Saturday, December 24, 2011

दो शब्द

दो शब्द कहने की परंपरा बहुत पुरानी है. मराठी भाषा में इन्हें चार शब्दों के रूप में कहा जाता है. मज़े की बात यह है कि "दो शब्द" के नाम पर अक्सर जो कुछ कहा जाता है, वह बहुत लम्बा-चौड़ा होता है. प्राय दो शब्द किसी 'मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि या विशिष्ट वक्ता' से कहलवाए जाते हैं, अतः उन्हें रोकने-टोकने की न तो कोई प्रथा होती है और न ही ज़रुरत. क्योंकि दो शब्द कहने सुनने वाले जानते हैं, कि जो कुछ कहा जायेगा, सुना जायेगा. सुना न भी जाये,  कम से कम सहा तो  जायेगा.
हाथ कंगन को आरसी क्या?
ये देखिये, मैं ही आपसे कितना और क्या-क्या कह गया. और ये कोई दो या चार शब्दों की बात नहीं है, बल्कि चार सौ बार की बात है.
अपनी इस ४०० वी पोस्ट में आपको क्रिसमस की बधाई दे रहा हूँ. और शुभकामनायें  दे रहा हूँ आने वाले नए साल २०१२ की.
साथ ही मैं अपने सभी मित्रों, शुभ-चिंतकों और पाठकों से यह भी निवेदन करना चाहता हूँ कि अब मैं नए वर्ष में ही पुनः हाज़िर हो सकूँगा. 

Thursday, December 22, 2011

पथिक तुम भूमि पर बैठो, निहारो दूर से महलों की शोभा,

वैसे तो दिल्ली पूरी ही आलीशान है,पर कुछ इमारतें तो यकीनन भव्य हैं. राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, लालकिला...ये फेहरिस्त आसानी से पूरी नहीं होगी.
एक समय था कि कर्नाटक के विधानसभा भवन को बंगलुरु के दर्शनीय स्थलों में अहम स्थान प्राप्त था. आज भी है.
जब महाराष्ट्र विधानसभा भवन बन कर तैयार हुआ तो तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने इसका उदघाटन करते हुए कहा था कि इस आलीशान भवन में , भविष्य में न जाने कितने अहम फैसले लिए जायेंगे.
मध्य प्रदेश का विधानसभा भवन पहाड़ की चोटी  पर जब खड़ा हुआ तो लोग भूल गए कि इस राज्य को कभी पिछड़ा कहा जाता था.
राजस्थान के विधानसभा भवन ने रजवाड़ों की महलिया शान को जीवंत कर दिया.
लगभग हर प्रदेश में अरबों की लागत से विधायकों के लिए  तिलिस्मी इमारतों का निर्माण हुआ.
जनता ने इन्हीं को देख कर अरबों की गिनती सीखी.
लेकिन कहते हैं कि समंदर का सारा जल मिल कर भी कभी एक सीप की प्यास नहीं बुझा पाता.
देश के लिए एक कानून बनवाना है. लेकिन इनमें से कोई इमारत शायद काम न आये. देशवासियों को नीली छतरी तले आज़ाद मैदान में ही बैठना पड़े.  
     

