tag:blogger.com,1999:blog-2501516191750424202024-03-28T00:21:34.109-07:00Kehna Padta Hai/कहना पड़ता है <b>प्रकाशित पुस्तकें</b> <br> <b>उपन्यास:</b> देहाश्रम का मनजोगी, बेस्वाद मांस का टुकड़ा, वंश, रेत होते रिश्ते, आखेट महल, जल तू जलाल तू <br>
<b>कहानी संग्रह:</b> अन्त्यास्त, मेरी सौ लघुकथाएं, सत्ताघर की कंदराएं, थोड़ी देर और ठहर <br>
<b>नाटक:</b> मेरी ज़िन्दगी लौटा दे, अजबनार्सिस डॉट कॉम <br>
<b>कविता संग्रह:</b> रक्कासा सी नाचे दिल्ली, शेयर खाता खोल सजनिया , उगती प्यास दिवंगत पानी <br>
<b>बाल साहित्य:</b> उगते नहीं उजाले <br>
<b>संस्मरण:</b> रस्ते में हो गयी शाम, Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.comBlogger1225125tag:blogger.com,1999:blog-250151619175042420.post-88205735549992381232024-02-07T05:56:00.000-08:002024-02-07T05:56:27.287-08:00हम मेज़ लगाना सीख गए! <p> ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन कितना भी स्वादिष्ट या लज़ीज़ हो, जब तक उसे सलीके के साथ, आकर्षक बर्तनों में न पेश किया जाए, कम से कम व्यावसायिक जगत में हम सफल नहीं होंगे।</p><p>अब हम ये सब सलीके जान गए हैं। अब समय आ गया है कि हम भोजन बनाना भी सीखें! </p><p>ओह, ये भोजन भोजन क्या करना, हम सीधे सीधे कहें कि बात लेखन की है। भाषा से जुड़े लेखन की नहीं, साहित्यिक लेखन की! अब हमारे पास मेले - ठेलों की पर्याप्त व्यवस्था है, अब हम लिखें... लिखना सीखें!!! </p>Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-250151619175042420.post-23315704279701913322023-08-14T01:48:00.001-07:002023-08-14T01:48:08.943-07:00राही रैंकिंग/Rahi Ranking 2023<p> </p><div align="left"><p dir="ltr">1. ममता कालिया Mamta Kaliya <br />
2. चित्रा मुद्गल Chitra Mudgal <br />
3. सूर्यबाला Suryabala <br />
4. नासिरा शर्मा Nasira Sharma <br />
5. रामदरश मिश्र Ramdarash Mishra <br />
6. प्रेम जनमेजय Prem Janamejay <br />
7. प्रताप सहगल Pratap Sehgal <br />
8. नंद भारद्वाज Nand Bhardwaj <br />
9. संजीव कुमार (डॉ) Sanjeev Kumar (Dr)<br />
10. नीरजा माधव Neerja Madhav <br />
11. मधु कांकरिया Madhu Kankariya <br />
12. माधव कौशिक Madhav Kaushik <br />
13. विनोद कुमार शुक्ल Vinod Kumar Shukla <br />
14. दुर्गा प्रसाद अग्रवाल (डॉ) Durga Prasad Agrawal (Dr)<br />
15. सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingra <br />
16. सूरज प्रकाश Suraj Prakash <br />
17. दामोदर खड़से (डॉ) Damodar Khadse (Dr)<br />
18. अष्टभुजा शुक्ल Ashtabhuja Shukla<br />
19. संतोष श्रीवास्तव Santosh Shrivastav <br />
20. गिरीश पंकज Gireesh Pankaj <br />
21. दिविक रमेश Rivik Ramesh <br />
22. रत्न कुमार सांभरिया Ratna Kumar Sambhariya <br />
23. प्रणव भारती (डॉ) Pranav Bharti (Dr)<br />
24. बलराम Balram <br />
25. लालित्य ललित Lalitya Lalit <br />
26. ज्ञान चतुर्वेदी Gyan Chaturvedi<br />
27. राजी सेठ Raji Seth <br />
28. फारूक आफरीदी Farooq Afridi<br />
29. राम देव धुरंधर (मॉरीशस) Ram Deo Dhurandar (Mauritius)<br />
30. नीलू गुप्ता ( यूएसए) Nilu Gupta (USA)<br />
31. मनीषा कुलश्रेष्ठ Manisha Kulshrestha<br />
32. विनोद साही Vinod Sahi<br />
33. अंजना संधीर Anjana Sandheer<br />
34. हरीश नवल Harish Naval<br />
35. असगर वजाहत Asgar Vajahat<br />
36. गोपाल चतुर्वेदी Gopal Chaturvedi<br />
37. यशपाल निर्मल Yashpal Nirmal<br />
38. उदय प्रकाश Uday Prakash<br />
39. हंसा दीप Hansa Deep<br />
40. लक्ष्मी शंकर बाजपेई Laxmi Shankar Bajpai<br />
41. बुद्धिनाथ मिश्र Buddhi Nath Misra<br />
42. राजेश जोशी Rajesh Joshi<br />
43. तेजेंद्र शर्मा Tejendra Sharma<br />
44. बलराम Balram<br />
45. सुभाष चंदर Subhash Chandar <br />
46. विजय कुमार तिवारी Vijay Kumar Tiwari<br />
47. हरीश पाठक Harish Pathak<br />
48. विमला भंडारी Vimla Bhandari <br />
49. उर्मिला शिरीष Urmila Shirish<br />
50. महेश दर्पण Mahesh Darpan <br />
51. शैलेंद्र कुमार शर्मा Shailendra Kumar Sharna<br />
52. रजनी मोरवाल Rajni Morwal<br />
53. अनुराग शर्मा (यूएसए) Anurag Sharma (USA)<br />
54. देवेंद्र जोशी Devendra Joshi<br />
55. हरि राम मीणा Hari Ram Mina<br />
56. हरि सुमन बिष्ट HariSuman Visht<br />
57. अरुण अर्णव खरे Arun Arnav Khare<br />
58. बी एल आच्छा BL Achchha<br />
59. बुलाकी शर्मा Bulaki Sharma<br />
60. सुषमा मुनींद्र Sushma Munindra <br />
61. विवेक रंजन श्रीवास्तव Vivek Ranjan Srivastav<br />
62. ज्ञान प्रकाश विवेक Gyan Prakash Vivek <br />
63. अमृत लाल मदान Amrit Lal Madan<br />
64. संतोष खन्ना Santosh Khanna<br />
65. रूप सिंह चंदेल Roop Singh Chandel <br />
66. सुभाष नीरव Subhash Neerav<br />
67. अरविंद तिवारी Arvind Tiwari<br />
68. हरि प्रकाश राठी Hari Prakash Rathi<br />
69. सुरेश ऋतुपर्ण Suresh Rituparna<br />
70. हरिहर झा (ऑस्ट्रेलिया) Harihar Jha (Australia)<br />
71. गुर बचन कौर Gurbachan Kaur (USA)<br />
72. दिलीप तेतरबे Dilip Teterbe<br />
73. मधु आचार्य Madhu Acharya<br />
74. सविता चड्ढा Savita Chaddha<br />
75. अहिल्या मिश्र Ahilya Mishra <br />
76. नीरज दईया Neeraj Daiya<br />
77. दिनेश माली Dinesh Mali<br />
78. कांता राय Kanta Roy<br />
79. राजेश कुमार Rajesh Kumar<br />
80. सूरत सिंह ठाकुर Surat Singh Thakur<br />
81. राजेंद्र जोशी Rajendra Joshi<br />
82. चंद्रकांता Chandrakanta<br />
83. श्याम सखा श्याम Shyam Sakha Shyam<br />
84. सिद्धेश्वर Siddheshwar<br />
85. मिठेश निर्मोही Meethesh Nirmohi'<br />
86. दिव्या माथुर (यूके) Divya Mathur (UK)<br />
87. रति सक्सेना Rati Saxena<br />
88. जगदीश व्योम Jagdish Vyom<br />
89. रमा कांत शर्मा Rama Kant Sharma <br />
90. विकेश निझावन Vikesh Nijhavan<br />
91. गंगा राम राजी Ganga Ram Raji<br />
92. सुदर्शन वशिष्ट Sudarshan Vashisht<br />
93. पिलकेंद्र अरोड़ा Pilkendra Arora<br />
94. रण विजय राव Ranvijay Rao<br />
95. हरीश कुमार सिंह Harish Kumar Singh<br />
96. नीलम कुलश्रेष्ठ Neelam Kulshrestha<br />
97. सुधा चौहान Sudha Chauhan<br />
98. सौम्या दुआ Soumya Dua<br />
99. अलका अग्रवाल सिगतिया Alka Agrawal Sigatia<br />
100. तन्वी कुंद्रा Tanvi Kundra<br /><br /></p>
<p dir="ltr">Selection cum Review Committee<br />
</p>
</div><p dir="ltr"><br />
</p>Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-250151619175042420.post-81784953936447829802023-08-14T00:40:00.004-07:002023-08-14T00:40:59.590-07:00Rahi Ranking 2023<p> </p><div align="left"><p dir="ltr">1. ममता कालिया Mamta Kaliya <br />
2. चित्रा मुद्गल Chitra Mudgal <br />
3. सूर्यबाला Suryabala <br />
4. नासिरा शर्मा Nasira Sharma <br />
5. रामदरश मिश्र Ramdarash Mishra <br />
6. प्रेम जनमेजय Prem Janamejay <br />
7. प्रताप सहगल Pratap Sehgal <br />
8. नंद भारद्वाज Nand Bhardwaj <br />
9. संजीव कुमार (डॉ) Sanjeev Kumar (Dr)<br />
10. नीरजा माधव Neerja Madhav <br />
11. मधु कांकरिया Madhu Kankariya <br />
12. माधव कौशिक Madhav Kaushik <br />
13. विनोद कुमार शुक्ल Vinod Kumar Shukla <br />
14. दुर्गा प्रसाद अग्रवाल (डॉ) Durga Prasad Agrawal (Dr)<br />
15. सुधा ओम ढींगरा Sudha Om Dhingra <br />
16. सूरज प्रकाश Suraj Prakash <br />
17. दामोदर खड़से (डॉ) Damodar Khadse (Dr)<br />
18. अष्टभुजा शुक्ल Ashtabhuja Shukla<br />
19. संतोष श्रीवास्तव Santosh Shrivastav <br />
20. गिरीश पंकज Gireesh Pankaj <br />
21. दिविक रमेश Rivik Ramesh <br />
22. रत्न कुमार सांभरिया Ratna Kumar Sambhariya <br />
23. प्रणव भारती (डॉ) Pranav Bharti (Dr)<br />
24. बलराम Balram <br />
25. लालित्य ललित Lalitya Lalit <br />
</p>
</div><p dir="ltr"><br />
</p>Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-250151619175042420.post-18052683510082676322018-08-12T01:16:00.003-07:002018-08-12T01:16:49.717-07:00SAAHITYA KI AVDHARNA<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कुछ लोग समझते हैं कि केवल सुन्दर,मनमोहक व सकारात्मक ही लिखा जाना चाहिए। नहीं-नहीं,साहित्य को इतना सजावटी बनाने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। साहित्य जीवन का दस्तावेज़ है। यदि आप अपने घर से बाहर निकल कर कुछ देखने का जोख़िम नहीं लेना चाहते,तो अपना घर ही देखिये-वहां भी एक भाग में,जहाँ आप पूजा करते हैं,आप जूते उतार देते हैं। किन्तु उसी घर के दूसरे हिस्से में जहाँ शौच के लिए जाते हैं,खोज कर चप्पल पहन लेते हैं। जीवन की यह विविधता साहित्य में भी आएगी। साहित्य केवल भजन-आरती नहीं है,जिसे आप पूजाघर के सुवासित वातावरण में ही लिख लें,वह आपकी जीवन-कथा का छायाकार है, वह आपके साथ पूजाघर में भी जायेगा,शयनकक्ष में भी,और मेहमानख़ाने में भी। ड्राइंगरूम और स्नानघर में भी। </div>
Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-250151619175042420.post-43927939064077015002016-05-10T02:16:00.002-07:002016-05-10T02:16:51.263-07:00सेज गगन में चाँद की [24]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कुछ झिझकती सकुचाती धरा कोठरी में दबे पाँव घूम कर यहाँ-वहां रखे सामान को देखने लगी।<br />
उसकी नज़र सोते हुए नीलाम्बर पर ठहर नहीं पा रही थी। उसके चौड़े कन्धों से निकली पुष्ट बाँहों ने न जाने कैसे-कैसे अहसास समेट रखे थे।<br />
धरा ने आले पर रखी हुई छोटी सी वो तस्वीर हाथों में उठा ली, जिसके सामने नहाने के बाद नीलाम्बर अगरबत्ती जलाया करता था। कुछ सोच कर धरा ने एकाएक उसे रख दिया। उसे न जाने क्या सूझा, उसने सामने पड़ी दियासलाई हाथ में उठाई और उसमें से एक तीली लेकर रगड़ से उसे जलाने लगी। <br />
ज्वाला की आवाज़ से धरा जैसे अपने आप में लौटी। <br />
यदि अभी एकाएक नीलाम्बर की नींद खुल जाये और वह धरा को हाथों में माचिस की जलती हुई तीली लिए हुए देखे तो? एक पल तो धरा सहमी, किन्तु फिर आश्वस्त हो गयी।<br />
नहीं,उसकी नींद कच्ची नहीं है। वह अभी जागेगा नहीं।<br />
पलभर बाद धरा ने दूसरी तीली निकाल कर जला दी और फिर उसे हल्की सी फूँक से बुझा कर फेंक दिया। नीलाम्बर इस सब से बेखबर गहरी नींद में सोया हुआ था। <br />
रह-रह कर उसकी नाक से हल्की सी सीटी की आवाज़ कभी-कभी निकलती थी। सीटी की आवाज़ के साथ ही मुंह से गर्म भाप भी निकलती थी,जिसका भभका व गंध उससे चार-पाँच फुट की दूरी पर खड़ी रहने के बावजूद धरा महसूस कर रही थी।<br />
सहसा धरा की नज़र सबसे ऊपर के आले में पड़े अगरबत्ती के पतले से पैकेट पर पड़ी। उसने धीरे से हाथ बढ़ा कर वहां से पैकेट उठा लिया और उसमें से दो अगरबत्तियाँ निकाल लीं। <br />
माचिस फिर से उठा कर उसने दोनों अगरबत्तियां जला लीं,और उन्हें दीवार में कहीं लगाने के लिए कोई छेद या दरार ढूंढने लगी।एक पुराने से कैलेंडर की कील का छेद उसे दिख गया। उसी में कैलेंडर के धागे के साथ दोनों अगरबत्तियाँ भी धरा ने ठूँस दीं।<br />
उनसे हल्का-हल्का धुआँ निकल कर वातावरण में मिलने लगा। अगरबत्ती की गंध और नीलाम्बर की गंध एकाकार होने लगी। <br />
धरा ने कभी अपनी किसी सहेली से सुना था कि हर इंसान की अपनी एक अलग गंध होती है।धरा ने तब सहेली की बात पर विश्वास नहीं किया था। पर वह ज़ोर देकर कहती रही थी कि हर आदमी की अपनी एक अलग गंध ज़रूर होती है। चाहे वह अच्छी हो या बुरी, धीमी हो या मंद, लेकिन होती ज़रूर है।और कहते हैं कि कुँवारी लड़की या लड़के के बदन में तो ये गंध बेहद तीखी होती है, कभी-कभी मादक भी। <br />
धरा की सहेली ने बताया था कि बाद में चाहे वह गंध तीखी न रहे.....पर<br />
धरा उसे टोक बैठी थी - "बाद में मतलब?"<br />
और धरा की वह शादी-शुदा सहेली भी झेंप कर रह गयी थी।<br />
-"बाद में तीखी क्यों नहीं रहती?" धरा ने सवाल किया था। <br />
-"बाद में उसमें और कई गंधें जो मिल जाती हैं।"कहते ही धरा ने अपनी उस सहेली को शरमा कर दुत्कार दिया था। धरा की उस सहेली की शादी कुछ पहले ही हुई थी। <br />
शादी के बाद उसने एक दिन धरा से कहा था-"इनकी गंध मैं आँखें बंद कर के भी पहचान सकती हूँ।"<br />
-"कैसी है?"धरा बोली। <br />
-"बताऊँ? जैसे किसी ने शुद्ध देसी घी में थोड़ा सा गुड़ मिला दिया हो और...."<br />
-"अरे वाह, तेरे 'वो' तो लगता है अच्छे-ख़ासे इत्रदान ही हैं।"<br />
सहेली शरमा कर रह गयी। <br />
आज नीलाम्बर को यूँ सोता देख कर धरा के मन में भी एकबार ये ख़्याल आया कि नीलाम्बर के तन की गंध कैसी होगी? धत, ये क्या सोच बैठी, धरा ने अपने आप को ही दुत्कार दिया। <br />
नीलाम्बर ने अब करवट ले ली थी। उसने पैर भी सीधे करके फैला लिए थे।उसकी बंद आँखें व पतली नुकीली नाक कमरे की छत की दिशा में उठी हुई थी। <br />
एक हाथ नींद में ही उसने पेट पर रख लिया था, जिसकी कलाई में बंधा काला धागा होठों के ऊपर आये हलके पसीने की बूँदों की तरह ही चमक रहा था। सीधा हो जाने से.... <br />
[जारी] <br />
<br />
</div>
Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-250151619175042420.post-10842521813263941192016-05-09T19:37:00.000-07:002016-05-10T01:11:47.484-07:00सेज गगन में चाँद की [23]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
माँ के चले जाने के बाद धरा का ध्यान इस बात पर गया कि आज पहली बार शायद माँ उसे अकेला छोड़ कर गयी है। ताज्जुब तो इस बात का था कि धरा ने खुद माँ से उसके साथ चलने की पेशकश की थी। पर माँ उसे घर में अकेले छोड़ कर चली गयी। <br />
इससे पहले तो कई बार ऐसा होता रहा था कि धरा कहती, मेरा जाने का मन नहीं है, मैं घर में ही रह जाउंगी, तब भी माँ उसे यह कह कर साथ ले लेती, कि अकेली घर में क्या करेगी, कैसे रहेगी ?<br />
एक बार तो माँ को मज़बूरी में शारदा मामी के साथ जाना पड़ा तब भी धरा को अकेले छोड़ते समय भक्तन ने पिछली गली की सीता से कहा था, बहन ज़रा मेरे घर का ध्यान रखना, धरा वहां अकेली है। <br />
और आज?<br />
तो क्या धरा अब बड़ी हो गयी थी?<br />
लेकिन माँ के शब्दकोष में तो कुंवारी जवान लड़की इतनी बड़ी कभी नहीं होती, कि घर में सरे शाम अकेली रह सके। <br />
लेकिन जब धरा को इस गोरखधंधे का मतलब समझ में आया तो वह खुद से ही लजा गयी। <br />
असल में नीचे वाली कोठरी में नीलाम्बर जो सोया हुआ था, धरा घर में अकेली कहाँ थी?<br />
तो क्या माँ....?<br />
चलो, जब माँ अकेला छोड़ ही गयी तो क्यों न नीचे चल कर ज़रा नीलाम्बर की खोज-खबर ली जाये। <br />
वैसे भी जब से उसे रात की पाली का काम मिला था वह दिन रात बाहर ही तो रहता था। जब आता तो नहाने-धोने, और रोटी पकाने में रहता था। उसे फुर्सत ही कहाँ रहती थी कि चैन से दो-घड़ी बात कर सके।<br />
भूले-भटके ऊपर आता भी तो चार सवाल माँ के झेलता तब कहीं जाकर रामा-श्यामा धरा से हो पाती। कई बार तो बस देख भर पाते दोनों एक-दूसरे को।<br />
दबे पाँव सीढ़ियाँ उतर कर धरा जब नीचे आई तो कोठरी के किवाड़ भिड़े हुए थे। धरा ने हलके से धक्के से उन्हें खोल दिया। <br />
सामने गहरी नींद में नीलाम्बर सोया पड़ा था। माथे पर बिखरे घने बाल, साँवले बदन पर हलके से पसीने से शरीर के चमकने का अहसास उसे और भी आकर्षक बना रहा था। एक पैर सीधा, एक घुटने से मोड़ कर हाथों के पंजों से तकिया दबाए उल्टा सोया पड़ा था।<br />
जब से दोनों समय ड्यूटी करने लगा था, दिन के समय की उसकी नींद बहुत ही गहरी हो गयी थी। फिर इस समय दोपहर की गर्मी के बाद शाम की थोड़ी ठंडक फ़ैल चुकी थी। हलकी सी ठंडी हवा उसकी नींद को और भी गहरी बनाए हुए थी।<br />
धरा की समझ में न आया कि क्या करे। इस तरह चोरी-चोरी उसके कमरे में चले आने के बाद उसे वहां ठहरने में थोड़ा संकोच भी हो रहा था। फिर नीलाम्बर कपड़े उतार कर सो रहा था, एक छोटी सी चड्डी ही सिर्फ उसके कसरती तन पर थी। ऐसे में उसके करीब पहुँचने में भी धरा को झिझक हो रही थी।<br />
[ जारी ]<br />
</div>
Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-250151619175042420.post-8621627644291210572016-05-08T23:50:00.000-07:002016-05-08T23:50:09.414-07:00सेज गगन में चाँद की [22]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
भक्तन ने धरा के दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए और कंगन उसकी कलाई में फ़िरा कर देखने लगी। <br />
धरा ने धीरे से कंगन उतार कर माँ की गोद में रख दिए। फिर उसी तरह बैठी-बैठी आहिस्ता से बोली-<br />
-"ये तुम्हें आज इनकी याद कैसे आ गयी?"<br />
-"इनकी याद नहीं आ गयी, मैं तो ऐसे ही देख रही थी,घर में इतने चूहे हो गए हैं, सब ख़राब कर डालेंगे। तू ऐसा कर, ये मेरा ज़री वाला लाल-जोड़ा है न इसे अपने हिसाब से ठीक-ठाक करवा ले। पड़ा-पड़ा क्या दूध दे रहा है, कुछ काम तो आये।"<br />
धरा शर्मा गयी। धत, शादी का लाल-जोड़ा क्या ऐसे रोजाना में काम आता है? माँ भी अजीब है, उसने मन ही मन सोचा, और उठ कर भीतर जाने लगी।<br />
तभी माँ को न जाने कैसे ज़ोर की खाँसी उठी और धरा माँ के लिए पानी लाने को रसोई की ओर दौड़ पड़ी।<br />
माँ भी जैसे बिखरे असबाब में उलझे पुराने दिनों की यादें बीन रही थी, कोई लम्हा अटक गया गले में!<br />
पानी का गिलास माँ को पकड़ाते ही धरा की नज़र माँ की जवानी के दिनों की उस तस्वीर पर पड़ी जो शायद किसी कपड़े की तह से फिसल कर ज़मीन पर आ गिरी थी। <br />
तस्वीर में आँखें झुकाए शरमाती सी माँ बापू के साथ बैठी थी। <br />
