास मंगलकामनाएं !                

Saturday, January 24, 2015

कारोबार के अछूते क्षेत्र

कहा जाता है कि विश्व की बढ़ती जनसँख्या और ज्ञान के त्वरित फैलाव के चलते हर व्यवसाय में जबरदस्त स्पर्धा का माहौल है।  कई युवा उद्यमी जिंदगी की शुरुआत के बहुत से कीमती साल इसी उधेड़बुन में निकाल देते हैं कि वे क्या करें।
ऐसे में यदि आपको व्यवसाय के कुछ ऐसे क्षेत्र मिलें, जिनमें फिलहाल कोई स्पर्धा नहीं है तो सोचिये, आपको कितना सुकून मिले।
दुनिया भर में अभी लाखों लोग "रंग गोरा" करने के व्यवसाय में हैं। तरह-तरह के पाउडर,क्रीम,लोशन आदि बाज़ारों में हैं जो आपको गोरा बनाते हैं। इनके निर्माता और विक्रेता ही नहीं बल्कि  'त्वचा का रंग' सफ़ेद कर देने के सन्देश लिए कई मॉडल्स तक रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं।
ज़रा सोचिये, क्या दुनिया के सारे लोगों को सफ़ेद या गोरा रंग ही पसंद है?
बिलकुल नहीं ! ये तो पुराने दिनों की उस सोच का परिणाम है जब सब जगह गोरे लोगों का ही बोलबाला था, उन्हीं का सर्वाधिक जगहों पर शासन था और वे ही दुनिया के भाग्य-नियंता माने जाते थे।  ये मन्त्र भी उन्हीं दिनों, उन्हीं लोगों का रचा-गढ़ा है, जिसकी खुमारी अलसाये वर्तमान पर भी बेवजह तारी है।
वास्तविकता तो ये है कि दुनियाभर की सौंदर्य प्रतियोगिताओं में औसतन पांच साल में एक बार गोरी महिलाएं शिखर पर चुनी जाती हैं । मर्दों में भी सांवला,गेंहुआ,गन्दुमी,पक्का रंग बेहद पसंदीदा है, खुद उन्हें भी और उनकी चाहने वाली महिलाओं को भी । कुछ मुल्कों की आबो-हवा में तो एकदम सफ़ेद त्वचा बीमारी का संकेत समझी जाती है।
तो ऐसे में ज़रा ये भी सोचिये, कि क्या कोई क्रीम-पाउडर-लोशन बदन के रंग को सांवला सलोना भी बना रहा है? क्यों नहीं आप इस दिशा में सोचते !
इतना ही नहीं, दुनिया भर के कई देश रंग-भेद के खिलाफ हैं।  वे आपके प्रयासों को तरह-तरह से रियायत, छूट,सब्सिडी आदि देने की सोच सकते हैं।  कई मार्केटिंग,प्रचार और विज्ञापन के लोग मन से आप के साथ जुड़ेंगे, नामी-गिरामी मॉडल्स भी ! इस रंग-रंगीली दुनिया में अकेला सफ़ेद रंग कोई राजा नहीं !        

Wednesday, January 21, 2015

उसने कहा है

भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि हिंदी में काम करना सर्वोच्च न्यायालय के लिए संभव नहीं है, क्योंकि माननीय न्यायाधीशों को इसके लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
इस खबर पर कई तरह की प्रतिक्रिया सुनने-पढ़ने को मिली।
कुछ लोगों का कहना है कि अब इस पर कुछ नहीं कहा जाना चाहिए क्योंकि यह "उसने कहा है"
कुछ लोग मानते हैं कि यदि संविधान-सम्मत राजभाषा में काम करने के लिए न्यायाधीशों को बाध्य नहीं किया जा सकता तो डाक्टरों, लेखाकारों,इंजीनियरों, तकनीकी अफसरों को कैसे बाध्य किया जा सकता है।
यहाँ सवाल केवल यह है कि यदि किसी की अपनी क्षमता सीमित होने के कारण वह हिंदी में काम नहीं कर सकता तो "भाषिक उदारता"का हवाला देकर उसे छूट प्रदान की जा सकती है, किन्तु 'काम न कर सकने वाले' यदि हिंदी को अक्षम मान कर इसमें काम नहीं करने का ऐलान कर रहे हैं तो फिर कोई भी हिंदी में काम क्यों करे? सर्वोच्च न्यायालय तो "सर्वोच्च" है,वह सरकार को भी सलाह दे, कि हिंदी को पढ़ाने-सिखाने और संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने के प्रश्न पर समय,धन और शक्ति व्यय न की जाये। हिंदी पढ़ने-लिखने वाले कम से कम आरम्भ से ही यह जान तो जाएँ कि वे यदि "अक्षम"भाषा पर धन और परिश्रम व्यय करेंगे तो यह उन्हीं का जोखिम होगा।
भारतीयों को यह जानने का हक़ तो है ही, कि जिस भाषा में वे लड़ लेते हैं, उसमें फैसले नहीं हो सकते। जिसमें वे अपराध करते हैं उस भाषा में दंड नहीं दिया जा सकता।  जिस भाषा में वे रो लेते हैं, उसमें उन्हें चुप कराना संभव नहीं!              

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...