Wednesday, December 21, 2011

हमारी और हमारे ग्रंथों की महानता याद दिला दी रशिया ने...'थैंक्स' रशिया के लिए

हम एक हो गए. हमें अहसास हो गया कि "गीता" वास्तव में महान ग्रन्थ है.यह मांग बिलकुल जायज़ है कि इसे "राष्ट्रीय ग्रन्थ" घोषित किया जाय.हमारे मस्तिष्कों की पुनश्चर्या हो गई कि हम अपने राष्ट्रीय चिन्हों की गरिमा के प्रति सचेत हों.
अब लगे हाथों हमें रशिया को यह भी बता देना चाहिए, कि हम गीता को किस कार्य में लेते हैं. हमारी अदालतों में गवाह के तौर पर आने वाले हर  शख्स को 'गीता' पर हाथ रख कर यह कसम खानी पड़ती है कि वह जो कुछ कहेगा, सच कहेगा. वह फिर क्या कहता है, यह हमारी चर्चा का विषय नहीं है.
हमारी अदालतों की गवाहियों में सत्य कितना प्रतिशत होता है, यह अलग से किसी शोधार्थी का विषय है.
फ़िलहाल हमारे पास एक नया मुद्दा तो आ ही गया है. हमारे पास वैसे भी मुद्दों का अकाल रहता है.
रशिया ने आज तो गीता पर टिप्पणी की है, कल वह हमारे गवाहों के बयानों पर टिप्पणी करेगा, परसों हो सकता है कि वह हमारी अदालतों में लंबित मुक़दमे भी गिनने लगे. धीरे-धीरे उसकी रूचि हमारे मामलों में बोलने की हुई तो वह हमारी और भी किताबें पढ़ने लगेगा.
वैसे भारतीय साहित्य का रुसी अनुवाद तो बहुत पहले से होने लगा था? गीता का नंबर अब आया है, या गीता पढ़ी अब गई है? बहरहाल, रशिया में पढ़ तो ली गई.         

Tuesday, December 20, 2011

बीज

बीज की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह वैसा ही फल फिर उगा सकता है, जैसे फल से वह बीज खुद निकला है.
रशिया ने 'गीता' पर प्रतिबन्ध लगा दिया. स्वाभाविक है कि भारत में बवाल मच रहा है.
रशिया ने प्रतिबन्ध क्यों लगाया, इस पर भारत के पास कहने के लिए कुछ विशेष नहीं है. यदि गीता को एक धार्मिक ग्रन्थ भी मान लिया जाय, तब भी रशिया के संविधान में यह नहीं लिखा कि वहां सभी धार्मिक ग्रंथों का सम्मान किया जायेगा.किसी एक देश की आस्था जिस विचार में हो वह विचार  सब जगह सर्वमान्य नहीं माना जा सकता.
यदि तार्किकता के द्रष्टिकोण से देखें, तो पश्चिम सहित अन्यान्य देशों में 'रिज़ल्ट-ओरिएंटेड' समाज है. कर्म करो, और फल की चिंता मत करो, यह बात वहां किसी को समझाना आसान नहीं है.किसी एक विचार-द्रष्टि या लक्ष्य के लिए अपने-पराये सब को मार देने के आह्वान का भी अंध-समर्थन नहीं किया जा सकता.
गीता जिस घटना का प्रतिक्रियात्मक उत्पाद है, उस महाभारत में भी तो कोई महात्म्य नहीं छिपा. फिर भी कोहराम मच रहा है तो शायद इसलिए, कि गीता का बीज महाभारत से है. इसे 'कट्टरपंथी साहित्य' कहने का तो शायद कोई औचित्य नहीं है. बात केवल जन-भावनाओं के सम्मान की हो सकती है, लेकिन उसके लिए किसी को बाध्य तो नहीं किया जा सकता.     