माँ ने झोली के कंगन परे सरका कर झपट कर तस्वीर को सहेजा।<br />
धरा बिना कुछ बोले वापस बाहर चली गयी। भक्तन ने पानी पीकर गिलास वहीं रख दिया।<br />
शाम को धरा खाना खाने के बाद छत पर मुंडेर का सहारा लेकर यूँ ही खड़ी हवा खा रही थी कि भक्तन माँ कमरे से बाहर निकल कर छत पर आई। <br />
माँ ने इस समय नई सी पीली किनारी की धोती पहन रखी थी। धरा ने माँ के पैरों कीओर निगाह डाली, माँ चप्पल भी नई वाली पहने खड़ी थी। अवश्य ही कहीं जाने की तैयारी थी।<br />
-"कहाँ जा रही हो माँ,"धरा ने बड़ी सी लाल बिंदी की ओर देखते हुए कहा जो माँ शायद अभी-अभी लगा कर ही आई थी। <br />
-"आज ज़रा शंकर से मिलने जाउंगी।" माँ बोली। <br />
शंकर माँ का दूर के रिश्ते का या शायद मुंहबोला भाई था जिसे धरा भी मामा कहा करती थी। शहर में ही कुछ दूरी पर रहा करता था। <br />
-"आज अचानक?"धरा ने चौंकते हुए से कहा। <br />
-"अचानक नहीं बेटी, सोच तो बहुत दिनों से रही थी, पर मौका ही नहीं मिला। बीच में तबियत बिगड़ी तब मैंने सोचा शायद वही आ जाये।"<br />
-"वो कैसे आ जाते? उन्हें क्या पता था तुम्हारी तबियत का?"<br />
-"पता तो नहीं था, पर फिर भी।"<br />
-"वो आते कहाँ हैं? कितने महीने तो हो गए।"धरा ने जैसे कुछ मायूसी से कहा। <br />
-"तभी तो, इसीलिये तो मैंने सोचा, मैं होआऊं। शारदा भी बहुत दिनों से मिली नहीं है, मुझे लगता है उसकी बहू अभी पीहर से वापस न आई होगी। वरना तो आती वह भी।"माँ ने पूरे परिवार की कैफियत दी। <br />
-"मैं भी चलूँ ?"धरा ने हुलस कर कहा। <br />
-"तू चलेगी?"रहने दे, तू क्या करेगी।" माँ ने जैसे कुछ सोच कर कहा।<br />
माँ धीरे-धीरे सीढ़ियां उतर गयी। <br />
[ जारी ] <br />
<br />
<br />
</div>
Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-250151619175042420.post-64211746072524149752016-05-08T20:59:00.002-07:002016-05-08T23:03:14.920-07:00सेज गगन में चाँद की [21]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कभी-कभी बच्चे जब अपने माँ-बाप से दूर होते हैं तो दूसरे के माँ-बाप में अपने माँ-बाप को देख लेते हैं। शायद नीलाम्बर की याद में भी धरा की माँ के लिए ये सब करते हुए अपनी माँ रही होगी। <br />
नीलाम्बर ने अगर थोड़ा बहुत किया तो क्या अहसान किया किसी पर?<br />
भक्तन-माँ की देह पर ताप चढ़ा,वैद्यजी ने बूटियां घोटीं,नीलाम्बर ने पैसे खर्चे, कसक उठी धरा के कलेजे में....ऐसे ही मिल-जल कर तो चलती है दुनिया। <br />
तीसरे दिन भक्तन का बुखार बिलकुल उतर गया। चौथे दिन तो सुबह-सुबह मंदिर सँभालने खुद गयी। <br />
उस दिन सवेरे के समय धरा रसोई में दाल चढ़ा कर लहसुन छीलने के लिए बैठी ही थी कि भक्तन ने आवाज़ देकर धरा को बुलाया। <br />
-"क्या है माँ? अभी आती हूँ पांच मिनट में।"धरा ने ऊंची आवाज़ में कहा और हाथ ज़रा जल्दी-जल्दी चलाने लगी। दो-चार मिनट के बाद धरा कमरे में आई तो देखती ही रह गयी। <br />
भक्तन पुराना वाला बड़ा सा बक्सा सामने खोले बैठी थी। चारों तरफ फैला-बिखरा सामान पड़ा था और बीच में माँ। <br />
-"ये आज क्या सूझी तुम्हें? क्या निकालना है इसमें से?" धरा ने आश्चर्य से कहा। <br />
भक्तन न जाने किस सोच में थी, कोई जवाब नहीं दिया। उसी तरह बैठी सामान को उलट-पलट करती रही। <br />
धरा झल्ला गयी। काम छोड़ कर आई थी। रसोई में स्टोव को अलग धीमा करके आई थी।<br />
ज़रा और ज़ोर से चिल्लाई-"क्या है माँ? क्यों आवाज़ लगा रही थीं ? खीज कर धरा ने माँ को याद दिलाया कि तुमने आवाज़ लगा कर मुझे बुलाया है, अपने आप नहीं आई मैं। <br />
भक्तन ने धरा की ओर देखा। फिर इशारे से उसे पास बुलाया। इस रहस्यमयी रीति से धरा का विस्मय और बढ़ गया। वह किसी जिज्ञासा के वशीभूत धीरे-धीरे बढ़ती माँ के पास खिसक आई।<br />
माँ के हाथ में पॉलीथिन की एक थैली में लिपटी हुई कोई चीज़ थी। धरा आश्चर्य से उसे देखने लगी।<br />
भक्तन ने थैली खोली। उसमें से मुड़ा-तुड़ा एक कागज़ निकला। भक्तन कागज़ से निकाल कर देखने लगी। फिर धरा से बोली-"तू कह रही थी न कि ये चूड़ियाँ तेरे ढीली हैं,"<br />
पतले कागज़ की गुलाबी सी पुड़िया खोल कर भक्तन ने दो कंगन अँगुलियों में डाल कर घुमाए। <br />
-"पता नहीं, पहले तो ढीली ही थीं।" धरा ने कहा।<br />
-" तो अब ? ले, ज़रा हाथों में डाल कर तो देख।" माँ बोली। <br />
धरा एकदम से घुटनों के बल बैठ गयी और माँ के हाथों से लेकर सोने के कंगन अपनी कलाइयों में डाल कर देखने लगी। <br />
-"हां, ज़्यादा ढीले तो नहीं हैं, पर ज़रा बड़े हैं। धरा ने माँ को आश्वस्त किया। [ जारी ] </div>
Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-250151619175042420.post-15877818646265740612016-05-08T04:54:00.003-07:002016-05-08T04:54:53.718-07:00सेज गगन में चाँद की [20]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
धरा को लगा जैसे उस से अनजाने में ही कोई भूल हो गयी। यद्यपि उसे इस बात का अभी तक कोई सुराग नहीं मिला था कि आखिर इसमें गलत क्या है? बापू का नाम कार्ड में तो होगा ही। <br />
किसने कटवाया? कैसे कटवाया? कब कटवाया? क्यों कटवाया?<br />
नहीं कटवाया तो होगा ही। <br />
घर के राशन कार्ड में जिसका नाम होता है वो तो लौट कर घर आता ही है। <br />
नीलाम्बर के घर वालों ने भी तो उस के गाँव छोड़ कर चले आने के बावजूद उसका नाम कार्ड से इसी आस-उम्मीद में तो नहीं कटवाया कि एक न एक दिन लड़का वापस लौट कर घर आएगा ही।<br />
धरा के बापू का नाम भी कार्ड में अभी तक था। <br />
इतना तो धरा भी समझती थी कि आदमी के पैदा होने से कुछ नहीं होता। उसके सर्टिफिकेट से होता है कि वो है। आदमी के मरने से कुछ नहीं होता, मरने के सर्टिफिकेट से होता है कि आदमी मर गया।<br />
सर्टिफिकेट पर सरकार के दस्तख़त होते हैं। सरकार के दस्तख़त के बिना आदमी कैसे जी-मर सकता है?<br />
धरा के बापू का सर्टिफिकेट किसके पास था? जब किसी ने उसे मरते हुए नहीं देखा तो मौत का परवाना कैसे बने?<br />
यही कारण था कि इस घर का बिजली का बिल और म्युनिसिपलिटी की रसीदें सब धरा के बापू के नाम पर ही आते थे। इसीलिये राशनकार्ड पर बापू का नाम था.... और इसीलिये ये उम्मीद भी, कि एक दिन बापू वापस आ जायेगा।<br />
दो-तीन दिन भक्तन माँ की तबियत ख़राब रही। मंदिर में भी धरा को ही जाना पड़ा। और वैद्यजी से माँ की दवाई लेने भी। <br />
नीलाम्बर भी सुबह-शाम देखने-पूछने ऊपर आया। नीलाम्बर ने बाजार से राशन-सौदा भी दो-एक बार लाकर दिया। नीलाम्बर ने माँ की दवा भी लाकर दी। <br />
अकेली कुँवारी लड़की की माँ की बीमारी भी कीमती होती है। बीमारी तो सभी की कीमती होती है। कीमत चुकानी ही पड़ती है।<br />
दो-तीन बार धरा को नीलाम्बर से दस-बीस रूपये की मदद भी लेनी पड़ी। <br />
धरा तो न भी लेती। इतने बरस से यहाँ रहने पर आसपास के दुकानदार तो सब जानकर हो ही गए थे। दो-चार दिन उधारी चलाने में क्या बात थी?<br />
पर साथ में नीलाम्बर जो था। जब पैसे जेब में हों तो भला उधार क्यों? नीलाम्बर के लिए धरा की माँ क्या कुछ नहीं थी? नीलाम्बर ने ही खुद आगे बढ़ कर खर्चा भी किया और दवा के पैसे भी दिए। <br />
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि आदमी एक ऐसे आदमी के लिए कुछ करता है जो वहां होता ही नहीं।<br />
ऐसे ही, जैसे श्राद्धों में थाल-भर भोजन घर की छत पर हम उन पितरों के लिए रख देते हैं जो घर की छत पर होते ही नहीं, आसमान की छत पर होते हैं। [ जारी ] <br />
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Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-250151619175042420.post-61556942133538460812016-05-06T23:53:00.000-07:002016-05-06T23:56:59.624-07:00सेज गगन में चाँद की [19]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
नीलाम्बर के गाँव के उसके घर से उस चिट्ठी का जवाब आ गया था जो उसने राशन कार्ड के बाबत अपने पिता को लिखी थी। पिता ने लिखा था कि यहाँ तो सभी का कार्ड है। लिखावट से ज़ाहिर था कि पिता ने चिट्ठी उसकी छोटी बहिन से लिखवाई थी। लिखा था कि यहाँ तो ग्यारह लोगों का कार्ड है।नीलाम्बर का भी। <br />
घर में कुल सात प्राणी और ग्यारह आदमियों का कार्ड में नाम। चाचा के दो लड़कों का भी यहीं नाम लिखा है। ये भी लिखा था कि नीलाम्बर का नाम अभी तक काटा नहीं गया है। यहाँ सभी ज़्यादा लोगों का नाम लिखवाते हैं तभी जाकर राशन पूरा पड़ता है।<br />
बहन से लिखवाई गयी उस चिट्ठी में ये भी लिखा था कि नीलाम्बर जब यहाँ कार्ड बनवाए तब भी सभी भाइयों के नाम भी उसमें लिखवा ले, तभी राशन-पानी पूरा पड़ेगा।<br />
नीलाम्बर को चिट्ठी पढ़ कर हंसी आई। धरा तो ये पढ़ कर हँसते-हँसते लोटपोट ही हो गयी कि यहाँ किसी को पता नहीं है कि नीलाम्बर का नाम कार्ड में से कट कर शहर में कैसे जायेगा इसलिए वहां दूसरा बनवा लो।<br />
-"क्या सचमुच तुम्हारे गाँव में कार्ड मुफ्त में बन जाता है? वो भी आँखें बंद करके?" धरा को हैरत हुई।<br />