Monday, December 19, 2011

मानव अधिकार "मानव" पर लागू हैं

आज एक विद्यार्थी ने मुझसे एक ऐसा सवाल पूछा, जिसका उत्तर उसे दे देने के बावजूद मैं अपने से संतुष्ट नहीं हूँ.
उसने मुझसे पूछा कि कुछ धन के लिए एक वृद्धा के पैर काट कर उसके चांदी के कड़े निकाल कर  उसे जान से मार देने वाला एक शख्स अब जेल में है, यहाँ उसकी सुख-सुविधा, आज़ादी, चिकित्सा सुविधा, खाने-पहनने की सुविधा तथा मनोरंजन को लेकर उसके मानव अधिकार क्या-क्या हैं?
प्रश्न अपने आप में मानवता के माथे का कलंक सरीखा है. वृद्धा अब परलोक में है, उसे इस धरती के किसी न्याय-अन्याय से अब कोई सरोकार नहीं है.वृद्धा का परिवार और उसके वंशज अब भी इसी दुनिया में हैं, उनके मानस पर जो न मिटने वाले ज़ख्म हैं, उनपर वही 'क्रूरता' थोड़ा बहुत मरहम लगा सकती है, जो कातिल को न्याय के मंदिर में दी जाएगी.
क्या ऐसे में पीड़ित के परिवार को "बदले की भावना मत रखो", "जो हुआ उसे भूल जाओ, भगवान की यही मर्जी थी", "क्षमाशील बनो", आदि-आदि कह कर हम अब जेल में उस अपराधी को 'पर्याप्त भोजन, दवाइयां, वस्त्र, मनोरंजन' आदि का हक़ देकर उसके 'मानव अधिकारों' के प्रति सचेष्ट हो जाएँ?
मैंने उस किशोर विद्यार्थी से कहा- उस अपराधी ने उस वृद्धा के साथ जो कुछ किया, वह उन क्षणों में किया, जब परिस्थिति-वश वह "कुछ देर के लिए मानव न रहा". उसके मस्तिष्क का एक क्रूर पशु के रूप में रूपांतरण हो गया. ऐसे में उसके पशुत्व को पुनः मानवता में बदला जाना कानून की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, ताकि भविष्य में और मनुष्य उसकी पशुता के शिकार न बनें . इस प्रक्रिया में उसके इन्सान के रूप में सारे अधिकार उसे दिए जाने चाहिए.साथ ही उसके द्वारा हानि पहुंचाए गए परिवार के कष्टों को मुआवजा, सहानुभूति,न्याय, नौकरी, अन्य-सुविधाएँ आदि देकर सामाजिक व राष्ट्रीय क्षमा उस परिवार से मांगी जाय.
क्या मैंने उस बच्चे से ठीक कह दिया?        

Sunday, December 18, 2011

क्या कुश्ती तीन पहलवानों के बीच भी हो सकती है?

एक साथ तीन पहलवानों के बीच मल्ल-युद्ध की आशंका अब कोई अनहोनी नहीं है. क्योंकि अब ऐसा हो रहा है. ये तीन पहलवान कौन-कौन हैं, आप जानते हैं?
ये पहलवान हैं- गुणवत्ता, संख्या और वर्चस्व.
 वैसे ये पहलवान तो दिखाई देने वाले नहीं हैं? फिर इनकी लड़ाई का आनंद कैसे आएगा?
लेकिन आनंद आ रहा है.
आनंद इसलिए आ रहा है, क्योंकि ये पहलवान दिखाई देने वाला चोला पहन के जंग कर रहे हैं. इनके दिखाई देने वाले नाम हैं- अमेरिका, हांगकांग और जापान.
और लड़ाई का मैदान है तकनीकी बाज़ार. फ़िलहाल ताज़ा स्कोर इस प्रकार हैं- नंबर तीन पर चल रहा है जापान, नंबर दो पर अमेरिका है और पहले नंबर पर हांगकांग को 'माना' जा रहा है.माना जा रहा है, इसलिए कहा गया है, क्योंकि फ़िलहाल विजेता अंकों के आधार पर ही बढ़त पर है, उसने 'रनर्स-अप' को चित्त नहीं किया है.
अब बाज़ार में आप 'अंकों' को कितने अंक देते हैं, ये आप पर निर्भर है.
ये ठीक है कि जो जीता वही सिकंदर,लेकिन जो जीतता दिखे उसे अभी सिकंदर नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मामला अभी "अंकों" पर ही है. किसी सांख्यिकी-विद से पूछिए, अंक तो कुछ भी निष्कर्ष निकाल सकते हैं.भारत में तो ऐसे अनेकों उदाहरण भरे पड़े हैं. यहाँ तो महंगाई "घट" रही है.संपदा बढ़ रही है, लोग गरीब हो रहे हैं.
अब एक सवाल आपके लिए- क्या आप बता सकते हैं कि गुणवत्ता, संख्या और वर्चस्व में से कौन, किस खिलाड़ी के चोले में है? उदाहरण के लिए- दर्शक के चोले में तो भारत है.  