-"क्या पता? वहां थे, तब तक तो हमें पता ही नहीं थे ये सब झमेले। पिताजी ही सब देखते थे।" नीलाम्बर जैसे अपने-आप से बोला।<br />
-"तुम एक बार अपने घर वालों को यहाँ लाना।"<br />
नीलाम्बर धरा की इस बात से न जाने कहाँ खोकर रह गया। उसकी कल्पना में एक ऐसा उड़नखटोला तैरने लगा जो आसमान को चीरता हुआ, सफ़ेद-सफ़ेद बादलों को काटता, हिचकोले खाता हुआ चला आ रहा था और उसमें सवार थे उसकी अम्मा, बाबा,धन्नू,पीता,छोटा, मालू ...सब। <br />
इन सब को न जाने कब से नहीं देखा था उसने। धनाम्बर,पीताम्बर,और सदाम्बर उसके छोटे भाई थे जो वहीँ गाँव में ही पढ़ते थे, माला उसकी बहन थी और एक चचेरी बहन भी वहीं गाँव में ही रहती थी। <br />
धरा को अपने सवाल का जवाब काफी देर तक नहीं मिला, पर नीलाम्बर की आँखों में झाँक कर उसने जान लिया था कि नीलाम्बर धरा के सवाल का जवाब ही खुद अपने-आप को दे रहा है। <br />
कैसा खो गया वह अपने घर को याद करके। <br />
नीलाम्बर का दिल हुआ कि वह भी ठीक उसी तरह धरा से कहे कि कभी तुम भी मेरे साथ मेरे गाँव चलना।<br />
पर ऐसा विचार आते ही नीलाम्बर मन ही मन झेंप गया। भला ऐसी बात वह धरा से कैसे कह सकता था। <br />
धरा ने नीलाम्बर के घर से आई चिट्ठी के बारे में भक्तन माँ को भी बताया था। <br />
-"माँ, अपने राशन कार्ड में बापू का नाम है क्या ?" धरा सहसा पूछ बैठी। <br />
यह धरा को आज बैठे-बैठे अचानक क्या सूझा !<br />
माँ स्तब्ध रह गयी। बेटी की ओर एकटक देखती रही। <br />
[ जारी ] </div>
Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-250151619175042420.post-67831494375492047422016-05-06T08:55:00.003-07:002016-05-06T20:22:01.454-07:00सेज गगन में चाँद की [18]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
धरा आकर यहाँ लेट ज़रूर गयी पर उसे नींद तो क्या, चैन तक न आया। उसे अच्छी तरह मालूम था कि रसोई में उसकी खटर-पटर बंद हो जाने से माँ को ज़रूर मायूसी हुई होगी। <br />
माँ का ये चाय का समय था और धरा से तमाम नाराज़गी के बावजूद माँ बैठी यही सोच रही थी कि कपड़े बदल कर धरा चाय का पानी चढ़ाएगी।<br />
आँखों पर मोड़ कर रखी हुई कोहनी की कोर से धरा ने ज़रा तिरछी आँखों से माँ की ओर देखा। उसे अकारण ही हंसी आ गयी। हंसी को होठों में ही घोटकर ज़ब्त करते हुए धरा ने पूछा-" चाय बनाऊँ माँ?"<br />
इस से पहले कि माँ कुछ बोलें, उनकी आँखों में वही खास किस्म की चमक आ गयी, जिसे देखते ही धरा को अपनी बात का जवाब मिल गया। <br />
पर प्रकटतः माँ बोलीं-"सो रही है तो सो जा, बाद में बना देना।"<br />
धरा उठ कर रसोई में चली गयी और स्टोव जलाने लगी। <br />
ऊपर तक भरे हुए गरम गिलास को अपनी धोती के पल्ले से पकड़ कर उठाते हुए माँ ने कहा-<br />
-" और है क्या चाय? उसे भी दे देती ज़रा सी।"<br />
-"अब बना लेगा अपने आप,उसे पीनी होगी तो।"<br />
धरा ने जानबूझ कर लापरवाही से कहा और रसोई से एक हरी मिर्च के साथ दो रोटियाँ रख कर ले आई। चाय के साथ ही धरा रोटी खाने बैठ गयी, उसे अब तक भूख भी ज़ोरों की लग आई थी। माँ कुछ न बोली, चुपचाप चाय पीती रही।<br />
-"क्यों री, कार्ड बन गया क्या उसका?" माँ ने हलक चाय से तृप्त होने के बाद जिज्ञासा उगली।<br />
-"कार्ड क्या एक दिन में बन जाता है? आज तो फार्म भर कर दिया है। पंद्रह-बीस दिन लगेंगे, राशन कार्ड के दफ्तर से एक आदमी यहाँ देखने आएगा, तब जाकर बनेगा।" धरा बोली।<br />
-"आदमी क्यों आएगा? आदमी को ही आना था तो इसे वहां क्यों बुलाया?" माँ ने जायज़ सी बात कही। <br />
-"अरे कार्ड बनाने से पहले ठौर-ठिकाना देखने आते हैं, जिसने अर्ज़ी दी है वो यहाँ रहता भी है या नहीं, और कौन-कौन है साथ में? किस-किस का नाम जुड़ेगा कार्ड में, ये सब यहाँ तहकीकात करके ही तो कार्ड बनाएंगे।" धरा ने अब तक का अपना ज्ञान मानो सारा उलीच दिया।<br />
उसे ज़रा झल्लाहट सी भी हुई कि कहाँ तो वापस लौटते ही माँ ने ये भी सीधे मुंह नहीं पूछा था कि जिस काम से वे लोग गए थे वह हो गया या नहीं, और अब माँ उसके कार्ड को लेकर इतनी चिंतित है कि उसका बस चले तो आज, अभी ही बनवा कर दिलवा दे कार्ड सरकार से।<br />
नीलाम्बर का कार्ड बनने, न बनने की जो फ़िक्र दो दिन से माँ को थी वह उस समय तो उपेक्षा के किसी खोल में गुम हो गयी थी, जब उन्हें लौटने में ज़रा देर क्या हुई।<br />
माँ का बेबात का गुस्सा धरा को फिर से याद आ गया। उसे लगा कि वह अकारण ही अपने को तनाव में जला रही थी। [ जारी ] <br />
<br />
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माँ भी अजीब है। <br />
हर समय यही सोचती रहती है कि धरा कोई बच्ची है। अरे, अकेली तो गयी नहीं थी, साथ में छः हाथ का ये लड़का था। और कोई बिना पूछे नहीं गयी थी। यदि ऐसा ही था तो माँ पहले ही मना कर सकती थी। न जाती वह। भला उसे कौनसा घर काटने को दौड़ रहा था कि भरी दोपहरी में भटकने को घर से निकलती। <br />
नीलाम्बर ने ही कहा था कि वह साथ चलेगी तो काम ज़रा जल्दी हो जायेगा। क्योंकि उस बेचारे का बहुत सा समय तो पूछने-ढूँढ़ने में ही निकल जायेगा। <br />
और माँ से पूछने के बाद ही धरा ने नीलाम्बर को हामी भरी थी। <br />
पर अब माँ ऐसे मुंह लटका कर बैठी है जैसे धरा कहीं से गुलछर्रे उड़ा कर लौटी हो। अब शाम तक ऐसे ही रहेगी। मुंह से कुछ न कहेगी पर बात-बात पर हाव-भाव से अपनी नापसंदगी ज़ाहिर करती रहेगी। <br />
धरा चाय की पूछेगी, तो दो बार तो पहले कोई जवाब ही न देगी, तीसरी बार ज़ोर देकर पूछने पर बेमन से कहेगी-"इच्छा नहीं है।"<br />
धरा को समझ में नहीं आता कि आखिर माँ को आपत्ति क्या थी? बाहर की दुनिया में कोई खतरा था, तो ये लड़का साथ में था। यदि इसी से कोई खतरा था तो ये भी तो सोचे माँ,कि ये यहीं रहता है। हमारे घर में। इसे कुछ करना होता तो ये भरी दोपहर शहर की भीड़-भाड़ में धक्के खाने क्यों ले जाता? रात को माँ के सोने के बाद धरा ही सीढ़ियां उतर कर इसकी कोठरी में घुसती और इस से लिपट कर सो जाती तो माँ क्या कर लेती? उसे तो नींद की बेहोशी में कुछ खबर भी नहीं होती।<br />
छिः छिः ये क्या सोच गयी धरा, खुद अपनी ही सोच पर लजा कर सुर्ख हो गयी। <br />
उसे अब माँ पर नहीं, खुद पर गुस्सा आने लगा। <br />
बेचारी माँ भी क्या करे? दूध की जली है, इसी से छाछ भी फूँक-फूँक कर पीती है। उसे न धरा की चढ़ती जवानी से डर लगता है, न नीलाम्बर की नई-नई मर्दानगी से। वो तो डरती है, ज़माने की करमजली काली जुबान से। निगोड़ा कब क्या कह बैठे, खबर नहीं। इसी नामुराद ज़माने ने ही तो कुबोल बोल कर उसका खसम उस से छीन लिया। मोहल्ले में ही अपनी ज़िंदगी झुलसा कर कई बूढ़े बदन पड़े हैं, कोई भी कुछ बक दे....तो गयी न भक्तन के दूसरे जनम की आबरू भी?<br />
माँ ने जब चाय के लिए अनिच्छा जताई तो धरा भी गुस्से से तमतमा कर स्टोव बुझा कर, पानी फेंक पैर पटकती हुई कमरे में बिला गयी। <br />
धरा कपड़े बदल कर थोड़ी देर लेटने के इरादे से चटाई उठा कर कमरे से छत पर चली आई। रसोई की साँकल उसने झटके से बंद करदी मानो माँ के गुस्से के चलते अब दो-तीन दिन रोटी-पानी बंद ही रहेंगे। [ जारी ] </div>
Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-250151619175042420.post-2713572448088082832016-05-05T08:45:00.001-07:002016-05-05T08:49:37.527-07:00सेज गगन में चाँद की [ 16 ]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
भक्तन का ये नया युवा किराएदार धीरे-धीरे भक्तन के मन में भी जगह बनाने लगा। अब उसके व्यवहार से भक्तन के सोच की डाल पर बैठी वो चिड़िया उड़ कर कहीं ओझल हो गयी जो अकेले में सोते-जागते भी भक्तन की शंका-कुशंका को ठकठकाती रहती थी।<br />
और धरा ? उसके तो कहने ही क्या ?<br />
एक दिन जब नीलाम्बर ने अम्मा जी से कहा-"मैं तो यहाँ बिलकुल नया हूँ,राशन कार्ड बनवाने की अर्जी कहाँ-कैसे देनी है, ये भी नहीं जानता" तो भक्तन की तमाम दरियादिली दाव पर लग गयी।<br />
उसकी दुनियादार अनुभवी आँखें तुरंत ताड़ गईं कि लड़का धरा को साथ ले जाने की परवानगी चाहता है। <br />
भक्तन ना कैसे कर दे? आज तो पूछ रहा है, कल गुपचुप धरा खुद बहानेबाज़ी से उसके साथ घूमने फिरने लगी तो बुढ़िया कैसे रोक लेगी?<br />
भक्तन को इजाज़त देनी ही पड़ी। <br />
और उसके "हाँ " कहते ही धरा जैसे फड़फड़ाकर तैयार होने भीतर घुसी, भक्तन समझ गयी कि बच्चे पहले से सब सोच-ठान कर बैठे थे, उसकी अनुमति तो बस एक औपचारिकता थी। <br />
थोड़ी ही देर में दोनों निकल गए। <br />
भक्तन भी मन को समझाने लगी कि जवान होती लड़की के साथ बूढ़े माँ-बाप का नहीं, बल्कि किसी भरोसेमंद जवान लड़के का होना ही निरापद होता है। बिना बाप-भाई के आखिर कोई तो हो जो घड़ी- दो- घड़ी लड़की को बाहर की रौनक दिखा लाये?<br />
बार-बार उमड़ती चिंता को मक्खियों सा उड़ाती भक्तन भीतर आ लेटी।<br />
उसे नींद तो क्या आती, हां उनींदी सी पड़ी-पड़ी ने पहाड़ जैसी दोपहरी काट दी। <br />
लेकिन ये क्या ? घंटे भर की कह गए थे, पर अब पूरे पांच बजने को आये।<br />
घर लौटने पर धरा ने देखा कि माँ ने कुछ कहा तो नहीं है, पर फिर भी उसके हाव-भाव से स्पष्ट था कि उसे अच्छा नहीं लगा है। <br />
अब भला राशन के दफ्तर में इतनी देर लग गयी तो इसमें धरा का भी क्या दोष? लेकिन ये बात माँ घर बैठे-बैठे कैसे जानती?<br />
वह तो यही जानती थी कि धरा पराये लड़के के साथ बारह बजे से पहले की निकली-निकली अब साढ़े चार के भी बाद घर में घुसी है। <br />
धरा भी अब क्या करे? पूछी गयी बात का जवाब दिया जा सकता है, शिकायत की सफाई दी जा सकती है, किन्तु न कही गयी बात की सफाई किस तरह दी जाये? धरा समझ न पाई। हाव -भाव की कैफियत कोई कैसे भला दे?<br />
धरा मन ही मन ताड़ रही थी कि माँ देर से लौटने पर नाराज़ है, पर इसका उपाय भी क्या था? धरा खीजती रही। [ जारी ]</div>
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धरा फिर उलझ पड़ी -<br />
-"कमाल करती हो माँ तुम भी ! अरे वो क्या कोई नवाब या राजा-महाराजा है जो सारी -सारी रात कहीं ऐश करने जाता होगा। काम-धंधे वाला आदमी है, जब अपना घर-बार छोड़ कर यहाँ परदेस में अकेला पड़ा है,तो चार पैसे कमाने की फ़िक्र न करेगा? जहाँ काम मिलेगा, जब मिलेगा, जायेगा ही। और सोचो उसे यदि कोई खुराफात ही करनी होगी तो यहाँ दिन क्या कम पड़ता है उसे?"<br />
धरा कह तो गयी, पर अब अपनी ही बात पर झेंप कर रह गयी।<br />
माँ-बेटी के ये तर्क-वितर्क दो दिन और चले। <br />
माँ ने भी शक और शुबहे के कोई कोण बाकी नहीं छोड़े,और बेटी ने भी निपट अनजाने लड़के का आँख मूँद कर पक्ष लेने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। पर दो दिन बाद मामला खुद-ब-खुद साफ़ हो गया। <br />
तीसरे दिन रात को कागज़ की पुड़िया में चार इमरती लेकर नीलाम्बर ऊपर ही चला आया। संकोच से अपने हाथ की पुड़िया धीरे-धीरे खोलकर उसने भक्तन माँ को ही थमाई, फिर विनम्रता से बोला-<br />
-" अम्माजी, मुझे एक जगह काम मिल गया है, वहां से आज पहली बार पगार मिली है।"<br />
भक्तन ने इमरती की पुड़िया की ओर चमकती आँखों से देखते हुए कहा- " अच्छा-अच्छा बेटा ....अरे ये तो बहुत अच्छी खबर सुनाई। मैं चार रोज़ से यही सोच रही थी कि रोज़ रात को तू कहाँ चला जाता है।<br />
भक्तन माँ दोहरी प्रसन्न थी।<br />
एक तो नीलाम्बर का अम्माजी कह कर बोलना उन्हें खूब भाया था, दूसरे उन्हें उनकी कई दिन पुरानी उस शंका का माकूल उत्तर मिल गया था जिसने चार दिन से उनके पेट में पानी किया हुआ था।<br />
और इन दोनों बातों के अलावा एक तीसरी बात ये भी तो थी कि मंदिर का प्रसाद खाते-खाते मिठाई भक्तन माँ की पसंदीदा कमज़ोरी बन चुकी थी।<br />
भक्तन देखते ही समझ गयी कि इमरती मथुरा मिष्ठान्न वाले की है, जिसकी इमरती दूर-दूर तक प्रसिद्ध थी। इमरती की मिठास में भक्तन ऐसी खोई कि उसे थोड़ी ही दूर पर फुसफुसा कर बात करते धरा और नीलाम्बर की भी सुधि नहीं रही।<br />
शायद सीढ़ियों तक उसे छोड़ने चली गयी धरा को नीलाम्बर उस काम के बाबत बता रहा था जो हाल के दिनों में उसे मिल गया था। <br />
ठीक भी तो है, जब आदमी घर से कोसों दूर हो तो पराये भी उसके अपने ही होते हैं। ऐसे में अपने मुंह की भाप आदमी उन के सामने न निकाले तो और कहाँ निकाले? <br />
फिर धरा और नीलाम्बर? जिनकी आँखों में चुम्बक, जिनकी बातों में चुम्बक, जिनकी उम्र में चुम्बक !<br />
[ जारी ] <br />
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सच, ऐसे ही तो होते हैं शहर। जब तक आप ज़माने के साथ दौड़ो,सब कुछ ठीक है। जहाँ कोई ज़रा सी ऊंच - नीच हुई कि आप समाज की कतार से बाहर।<br />
सीमेंट, पत्थर,चूने और लोहे के अल्लम-गल्लम से घिरे कितने ही मकान तो ऐसे होते हैं कि जिन्हें घर बनाने या बनाये रखने की कोशिशों में समूचे जीवन खर्च हो जाते हैं। <br />
कच्ची उम्र के उठते सपने लेकर गाँव-देहात अपनी कलाई इन बस्तियों के हाथ में दे देते हैं, और फिर तेज़ी से ऐसा विकास होता है कि शहर को बस्ती का गिरेबान पकड़ने में ज़रा भी वक़्त नहीं लगता। <br />
भक्तन ने अपने इस चढ़ती उम्र के सीधे-सादे से किराएदार में ऐसा कभी कुछ न पाया जो उसे किसी शक-शुबहा में डाले। बल्कि इसके उलट, उसके व्यवहार से माँ-बेटी ऐसी अभिभूत रहतीं कि दिनों- दिन उसे अपने और करीब करती चली गयीं।<br />
भक्तन की ये चिंता हवा में उड़ गयी कि अकेली जवान लड़की के घर में अजनबी पराया लड़का न जाने कब कोई गुल खिलादे।<br />
भक्तन ने देखा कि कभी-कभी अगर हम खुद अपने को कुछ न कहें, तो ज़माना भी कुछ नहीं कहता। निगोड़ा ज़माना भी उसी को सुनाने का आदी है जो उसकी सुने। <br />
भक्तन को तो बुढ़ापे में ऐसा लगता मानो उसके एक नहीं, दो बच्चे हैं। <br />
लेकिन कुछ दिन बाद भक्तन ने धरा से जब ये सुना कि नीलाम्बर अब अक्सर रात को घर नहीं आता , तो उसके माथे पे बल पड़ गए।<br />
ये बात आम हो गयी कि नीलाम्बर रोज़ ही रात को घर से बाहर रहने लगा है। वह शाम को घर पर दिखाई देता, खाना बनाता, खाता , फिर नौ बजते-बजते कमरे को ताला डाल कर बाहर निकल जाता।<br />
भक्तन माँ को ये बड़ा अटपटा लगता। उसे ये बेचैनी सताने लगी कि आखिर रोज़ रात को लड़का कहाँ चला जाता है? उसके मन में एक कुशंका सी आई कि कहीं पास-पड़ोस की किसी नसीब-जली औरत ने धरा के बापू की तरह उस पर भी कोई ताना तो नहीं तान मारा ? आखिर घर में जवान बेटी थी।<br />
पहले दो-एक दिन तो वह मन ही मन सोचती रही कि मौका देख कर खुद नीलाम्बर से ही पूछेगी। पर बाद में एक दिन धरा से ही कह बैठी-<br />
"बेटी, ज़रा पता तो लगा, रात को रोज़ कहाँ चला जाता है? कोई रिश्ते-नातेदार मिल गया है या ... "<br />
-"या ...?" धरा ने बौखला कर माँ को टोका।<br />
- " तुम भी माँ बस ज़रा सी बात का बतंगड़ सा बना कर बैठ जाती हो, अरे अकेला लड़का है, कहीं यार-दोस्तों में चला जाता होगा,या फिर हो सकता है उसे रात का कोई काम ही मिल गया हो। ऐसे रोज़-रोज़ रात को बिना काम के कोई कहाँ जायेगा, और क्यों जायेगा?"<br />
भक्तन धरा के इस तरह झुंझला कर बोलने से चुप तो हो गयी, पर उसे पूरी तसल्ली फिर भी नहीं हुई। उसका मन ये मानने को कतई तैयार नहीं था कि जवान कुँवारा लड़का सारी-सारी रात घर से बाहर रह कर लौटे,और उस से कहीं कोई कुछ न पूछे।<br />
अरे, हम उसके रिश्तेदार न सही, जब तक हमारे मकान में किराएदार बन कर रहता है, तब तक तो हमें उसके चाल-चलन पर निगाह रखनी ही होगी। बाद में चाहे जहाँ मुंह मारे, हमें क्या? [ जारी ] </div>
Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-250151619175042420.post-79009113064088351072016-05-03T01:46:00.001-07:002016-05-03T04:45:41.955-07:00सेज गगन में चाँद की [ 13 ]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
नीलाम्बर का गाँव यहाँ से बहुत दूर था, और ये उन्नीस वर्षीय युवक कुछ समय पहले अपने घर-गाँव के कष्टों का कोई आर्थिक तोड़ ढूँढ़ने के लिए किसी कागज़ की कश्ती में सवार भुनगे की भांति यहाँ चला आया था। उसके पिता किसी बेहद मामूली से काम से रिटायर होकर अब घर के एक उम्रदराज़, पर अनुपयोगी सदस्य की तरह घर में रह रहे थे।अशक्त भी थे। <br />
गाँव में उनका कमाया जो कुछ थोड़ा-बहुत जमा-जोड़ था वह परिवार के लिए पूरा नहीं पड़ता था। इसी चिंता के चलते नीलाम्बर इस नई जगह चला आया था। <br />
यहाँ नीलाम्बर एक दुकान में काम करता था और उसी दुकानदार के लिए घर-घर से पुराना सामान बटोरने और फिर बेचने का उसका फेरा था। दोपहर तक उसे इसी तरह फेरी लगाने जाना पड़ता था। बाद में दोपहर को रोटी खाने के बाद उसे दुकान पर बैठना पड़ता था। उस समय दुकान का मालिक आराम करने घर चला जाता था और नीलाम्बर दुकान सम्भालता था।<br />
धंधे में ज़्यादा कमाई न थी। बस किसी तरह गुज़र-बसर हो रही थी। नीलाम्बर सुबह-सुबह उठ कर रोटी अब अपने हाथ से बनाने लगा था। शाम को ज़्यादातर भात बना लेता। उसका अपना काम अपनी कमाई में भले ही चल जाता हो, पर अपने सोच के मुताबिक घरवालों को भेजने के लिए वह कुछ बचा न पाता था।<br />
अब उसने इसीलिये किराए पर ये छोटी सी कोठरी ले ली थी कि अपने छोटे दोनों भाइयों को अपने पास लाकर रख सके। अब तक तो वह वहीं दुकान पर सोता रहा था।<br />
दुकान कबाड़ भंगार और पुराने टूटे-फूटे सामान की थी इसी से रात को उसे खुला रख कर सोने-बैठने के काम में लेना कोई मुश्किल न था। दुकान के एकाध लड़के कभी-कभी और वहां रहते थे।<br />
यह बस्ती अपनी बसावट में अपेक्षाकृत नई ही थी। वहां जो भी लोग थे, अधिकतर नए-नए ही आकर बस रहे थे। खेतों से कट-कट कर ज़मीनें निकल रही थीं,ज़मीनों से दुकानें। <br />
ऐसी बस्ती में भला पुराने-बेकार माल की ज़्यादा गुंजाइश कहाँ होती है। बसे-बसाए पुराने घर तो वहां बहुत कम थे। और जो थे, उनमें भी धरा भक्तन जैसे लोग जिनका बसना क्या, उजड़ना क्या?<br />