Saturday, December 17, 2011

सूडान और उत्तर प्रदेश की प्रसव पीड़ा का साल

जब २०११ शुरू हुआ था तो अफ्रीका के सबसे बड़े देश सूडान ने सबका ध्यान खींचा था. इस बात पर जनता की रायशुमारी की जा रही थी कि क्या सूडान से दक्षिणी सूडान को अलग करके, एक अलग देश का दर्ज़ा दे दिया जाय.चाहे जन्म न हो, पर ऐसी ही प्रसवपीड़ा भारत का उत्तर प्रदेश राज्य भी झेल रहा है.
उत्तर प्रदेश में तो शीघ्र ही चुनाव भी होने वाले हैं. इन चुनावों में सबसे ज्यादा खींच-तान चार दलों के बीच ही है. सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और कॉन्ग्रेस.चारों का उत्साह और दम-ख़म देख कर ऐसा लग रहा है कि कहीं चारों ही प्रदेश के चार टुकड़े करके, एक-एक टुकड़ा न ले उड़ें.वैसे यह स्थिति काल्पनिक ही है, पर यदि ऐसा हो जाये तो ये चार राज्य चार देशों जैसे ही हो जायेंगे.
कोई खिलौना अपनी इच्छा से तो टूटना नहीं चाहता. खेलने वाले बच्चे ही उसे तोड़ देते हैं.
इन चुनावों में मुद्दे भी चार ही हैं- विदेशों में जमा काला धन,नोट से वोट, गाँव-गाँव की पद-यात्रायें और भ्रष्टाचार.
संसद ने चार दिन में कुछ नहीं किया तो जैसे क्रिसमस में सांताक्लॉज़ घर-घर  पहुंचेंगे वैसे ही चुनावों में  अन्ना हजारे भी.यह डर सभी को साल रहा है-
          खादी  लपेट-लपेट के  घूमत, वोटन के लिए  नेता  बेचारे
          रोटी भी छोड़ के, बोटी भी छोड़ के, पैदल डोल रहे मारे-मारे
          लूट  के  ढेर के ढेर यहाँ से, धरे  परदेस  में  नोट  करारे
          भ्रष्टाचार की  तान  उठाके, ये  आये  कहाँ  से  अन्ना हजारे?     

Friday, December 16, 2011

रशिया यात्रा में मंत्र देने या मंत्र लेने की संभावनाएं

जब दो बड़े नेता मिलते हैं तो दुनिया उत्सुकता से देखती है. लोगों में यह सामान्य जिज्ञासा होती है कि क्या बातें कीं. ऐसे देशों के कान पहले खड़े होते हैं जो दोनों से सम्बन्ध रखते हैं. जो दोनों से, या किसी एक से भी दुश्मनी रखते हैं, उनकी तो नींद थोड़ी देर के लिए उड़ ही जाती है.
पर मास्को में मनमोहन को देख कर ऐसा कहीं कुछ नहीं होगा.
फिलहाल पुतिन की भी स्टार इमेज नहीं है. अलबत्ता दोनों में एक समानता ज़रूर है कि दोनों से ही उनके देश की जनता अघाई हुई है. एक जगह समस्या यह है कि ये सब क्या हो रहा है, तो दूसरी जगह परेशानी यह है कि कुछ होता क्यों नहीं?
रशिया की स्थिति अभी यह है कि एक रास्ता छोड़ तो दिया गया है, पर दूसरा अभी पकड़ा नहीं गया. बल्कि कुछ लोग तो इस बात के भी पक्षधर हैं, कि देश अपनी पुरानी सोच पर ही लौटे.खैर, वह एक सम्पन्न और समर्थ देश है, कुछ देर रुक कर सोचने से उसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है.
यदि हम बात भारत की करें, तो कहा जा सकता है कि हमारी जन्मकुंडली के ग्रह हमारी चाल भी तय करते हैं, और हमारा गंतव्य भी. हाँ, हमारी जन्मकुंडली हम खुद तय करते हैं. उसकी भी एक निश्चित मियाद है. उसमें अभी समय शेष है.
रशिया से कुछ माल हमारे प्रधानमंत्री बंद गठरी में ला सकते  हैं तो कुछ खुले-आम भी. बस देखना यह है कि उड़ती चिड़िया के पर गिनना चीन को आता है या नहीं.  