शहर पर फफूंद की तरह उगते चले जाते हैं ऐसे इलाके। इनमें खानदानी लोग नहीं रहते। इनमें तो ज़िंदगी बनने और ज़िंदगी बिखरने से गिरे धूल-मिट्टी और तिनके ज़्यादा होते हैं।<br />
ये ऐसी बस्तियां हैं कि इनमें रहने वालों को न समाज-रिवाज़ का कोई सहारा मिलता है, न संस्कारों और परम्पराओं की कोई विरासत। यहाँ तो खेत जब बंजर होने लगे, दालान में बदल जाता है, और दालान जब सूखने लगे, चौबारा बन जाता है। <br />
ऐसी बस्तियां उन लोगों को ही पालती हैं जिन्हें पूंजीवादी-सामंतवादी तरीकों से चलने वाली संस्कारी बस्तियां ज़रा-ज़रा सी बात पर दुत्कार कर फेंक देती हैं। [ जारी ] </div>
Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-250151619175042420.post-53790181955853393262016-05-02T20:48:00.002-07:002016-05-02T20:48:54.527-07:00 सेज गगन में चाँद की [ 12 ]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
घर मानो सीधा सा हो गया। <br />
वो कहते हैं न, कि यदि किसी घर में औरत न हो, तो घर घर न होकर भूतों का सा डेरा लगता है। ठीक वैसे ही,अगर किसी घर में कोई मर्द-बच्चा न हो, तब भी घर घर न होकर बिना बांस का सा तम्बू लगता है, जिसे हवाएं कभी भी झिंझोड़ दें, कहीं भी उड़ा ले जाएँ। तिरछा सा ही रहता है डेरा।<br />
और इस तरह भक्तन का घर भी सध गया।<br />
अब जब सवेरा होता तो घर के सारे कोण खनखनाते। पूजा के आले में भक्तन की जलाई हुई अगरबत्तियों की सुवास महकती,छत पर साग-भाजी काटती धरा की कायनात पर चहकते हुए पखेरू मंडराते,तो नीचे दालान में बाल्टी भर पानी से नहाते नीलाम्बर के बदन से ठन्डे पानी के छींटे छलकते। <br />
नीलाम्बर बहुत संकोची स्वभाव का था, किसी काम के लिए ऊपर न आता। नहा कर अपने कपड़े तक नीचे ही दीवार के एक टूटे से हिस्से पर सूखने के लिए फैला देता।<br />
कोठरी में पहुँच कर तन पर कमीज और पैरों में पेंट डालता,घने गीले बालों को झटकारते हुए सहलाता और उल्टा-सीधा कुछ भी पेट में डाल कर काम पर निकल जाता।<br />
भक्तन का ध्यान तो गया तब,जब एक दिन दीवार से उड़ कर नीलाम्बर की चड्डी दीवार के सहारे मिट्टी में जा गिरी। देखा धरा ने भी,पर वह हलके से बस मुस्करा कर रह गयी। ये वही जगह थी जहाँ कभी एक दिन धरा ने नीलाम्बर को ऊपर बुलाने की ग़रज़ से जानबूझ कर अपनी चोली नीचे गिरा दी थी।<br />
जैसे नीलाम्बर उस दिन झिझकता सा चोली हाथ में पकड़े ऊपर आया था, काश, आज धरा भी उसकी चड्डी हाथ में लेकर कोठरी की देहरी पर जा पाती !<br />
पर वो था ही नहीं घर में।<br />
शाम को नीलाम्बर आया तो भक्तन ने आवाज़ देकर उसे ऊपर बुला लिया और बोली-<br />
-"बेटा, छत पर कपड़े सुखाने की रस्सी बंधी है,तू नीचे दीवार पर क्यों उन्हें छोड़ जाता है? इधर-उधर उड़ते फिरते हैं, कोई गाय-वाय चबा जाएगी, यहाँ सुखा जाया कर।"<br />
नीलाम्बर कृतज्ञता से सर झुकाए रसोई की ओर देखने लगा जहाँ से धरा तीनों के लिए चाय के प्याले लिए आ रही थी। <br />
नीलाम्बर को लकड़ी की कुर्सी पर बैठना पड़ा। <br />
तीनों चुपचाप बैठे चाय पीते रहे। <br />
शाम का सूरज सिंदूरी होने लगा था, मानो विधाता-दर्ज़ी धरती के वाशिंदों का भविष्य सिल कर अब दुकान की ढिबरी बुझाने को हो।<br />
[ जारी ] <br />
</div>
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बड़ी मुश्किल से धरा भक्तन-माँ को इस बात के लिए राज़ी कर पाई कि नीचे वाली कोठरी को किराए से दे दिया जाये। तरह-तरह के तर्क देकर समझाया तब कहीं जाकर माँ की समझ में ये बात बैठी कि बढ़ती मँहगाई के साथ घर के खर्च बढ़ते जाते हैं और मंदिर की आमदनी से इतना कुछ नहीं आता कि दोनों माँ-बेटी का खर्च आराम से चल सके। बुढ़ापे की मार झेल रहा शरीर अन्न की बचत दवा-दारु में सोख लेता है, ये बात धरा ही नहीं, भक्तन खुद भी तो जानती थी।<br />
आखिर भक्तन ने कहा-"अच्छा चल, हनुमान मंदिर वाली पण्डिताइन को कह दूँगी, वो किसी कामकाजी औरत को भेज देगी, कोठरी में रहने को।"<br />
धरा ज़रा कसमसाई, फिर बोली-"माँ ,मैंने किराएदार ढूंढ लिया है।"<br />
और जब भक्तन को पता चला कि धरा ने बिना किसी पहचान-पड़ताल के सड़क चलते एक कबाड़ी लड़के को ढूँढा है, तो जैसे भूचाल सा ही आ गया। बुढ़िया आपा खो बैठी।<br />
-"बोल, सच-सच बता कब से चल रहा है तेरा ये खेल?" भक्तन चिल्लाई। <br />
-"माँ, ये क्या कह रही हो? मैं तो उसे जानती भी नहीं, आज ही बात हुई है,जब वो कोठरी का सामान लेने आया, पढ़ा-लिखा शरीफ.... " धरा अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाई कि माँ बरस पड़ी। <br />
-"चुप, निर्लज्ज कहीं की ! तभी मैं सोच रही थी कि क्यों तेरे पैर थिरक रहे हैं कोठरी खाली करने को" भक्तन ने अपना क्रोध निकाला।<br />
धरा को अपनी प्रेम-पींग बढ़ने से पहले ही लांछन की ये बौछार बिल्कुल नहीं सुहाई, वो ये भी भूल बैठी कि वो अपनी माँ से बात कर रही है। बोली-"अब मैं क्या बच्ची हूँ जो सांस भी तुमसे पूछ-पूछ कर लूंगी?"<br />
धरा का सुर उठा देख कर भक्तन ने पैंतरा बदला-"बेटी, मैं तो तेरे भले के लिए ही कहती हूँ, बिना बाप के गरीब घर में जवान होती लड़की क्या होती है,ये तू क्या जाने बच्ची,लोगों ने तो तेरे पिता को सुनाने में ही कोई कोर-कसर नहीं रखी, लोगों के कड़वे बोल उनका जीवन खा गए" कहते हुए भक्तन ने पल्लू से अपनी आँखें पौंछने का उपक्रम किया।<br />
लेकिन माँ के आंसुओं को देख कर भी धरा ये नहीं भूल पाई कि माँ ने चाहे-अनचाहे उसके चरित्र पर कीचड़ उछालने में भी कोताही नहीं बरती है।<br />
वह माँ के समझाने की अनदेखी कर पूर्ववत क्रोध में ही कह बैठी-"मुझे पता है, मुझे सब पता है, बापू को क्या गम खा गया। आज मुझसे पूछती हो कि मेरा उस लड़के के साथ क्या खेल चल रहा है? मैं पूछती हूँ, तुम्हारा क्या खेल चला था आखेट महल वाले रावसाहब के साथ, जिसके कारण बापू को लोगों के ज़हर-बुझे ताने सुनने पड़े, बोलो, बताओ?"<br />
भक्तन के जिगर-कुंड में बरसों से दबी राख की चिंगारियों पर मानो ताबड़तोड़ घी पड़ गया। ज्वाला धधक उठी, भक्तन ने पूरी ताकत से खींच कर एक चांटा धरा के गाल पर दे मारा।<br />
धरा बिफर पड़ी, और रोती हुई भीतर खाट पर औंधी जा लेटी।<br />
रोते-रोते ही उसे न जाने कब नींद आ गयी। <br />
[ जारी ] </div>
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शाम के सात बज जाने पर भी जब रसोई में बर्तनों की खटर-पटर शुरू न हुई तो भक्तन माँ का माथा ठनका। पहले तो खाट पर पड़े-पड़े ही आवाज़ लगाई। पर जब दो-तीन आवाज़ों के बाद भी धरा की आहट सुनाई न पड़ी तब भक्तन खुद ही उठ कर बाहर चली आई।<br />
धरा अभी तक पेट के बल उसी तरह बिस्तर पर पड़ी थी। बाल बिखरे हुए थे। कोहनी मोड़ कर माथे के नीचे लगाई हुई थी। सूखे हुए आंसुओं के निशान गालों से होकर होठों तक फ़ैल गए थे। <br />
भक्तन को बेटी पर ममता-सी जागी। धीरे से झुक कर उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगी। कुछ सोचती हुई सी भक्तन अपनी यादों के गलियारों में न जाने कितनी पीछे तक निकल गयी थी। फिर भी उसे दोपहर की बात पर पश्चात्ताप तो हो ही रहा था। वह हाथों से ही बेटी को दिलासा देने की कोशिश कर रही थी। मुंह से बोल नहीं फूट रहे थे।<br />
ग्लानि कितनी भी हो, जबान से निकले बोलों के तीर तो अब वापस आ नहीं सकते थे। बिटिया अब तक इसी बात पर रूठी पड़ी थी। बिन बाप की इकलौती बिटिया पर भक्तन-माँ ने आज पहली बार , केवल कड़वे बोलों की ही बरसात नहीं की थी, बल्कि हाथ भी उठा दिया था।<br />
असल में हुआ ये, कि धरा ने नीचे वाली कोठरी की सफाई करने के बाद, कबाड़ के लिए फेरी लगाने वाले उस लड़के को सारा पुराना सामान बेच डाला। कुछ देर बाद सारा असबाब अपने बोरे में भर कर लड़का जब देहरी से बाहर निकला तो अपने ही बुहार कर इकट्ठे किये गए कचरे पर उसे रश्क सा हुआ। <br />
धरा ने उसके दिए रूपये-पैसे बिना गिने ही मुट्ठी में डाल लिए थे। <br />
लड़का तो गली में आगे बढ़ गया पर धरा उसके जाने के बाद कोठरी को नए सिरे से निहार कर ऊपर की सीढ़ियां चढ़ गयी। छत की मुंडेर के सिरे पर पहुँच कर सिर्फ एक अहसास सा धरा के पास रह गया, बाकी सब ओझल हो चुका था। <br />
अनमनी सी धरा ने अब माँ के पास बैठ कर उस सारी बात का खुलासा किया जो बात कल शाम से ही भक्तन के पेट में पानी किये हुए थी। <br />
धरा ने माँ को बताया कि उसने नीचे वाली कोठरी की साफ-सफ़ाई इसलिए की है, कि उसे किराए से उठाएंगे, ताकि हाथ में चार पैसे भी आएं और वक़्त-ज़रूरत मदद के लिए घर के वीरान सन्नाटे में कोई हिलता-डुलता इंसान भी दिखाई दे।<br />
धरा को पहले तो इसी बात पर भक्तन का कोपभाजन बनना पड़ा कि उसने पिता की स्मृति को बिसरा कर उनका सब सामान घर से निकाल बाहर किया, फिर ये जानने के बाद तो भक्तन हत्थे से ही उखड़ गयी कि धरा नीचे वाली कोठरी एक रास्ता चलते अनजान लड़के को किराए से देने की तरफदारी कर रही है।<br />
लड़के की न जाति का पता था न गाँव-घर का,जाने कंवारा था कि शादी-शुदा, किसी चोरी-चकारी के मामले में घर से भागा हुआ भी हो, तो क्या पता? वरना बिना नौकरी-धंधे के कोई अपने घर से इतनी दूर आता है भला? न कोई जानकारी, न बीच में कोई जानकार।<br />