Thursday, December 15, 2011

सेवक महान या पालक

हम १९४७ से पहले सेवक थे. १९४७ में आम आदमी को राजा और शासकों को लोक-सेवक कहने वाला लोकतंत्र आया. धीरे-धीरे लोक-सेवकों की 'सेवा' से देश त्रस्त होने लगा.आखिर सेवक शब्द से हमारा मोह-भंग हो गया. हमें लगने लगा कि यह शब्द हमारा कुछ नहीं बना सकता, हमें कुछ नया चाहिए.
कुछ समय बाद हमें नया शब्द 'पाल' मिल गया. यह काफी निरापद था. इस से किसी का कुछ बिगड़ने की कोई आशंका नहीं थी. यह शब्द गौमाता जैसा सीधा-सादा था.राज्यपाल से कहीं, कभी, किसी को कोई खतरा नहीं हुआ, यह सेवा-निवृत्ति के बाद भी सम्मान-स्वरुप  सरकारी वेतन पाने वाला पद था. द्वारपाल तो बेचारा दरवाज़े के बाहर ही रहता है, वह किसी का क्या बिगाड़ सकता है.
कुछ गहराई से अन्वेषण करने वालों ने पाया कि यदि लोक-सेवक का लोक, और राज्यपाल का पाल लेकर एक नया 'गाइड' पहरे पर बैठाया जाय तो शायद कोई बात बने.
लेकिन तभी सरकार को महसूस हुआ कि सबको 'बनाने' का कार्य तो सरकार का है, कोई और किसी को कैसे बना सकता है? बस, सरकार ने आव देखा न ताव, यह ठान लिया कि चाहे कुछ हो जाय, लोकपाल जैसा कुछ नहीं बनाना. बनाना भी पड़ा, तो ऐसा ढीला-ढाला, कि वह भी सबका मौसेरा भाई ही हो.
कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि ग्वाला भैंस के आगे बीन बजाने में इतना तल्लीन हो जाता है, कि चोर कब भैंस खोल ले गए, यह उसे पता ही नहीं चल पाता.
कहीं ऐसा न हो कि सरकार अन्ना के चारों ओर चक्कर काटने में ही रमी रहे और उधर 'विकीलीक्स' सरकार के अंकल-लोगों की पासबुक जनता को दिखाने लग जाये? ये वाली नहीं, "वो" वाली.        

Wednesday, December 14, 2011

काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सौं छीन के लै गयौ रोटी

हमारे यहाँ काले रंग और काली करतूतों को अच्छा नहीं माना जाता.इसीलिए काग यानी कौवे को भी कोई बड़े आदर से नहीं देखा जाता. लेकिन दूसरी तरफ आज के ज़माने में काली करतूतें ज़रूरी सी हो गई हैं. यदि कोई नेता काली करतूतें न करे तो प्रेस उस पर तवज्जो देती ही नहीं. और यदि किसी नेता पर प्रेस तवज्जो न दे, तो उसका क्या हश्र होगा, यह आसानी से समझा जा सकता है. नेता का जन्म ही प्रेस के तवज्जो देने से होता है. एक आम आदमी पर भी प्रेस तवज्जो देने लगे तो उसे नेता बनते देर नहीं लगती.
अन्ना हजारे ने अन्न-त्याग का रास्ता जब से दिखाया है हमारा युवा वर्ग गाँधी के इस हथियार को प्रत्यक्ष रूप से जानने लगा है. देश भर में जगह-जगह लोग रोटी छोड़ने को तैयार हैं. अन्ना की बात न सुनी गई तो देश में सृष्टि  के इस प्रथम नियम 'भोजन' की महिमा पर ज़रूर आंच आ कर रहेगी.
लोगों की इस रोटी पर अब भ्रष्टाचार  रुपी काग की नज़र है.देखना  यह है कि इस कौवे का पेट कितना बड़ा है.सिर्फ पेट ही नहीं इसकी चोंच  का दम भी तो देखना है, क्योंकि इसे रोटी जिससे छीनने की धुन सवार हुई है, वो कोई एक-दो-तीन लोगों की जमात नहीं, बल्कि देश भर की आम जनता है.     

Monday, December 12, 2011

अभी तो थानेदार के लिए हल्ला है, चोरों को कब ढूढेंगे?

 ये जो सड़कों पे शोर है, ये तो "थानेदार" को लाने का है. थानेदार लाओ...थानेदार लाओ... अच्छा और मज़बूत थानेदार लाओ...ईमानदार थानेदार लाओ... सरकारी नहीं, सरोकारी थानेदार लाओ.
पहले तो थानेदार आएगा, फिर कानून बनाएगा, घुड़की देगा, ललकारेगा, और तब कहीं जाकर चोरों पर बुरी नज़र डालेगा. और उसके बाद जाकर चोर पकड़ में आयेंगे.
लेकिन तब तक? तब तक तो काफी देर हो चुकी होगी. चोरों के पेट में माल पच चुका होगा.हीरे-जवाहरात  को चोर  तितर-बितर कर चुके होंगे. नोटों को विदेशी बैंकों में पहुंचा चुके होंगे.
खैर, अभी न सही, कभी न कभी तो थानेदार की भर्ती होगी?
लेकिन दुःख इस बात का है कि थानेदार की भर्ती इतनी आसानी से नहीं होगी. उसके लिए चौहत्तर  साल के अन्ना हजारे को लाखों निर्दोष- बेगुनाहों को लेकर जेलें भरनी होंगी.
इस देश में कंस-वध की भूमिका जेल भरने से ही क्यों शुरू होती है?
रावण को  मारने के लिए अशोकवाटिका में सीता को  ही क्यों कैद में जाना पड़ता  है?
क्या सही कानून बनाने के लिए किसी बोधि-वृक्ष के नीचे बैठे सिद्धार्थ को ज्ञान नहीं हो सकता?    

Saturday, December 10, 2011

इंसान में क्या घट जाता है, क्या बढ़ जाता है, यह मापना कठिन है

कल एक कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला, जहाँ 'मानव अधिकार दिवस' से सम्बंधित कार्यक्रम का श्रीगणेश राज्य के मुख्यमंत्री कर रहे थे.
वहीँ मेरे एक मित्र से भी मिलना हुआ जो पहले कभी राज्य के पुलिस महानिरीक्षक रह चुके हैं, और अब मानव अधिकार आयोग के सदस्य हैं.हमने काफी देर तक मानव अधिकार पर चर्चा की.
वहीँ मेरे एक और मित्र ने मुझसे कहा कि मैं अपने उन  मित्र को, जो मानव अधिकार आयोग के सदस्य हैं,  उनके एक कार्यक्रम में आने के लिए कहूँ जो शीध्र ही आयोजित होने जा रहा है.
मैंने उन दोनों का परिचय करवा कर उनकी ओर से निवेदन कर दिया.
कार्यक्रम के आयोजक मित्र ने उनसे पूछा कि उन्हें लेने के लिए कार कब और कहाँ भेजी जाय? मुख्य अतिथि के तौर पर उन्हें बुलाया जा रहा था. उन्होंने विनम्रता से कहा- उन्हें लेने के लिए कार भेजने की कोई ज़रुरत नहीं है, केवल किसी एक आदमी को भेज दिया जाय जो उन्हें समारोह-स्थल तक का रास्ता बता दे.
उनका वार्तालाप चल रहा था, और मैं सोच रहा था कि जब वे राज्य के पुलिस महानिरीक्षक थे, तब उनके आने पर क्षेत्र के आई.जी., एस.पी. और अन्य अधिकारियों की गाड़ियों का काफिला तो साथ चलता ही था, ढेरों पुलिस कर्मियों की फौज भी उपलब्ध होती थी.
  