[ जारी ] </div>
Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-250151619175042420.post-941715149909220552016-04-16T21:57:00.001-07:002016-04-16T22:03:32.607-07:00सेज गगन में चाँद की [ 9 ]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
लड़का उड़ती सी नज़र वहां फैले-बिखरे सामान पर डाल कर मन ही मन कुछ तौल ही रहा था कि धरा के सुरों का बदलाव उसे प्रतीत हुआ। धरा बोल रही थी-<br />
-"क्या नाम है तुम्हारा ?"<br />
-"नीलाम्बर !"<br />
-"बहुत बड़ा नाम है।"<br />
-"घर में मुझे नील कहते हैं।" कहते-कहते लड़का संकोच से ज़रा झेंप गया।<br />
-"कौन है घर में?" धरा ने नज़र को ज़रा और गहरा, स्वर को ज़रा और मुलायम करके पूछ डाला। <br />
-"यहाँ तो कोई नहीं !"<br />
-"कोई नहीं है, मतलब?"<br />
-"यहाँ पर तो रिश्ते के एक चाचा के साथ रहता हूँ, बाकी लोग गाँव में हैं।"<br />
-"कौन सा गाँव?" धरा की जिज्ञासा बढ़ी।<br />
-"तुम नहीं जानोगी, बहुत दूर का गाँव है।"<br />
लड़के की उम्र ज़्यादा नहीं थी। लेकिन स्वर की सधाई से लगता था कि थोड़ा बहुत पढ़ा-लिखा है। लड़का भी शायद धरा के बारे में ऐसी ही कुछ धारणा बना चुका था। स्वर में और थोड़ी संजीदगी लाते हुए बोला -<br />
-"आपका नाम क्या है?"<br />
धरा को उसका 'तुम' से 'आप' पर आना कुछ-कुछ भाया भी, कुछ-कुछ नहीं भी भाया। <br />
-"धरा !" धीरे से उसने कहा।<br />
-"बहुत छोटा सा नाम है।"<br />
-"सिर्फ छोटा?" कह कर धरा अपने ही प्रश्न पर मुस्करा कर रह गयी। फिर बोली-<br />
-"हाँ , घर के लोग मुझे इसी नाम से पुकारते हैं, वैसे मेरा नाम वसुंधरा है।"<br />
-"कौन लोग हैं घर में?" लड़के की दिलचस्पी भी अब बढ़ रही थी। <br />
-"माँ और मैं, बस !"बातचीत का पटाक्षेप सा होता जान कर धरा ने एकदम से दूसरा सूत्र पकड़ा-<br />
-"गर्मी है, पानी पिलाऊँ?"<br />
लड़के ने पानी के लिए हामी भर दी। जब धरा पानी का लोटा व गिलास लिए वापस कोठरी में लौटी, तब तक दोनों ही थोड़े सहज हो चुके थे। गिलास हाथ में थाम कर लड़के ने पानी मुंह में उंडेलना शुरू किया तो धरा का ध्यान इस बात पर गया कि लड़के ने गिलास को मुंह नहीं लगाया है, फिर भी उसके पानी पीने के ढंग से उसके सलीकेदार होने का आभास हुआ। किसी सड़कछाप आम फेरीवाले जैसा फूहड़पन उसमें कहीं से भी नहीं दिखाई दिया। लड़के ने कलाई से मुंह के गीलेपन को पौंछा और धरा की ओर देखने लगा। <br />
-"यहाँ कौन रहता है?" लड़के ने अपनी जिज्ञासा धीमी आवाज़ में रखी।<br />
-"कोई नहीं, मैं और माँ ऊपर रहते हैं।" धरा ने किसी रहस्य की तरह बताया। <br />
-"फिर यहाँ ?" लड़के ने भोलेपन से एक बार फिर अपने मन की शंका रखी। <br />
-"खाली है, किराए से दे देंगे" धरा के मुंह से अकस्मात निकला।<br />
लड़का कुछ न बोला, मगर धरा को अपनी प्रत्युत्पन्नमति पर संतोष सा हुआ। वैसे एक ललचाई सी नज़र जब लड़के ने कोठरी की दीवारों पर डाली तो धरा को ये भांपते देर न लगी कि लड़का रहने के लिए ठौर-ठिकाने की तलाश में है। <br />
[ जारी ] . </div>
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धरा ने कुछ न कहा, पर तसल्ली भक्तन माँ को भी नहीं हुई। फिर भी इस बात पर से ध्यान हटा कर भक्तन अपनी संध्या-पूजा की तैयारियों में जुट गयी। एक लोटे में पानी लेकर वह पूजा के बर्तन धोने मोरी पर आ बैठी। <br />
आज केवल यही एक बात नहीं थी कि धरा ने पिछले दस बरस से बंद कोठरी खोल दी थी। बल्कि धरा में और भी बदलाव दिख रहे थे माँ को।<br />
इतने बरस बाद बिछड़े बाप की कोठरी बुहारने-झाड़ने में लाड़ली बिटिया थोड़ा बहुत तो दुःख-गम से बेज़ार होती, पर यहाँ तो बात ठीक इसके उलट थी। धरा उसे और दिनों के मुकाबले कहीं ज़्यादा प्रसन्नचित्त और हलकी-फुलकी दिखाई दे रही थी। ग़म -कष्ट का कहीं कोई चिन्ह नहीं दिखाई दे रहा था। इतनी मेहनत करके भी उसकी स्फूर्ति बाकी थी। चेहरा भी तरोताज़ा दिख रहा था।<br />
चलो, कुछ भी हो, आखिर धरा उसकी बेटी ही थी, कोई गैर तो नहीं, किसी भी बहाने से खुश थी, यही क्या कम था। भक्तन को एक अजीब सी ख़ुशी का स्वाद आया और इस स्वाद में वो अपनी सारी उधेड़-बुन बिसरा कर संध्या-पूजा के लिए बैठ गयी। <br />
अगली सुबह तक तो भक्तन-माँ सारे प्रकरण को ही भूल-बिसरा कर बैठ जाती पर ये क्या, दोपहर होते न होते उसे धरा में और भी अप्रत्याशित परिवर्तन दिखाई देने लगे।<br />
धरा ने मुद्द्त बाद चोटी-कंघी भी बेहद इत्मीनान से की। उसकी सज-संवर भी आज माँ को पचने वाली नहीं थी।<br />
खाने से निबटने के बाद भक्तन लेटने को लेट भले ही गयी, पर उसके मन-पोखर पर कोई संशय कंकरियाँ गिरा -गिरा कर लहरें उठाता ही रहा।<br />
दोपहर हुई। बेहद सुहानी दोपहर। धरा के मन की मुराद सी दोपहर। <br />
वह आया। कच्चे कटहल के दूध सी चिपचिपी जवान आवाज़ के तार-सप्तक गली के छोर से ही उसके कानों में घंटियां बजाने लगे।<br />
और आज बिना किसी चोरी-चकारी के,बिना किसी उधेड़-बुन के, पूरे अधिकार के साथ धरा ने उसे पुकारा। <br />
-"ऐ , सुनो !"<br />
वह बिजली की सी गति से बोरा दीवार से टिका कर सीढ़ियों की ओर लपका। वह ऊपर आता, इसके पहले ही धरा किसी पारंगत नर्तकी सी थिरकती हुई सीढ़ियों से नीचे आने लगी। लड़का असमंजस से देखता हुआ नीचे ही खड़ा रह गया। <br />
-"आओ ज़रा मेरे साथ।" धरा आगे-आगे चलती हुई कोठरी की ओर बढ़ी। पीछे-पीछे लड़का सर झुकाए उसके साथ चल पड़ा। दालान पार करके लड़का कोठरी तक आकर ठिठक गया।<br />
धरा तीर की भांति कोठरी के भीतर दाखिल हो गयी। धरा के इशारे से उत्साहित होकर लड़का भी देहरी पर पैर रख कर भीतर झाँकने लगा। <br />
-"देखो, ये देखो, ये भी ..." धरा ने कौने में रखे हुए फालतू सामान के ढेर को अंगुली से दिखाते हुए कहा।<br />
[जारी ] </div>
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और अब , आज धरा चली थी झाड़ू लेकर उसी कोठरी की झाड़-बुहार करने। इतने बरस बाद। <br />
क्या था आज ? क्या हो गया धरा को ? माँ से पूछा तक नहीं ? बुढ़िया भक्तन बैठी-बैठी सोचती रह गयी।<br />
नियति का चक्र ऐसे ही चलता है। प्रकृति की रीत यही है। पौधा ऐसे ही उगता है। बड़े-बड़े पेड़ गिर जाते हैं, धराशायी हो जाते हैं। उनका कोई बीज-बट्टा पोली मिट्टी के गर्भ में गिर जाता है। फिर किसी भले मौसम में हवा-पानी का आशीर्वाद लेकर वह पनप भी जाता है। फिर से शुरू हो जाती है दुनिया।<br />
आज कैसा मौसम था क्या जाने? धरा के मन-आँगन में कौन से बीज की कोर गढ़ गयी कि खुश झूमती लड़की दस बरस पहले का दुःख भूल कर नए दिन लिखने की खातिर नीचे उतर गयी। बुढ़िया सोचती रही, सोचती रही।<br />
पूरे तीन घंटे लगे धरा को। दस बरस क्या कम होते हैं? घर-बार एक दिन न बुहारो तो गर्द का साम्राज्य हो जाता है। इतने सालों में तो वहां धूल की दुनिया ही बस गयी थी। एक सिरे से धरा ने हर चीज़ को उठा-उठा कर झाड़ा। दीवारों व छत की खूब सफाई की। लपेट कर रखा गया गूदड़ा सा बिस्तर झड़कार कर बाहर डाला। झिंगली सी खटिया उठा कर बाहर रखी। खूब भर-भर कर डोलची पानी डाला। रगड़-रगड़ कर एक-एक चीज़ की सफाई की। धूल -धक्कड़ और जालों के थक्के खुरच-खुरच कर बहाए। <br />
कोठरी के आलों में रखा सामान धूल-धूसरित होकर अपना रंग भी खो चुका था और दीन भी। धरा ने एक-एक चीज़ को देखा, और जो भी ज़रा काम की दिखाई दी उसे गीले कपड़े से पौंछ-पौंछ कर सहेजा। बाकी के सामान को एक बेकार के ढेर की शक्ल में कोठरी के एक कौने में जमा कर दिया। <br />
धरा ऊपर आई तो साँझ का झुटपुटा हो आया था। थक कर चूर भी हो गयी थी। बेदम सी बैठ गयी। माँ एकदम से उसके करीब आई और चुपचाप खड़ी होकर उसके बालों में हाथ फेरने लगी। दोनों में से कोई कुछ न बोला। दोनों का मौन एक-दूसरी को कुछ न कुछ याद दिलाता रहा। <br />
-"चल अब थोड़ा आराम कर ले।" अम्मा ने कहा। <br />
-"खाना भी तो बनाना है।" कहकर लापरवाही से धरा उठी और रसोई से साग काटने का चाकू तथा चार अरबी लेकर ज़मीन पर ही आ बैठी।<br />
-"ये आज तुझे क्या सूझा बेटी ? क्या बात है जो इस तरह सफाई में जुट गयी !" माँ आखिर बोल ही पड़ी।<br />
- "सफाई क्या कोई बुरी बात है?" धरा ने संक्षिप्त सा जवाब दिया।<br />
-"बुरी बात तो नहीं है, पर आज बरसों बाद एकाएक तुझे ये ख्याल आया कैसे?"<br />
-"कभी तो आना ही था माँ" धरा ने अरबी छीलते-छीलते ही उत्तर दिया। <br />
पर भक्तन की समझ में ये पहेली आई नहीं, कुछ न कुछ बात तो ज़रूर थी जो बेटी ने इस तरह कमर कस कर इतना बड़ा काम आनन-फानन में कर डाला। माँ ने उड़ती सी निगाह उस पर डाल कर सब अनुमान-अंदाज़ खंगाल डाले।<br />
कौन सा दिन है आज? कहीं उनके जाने का दिन ही तो नहीं? नहीं, पर ये कैसे हो सकता है? वो तो गए थे उतरती सर्दियों की सुबह और अभी तो ठीक से ठण्ड का मौसम आया भी नहीं। अब भी जब-तब बूंदा-बांदी हो ही लेती थी। [ जारी ] </div>
Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-250151619175042420.post-36585504237395330572016-04-16T01:02:00.001-07:002016-04-16T01:15:14.758-07:00सेज गगन में चाँद की [ 6 ]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
उसके बाद से कभी किसी ने उसे हँसते-बोलते देखा ही नहीं। उसके शरीर पर भी जैसे कोई गाज़ गिरी, तन बदन सिमटने लगा। देखते-देखते चलते हुए हाथ पैरों ने दग़ाबाज़ी शुरू कर दी। शाम ढले जब काम पर से लौटता तो अपने को बेबस-निढाल पाता। मंदिर की ओर आँख उठा कर देख तक न पाता। ईश्वर को घेर कर खड़ी दीवारें उसे किसी पाप का खंडहर नज़र आतीं। <br />
भला ऐसे कितने दिन चलती है ज़िंदगी? अरे, कुदरत तो इंसान को पैदा करने के दिन से उससे भिड़ने लग जाती है , रोओ तो खाना मिले, चीखो तो दुलार। न कुछ मांगो तो कौन कुछ दे? धरा के बाप की जीवन-इच्छा कमज़ोर होती चली गयी। कुदरत ने भी मुंह सा फेर लिया। जब-तब बीमार पड़ा रहने लगा।<br />
वैद्य-डॉक्टरों के पास जो बूटियां-दवाएं हैं, सो सब ईमान की पुतलियाँ हैं। ईमानदारी से कहो कि जीना है,तो सिफत की तासीर है उनकी, नहीं तो जड़-तना-पत्ते और गोलियां हैं, खाये जाओ, खाये जाओ।<br />
धरा का बाप कमज़ोरी के चलते कई-कई दिन तक काम पर न जा पाता। भक्तन पर काम का बोझ बढ़ने लगा।रूपये पैसे की भी किल्लत रहने लगी। अब मंदिर का सारा प्रसाद उतनी उदारता से न बाँट पाती थी। उसी में से नन्ही धरा और बीमार पति का कलेवा भी निकालना पड़ता। <br />
इस तरह कभी श्रद्धा से प्रभु की तीमारदारी के लिए निकली हुई अबला एक व्यावसायिक पुजारन में तब्दील होने लगी।<br />
हाड़-मांस के असहाय पति और पत्थर के बेजान देवता की साज-सम्भाल व तीमारदारी ने थोड़े वक़्त में ही ज़्यादा उमरिया खर्च हो जाने की सी नौबत ला दी। धरा जल्दी बड़ी होने लगी तो भक्तन जल्दी बुढ़ाने लगी।<br />
धरा के बाप से न तो जोरू की हाड़-तोड़ मेहनत देखी जाती और न ही प्यारी बिटिया की बेबस आँखें। मगर मज़बूरी ने खटिया से चिपका ही छोड़ा।<br />
और एक दिन जब भक्तन ऊपर वाली कोठरी से उतर कर नहाना-धोना करके पति को प्रसाद देने इस नीचे वाले कमरे में पहुंची तो धरा के पिता को वहां से नदारद पाया।<br />
राम जाने कहाँ चला गया। लाख ढूंढा, न कोई खोज-खबर मिली और न कोई ठिकाना। शायद अपनी लाचारी के कहर से अपनी पत्नी और बिटिया को बचाने की गरज से सवेरे के नीम अँधेरे में अशक्त बूढ़ा सा दिखने वाला धरा का बाप कहीं मर-खपने चला गया।<br />
वह दिन था और आज का दिन, नीचे वाली कुटिया में न भक्तन ने कभी झांक कर देखा और न धरा ने। वहां ताला डाल दिया गया।<br />
उसे कभी किसी ने खोल कर न देखा। माँ-बेटी दोनों अपने को मानो इस भुलावे में रखे रहीं कि भीतर सोता होगा। आज दस बरस बीते, कहीं से कोई खोज-खबर नहीं मिली थी। आस-पास के सब गाँव छान मारे। कितने ही लड़कों और मर्दों की मदद लेकर शहर-भर में ढुँढवाया। पर वह तो ऐसा गया, मानो कभी था ही नहीं। कभी खोली न गयी उसकी कोठरी पिछले दस-बरस में कबाड़ की तरह हो गयी। हर चीज़ बहरी हवा-पानी से महरूम, उसी तरह काठ के किवाड़ों में बंद। [ जारी ] </div>
Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-250151619175042420.post-87935446502429302942016-04-15T21:20:00.000-07:002016-04-15T21:24:24.771-07:00सेज गगन में चाँद की [ 5 ]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आखेट महल परकोटे से रोज़ इतनी दूर का पैदल आना-जाना आसान काम नहीं था। लेकिन फिर भी इतनी दूर की जगह जो मालिक ने उन्हें रहने के लिए दी थी, उसमें भी मालिक ने उन लोगों का ही सुभीता देखा था। दरअसल बस्ती से दूर के इस वीराने में एक पुराना छोटा देवरा था, जिस पर दीवारें और छत डलवा कर मालिक रावसाहब ने एक छोटा मंदिर बनवा दिया था। इस मंदिर की देख-रेख और साफ-सफ़ाई का काम धरा के पिता को मिला था। इसीलिये मंदिर के नज़दीक की ये जगह और ये छोटी सी कुटिया उन लोगों की हो गयी थी। बीस बरस पहले किसे पता था कि शहरों की बस्तियां गाँवों और जंगलों का खून पी-पीकर ऐसी पनपेंगी कि उन्हें निगल ही लेंगी। <br />
यही तो दुनिया का दस्तूर है। बच्चा जन्मते ही कोई नहीं कहता कि ये मर जाये। लेकिन ये सब चाहते हैं कि जल्दी से आँगन में खेले, जल्दी से बड़ा होकर पढ़ने जाये। जल्दी से धंधे -पानी से लगे। जल्दी से दुल्हन लाए। जल्दी से बाल-बच्चों वाला हो। फिर सब कहते हैं कि हम पोते-पड़पोते देखें। अब दादा-नाना बनते-बनते बचपन और जवानी तो टिकने नहीं, बुढ़ापा आएगा ही। फिर सब कहते हैं कि बुढ़ापे से तो मौत भली !<br />
इस तरह निकल जाते हैं बरसों-बरस। और इसीलिए शहर की इस बस्ती ने खेड़े को खाने में ले लिए बीस बरस। बाद में धरा का बाप जब जी-तोड़ मेहनत करके चार पैसे कमा लाया तो ऊपर की ये दो कोठरियां और पक्का चौबारा बने।<br />
धरा हुई। बिटिया को पलकों पे रखता था हरदम। इसीलिए तो कुछ सुन नहीं सका।जब नज़दीक के घर की एक बुढ़िया ने चार आदमियों के सामने कह दिया कि मालिक ने मंदिर और कुटिया धरा के बाप को नहीं बल्कि धरा की माँ को दिया है, तो हत्थे से ही उखड़ गया, बिफ़र पड़ा एकदम।<br />
जाकर बुढ़िया का गला ही दबोच डाला। वो तो कहो, बुढ़िया जान से नहीं गयी, केवल बेहोश होकर ही रह गयी वर्ना कौन कहता उस दिन से धरा की माँ को भक्तन? सब हत्यारे की जोरू ही कहते। <br />
सब 'भक्तन' इसीलिये तो कहते थे कि धरा का बाप तो जाता था परकोटे पर काम करने और धरा की माँ संभालती थी मंदिर का कामकाज। साफ-सफाई, सज-संवर, पूजा-अर्चना भक्तन के जिम्मे रहती। छोटी सी धरा भी जब-तब माँ का हाथ बंटाने मंदिर में साथ जाती। <br />
सवेरे चार बजे उठ कर पास के कुंए पर नहाना-धोना करना और फिर मंदिर की सीढ़ियों पर माथा टेक कर झाड़ -बुहार में जुट जाना। सुबह सवेरे नहा-धोकर जब इक्का-दुक्का लोग मंदिर में आना शुरू होते, तब तक धरा की माँ सारा काम निपटा कर वापस घर का रुख कर चुकी होती। दिन निकलते-निकलते धरा का बाप भी कुंए पर नहा-निपट कर कलेवा करने आ बैठता और बस, शुरू हो जाता दिन। <br />
लेकिन जिस दिन से पड़ौस की बुढ़िया ने वह बात कही,धरा के बापू को न जाने क्या हो गया। <br />
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Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-250151619175042420.post-89136278126193856452016-04-15T03:38:00.000-07:002016-04-15T03:38:55.451-07:00सेज गगन में चाँद की [ 4 ]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
धरा खिलखिला कर हंस पड़ी। लड़के ने बेहद संकोच से चोली धरा को पकड़ाई। धरा को ये देखना सुहा रहा था कि ज़मीन केवल उसकी ही डाँवाडोल नहीं हो रही है। <br />
-"तुम क्या लाते हो?" धरा ने पूछा।<br />
-"मैं ? .... मैं क्या लाऊँगा ....मैं तो लेने आता हूँ।" लड़के ने मुंडेर पर रखे अपने हाथ का इशारा नीचे पड़े अपने बोरे की ओर किया और बोला -"बेकार का सामान, टूटी-फूटी चीज़ें,पुराने जूते,कपड़े, कबाड़ ..."<br />
अब न तो लड़के को समझ में आया कि और किस बहाने छत पर खड़ा रहे, न धरा ही समझ पाई कि कैसे उसे रोके? लड़का पलटा, और धीमी चाल से सीढ़ियाँ उतरने लगा। <br />
भक्तन माँ ने चाय की टेर लगाई तो धरा जैसे नींद से जागी।<br />
अम्मा को चाय देने के बाद धरा में अजब सी फुर्ती दिखाई दी। अम्मा भी आश्चर्य से देखने लगी, क्यों लड़की कमर में फेंटा बांध कर मुस्तैद हो रही है। जब चाय पीकर अम्मा ने खाली गिलास ज़मीन पर रखा तो उनकी बूढ़ी आँखों की जिज्ञासा भी खाली हो चुकी थी। <br />
धरा ने पल्ला कमर में खोंस कर हाथ में झाड़ू उठा ली थी और धीरे से ये कहती हुई नीचे सीढ़ियां उतर गयी कि नीचे वाली कोठरी की सफाई करेगी।<br />
-"अरी ये आज इतने दिनों बाद ... वो भी तीसरे पहर को तुझे क्या सूझी? कल सुबह कर लेना।" अम्मा कहती ही रह गईं, धरा नीचे जा चुकी थी।<br />
कोठरी की सफाई, इस ख्याल से ही अम्मा का जी न जाने कैसा-कैसा हो आया। क्या-क्या तो नहीं घूम गया आँखों के सामने।<br />
आज से बीस बरस पहले इस पूरी बस्ती में ये नीचे वाली छोटी सी कोठरी ही तो थी अकेली, जब पहली बार भक्तन माँ यहाँ आई थी। कैसा शांत वीराना सा पड़ा था चारों ओर। ईंटों से जैसे तैसे खड़ी की गयी एक कुटिया, उसके किनारे फूस -टप्पर की छाँव से बनी छोटी सी रसोई,काँटों की बाढ़ लगा घास-पात से घिरा चौबारा और बस ! और ?<br />
और वो, .... धरा का बाप !<br />
भरे बदन का हंसमुख, मेहनती, ईमानदार आदमी। <br />
यहाँ से चार मील की दूरी पर था आखेटमहल का परकोटा, जहाँ काम पर लगा था वह। ये जगह उसे मालिकों की ओर से ही रहने को दी गयी थी। धरा के बाप के मन में ये जोत जलती रहती थी कि एक दिन इस जगह का दाम चुका कर इसका मालिकाना हक़ पाएंगे। हालाँकि मालिक ने कभी इस बात का इशारा तक न किया था कि ये जगह उनकी नहीं, बल्कि मालिक की है। पर एक दिन धरा के बाप को ये मिल्कियत पराई लगने लगी। <br />
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