मीडिया, चिकित्सा, शिक्षा क्या केवल बिजनस हो सकते हैं.

हाँ.
कैसे?
जैसे हो गए.
पत्रकारिता, शिक्षा या चिकित्सा जैसी सेवाओं या सुविधाओं के बारे में हम लगातार यह कहते रहे हैं कि यह क्षेत्र व्यापार के दायरे में नहीं आते.इन क्षेत्रों में नैतिकता जुड़ी है और नैतिकता का व्यापार नहीं होता. लेकिन हम कुछ भी कहते रहें, ये तो धड़ल्ले से व्यापार की श्रेणी में आ गए.
पत्रकारिता का  अभीष्ट है कि समाज का अहित रोकने के लिए जोखिम उठाये जाएँ.लेकिन अब समाज-कंटकों के हित में निर्दोषों को ज़ख्म दिए जा रहे हैं, और मीडिया में ऐसी कारगुजारी की ख़बरें मनचाहे ढंग से छपवाई जा रही हैं. मीडिया मैनेज करने की घटनाएँ मीडिया को ठेंगा दिखाने से लेकर अब मीडिया की सौदेबाज़ी तक आ पहुंची हैं.एक नया सीन आजकल और देखा जा सकता है. बड़े से बड़ा अखबार दूसरों की भर्त्सना जिस बात के लिए आराम से करता है, वही खुद करता हुआ खुले-आम पाया जा रहा है. यानी वही, कि जो करना है, करो और दूसरों को उपदेश भी झाड़ते रहो.
शिक्षा यानी- किसी को कुछ सिखाने की नैतिकता नहीं, बल्कि जितने पैसे उतनी बड़ी डिग्री.
और चिकित्सा. वह प्रणाली जिस से मरीज़ की जेब स्कैन करके कतरा-कतरा ख़ाली की जाय.रोग भगाने की कोई गारंटी नहीं.
कोई है?
ज़रा बताना, इस बात को पॉजिटिव टोन में कैसे लिखें?        

Friday, December 9, 2011

मानव अधिकार? मानव कर्तव्य कहाँ हैं?

कल  मानव अधिकार दिवस है.मानव अपने अधिकार मांगने का जश्न मनायेगा.
लेकिन सबसे बड़ी बाधा यह है कि मानव को अपने अधिकार "मानव" से ही मांगने हैं.
दरअसल मानव को डिज़ाइन करते समय ब्रह्माजी से एक भूल हो गई. उन्होंने सबको सब अंगों में बराबर बना कर केवल 'दिमाग' में अलग-अलग कर दिया. दो आँखें, दो कान, एक नाक, दो पैर, दो हाथ, एक गर्दन, एक मुंह, एक सर तो दे दिया पर खोपड़ी के भीतरी नक़्शे में 'एक सड़क सत्तावन गलियां' [कमलेश्वर का उपन्यास है] बनादी.अब हर  इन्सान अपनी-अपनी चाल चलता है.बात यहाँ तक पहुँच गई कि मानव को मानव से अपना अधिकार मांगने की नौबत आ गई.
मानव ही घास, मानव ही घोड़ा, मानव ही चिड़िया, मानव ही बाज़... इसलिए और कोई चारा नहीं है- मानव अधिकार दिवस मुबारक.    

Thursday, December 8, 2011

लतीफा,साहित्य और सिब्बल...आप सिविलियन हैं या सिब्बलियन ?

एक बड़ा पुराना लतीफा है, लेकिन अभी उस के दिन लदे नहीं हैं-सुन लीजिये .एक आदमी ने बैठे-बैठे सोचा कि लोग बारह बजते ही मेरा मजाक उड़ाने लगते हैं,क्या ही अच्छा हो कि मैं आज बारह बजने ही न दूं.
आदमी ने कमर कसी, और शहर के घंटाघर पर चढ़ कर घड़ी के कांटे पर लटक गया.
यह तो पता नहीं, कि उस दिन शहर में बारह बजे या नहीं, लेकिन आदमी के हौसले की सबने खूब तारीफ की.
हिंदी में कहावतों का भंडार है- जितने मुंह उतनी बात, किस-किस का मुंह पकड़ा जाय,लेकिन जिस तरह हिंदी में कहावतें बहुत हैं, उसी तरह हिंद में हौसले वाले भी बहुत हैं. ज़माने भर का मुंह पकड़ना तो इनके बाएं हाथ का खेल है.
कपिल सिब्बल चाहते हैं कि दुनिया सख्त अनुशासन में रहे. दुनिया के सात अरब लोग, उन्हें जो कुछ बोलना हो, पहले सिब्बल जी के कान में बोलें,और जब सिब्बल जी  उनके वचनों को पास कर दें, तब वे किसी और से बोलें.
भला बताइए, ध्वनि -प्रदूषण का उन  से बड़ा दुश्मन कोई और होगा? सोचिये, कितना मज़ा आएगा- चारों ओर मीठे ही मीठे वचन होंगे.
तो यह नया  सिद्धांत आपको कैसा लगा?
आप क्या बनना चाहेंगे? सिविलियन या सिब्बलियन?  
   

Wednesday, December 7, 2011

कपिल सिब्बल, गिरिजा व्यास, प्रणब मुखर्जी और अन्ना हजारे

क्या आपको इन नामों में कोई समानता नज़र आ रही है?
नहीं आ रही?
चलिए, एक 'क्लू' के बाद शायद आप बता पायें. क्लू यह है कि समानता केवल आज-आज है, कल का कोई भरोसा नहीं, हो सकता है कि कल ये सब फिर आपको अलग-अलग दिखाई दें.
समानता यह है कि ये सभी आज के न्यूज़ मेकर हैं.
आपको लगेगा, कि यह कौन सी खास बात है? ये बड़े-बड़े लोग हैं, न्यूज़ तो रोज़ ही बनाते हैं.
लेकिन खास बात यह है, कि इन सभी ने आज जो समाचार बनाया है, वह महात्मा गाँधी, भगवान महावीर, गौतम बुद्ध या मदर  टेरेसा की शैली में, बेहद शांति, अहिंसा, त्याग, सहिष्णुता और समर्पण सहित बनाया है. आइये, अब इनके 'बनाये'समाचारों को देखें-
बेहद सादगी और सत्यता से अन्ना हजारे ने स्वीकार किया है कि शरद पवार के "एक ही", उनके दिल की आवाज़ थी. बाद में जो कुछ उन्होंने कहा, वह दुनियादारी और शिष्टाचार का तकाजा था.
गिरिजा व्यास आज ख़बरों में हैं तो इसलिए कि उठाईगीरे केवल भारत में नहीं हैं, बल्कि विश्व के संपन्न और विकसित देशों में भी हैं, कुल मिला कर छीना-झपटी एक "मानव अधिकार" है, गिरिजा जी ने यह बात विश्व मानव अधिकार दिवस के चंद दिनों पहले सिद्ध की, वे जर्मनी के बर्लिन गईं थीं.
हिंदी में 'उगल कर निगल लेना' कोई पॉपुलर मुहावरा नहीं हैं, लेकिन यदि पॉपुलर मुहावरे में बात की जाएगी तो प्रणव दा के साथ-साथ सरकार और संसद की भी किरकिरी होगी, लिहाज़ा आज के न्यूज़-मेकर प्रणव मुखर्जी को सुषमा स्वराज की बधाई.
अब बचे कपिल सिब्बल.आज एक बड़ी खबर उनके नाम से भी है.
एक बार एक आदमी बीच चौराहे पर बैठा, एक के बाद एक शीशे फोड़ रहा था.एक लड़के से रहा नहीं गया, पूछ बैठा- बाबा, इस तरह कांच क्यों फोड़ रहे हो? बाबा बोला- बेटा, इन सभी कांचों में मेरा मुंह काला दिखाई दे रहा है.
लड़का बोला- तो जाकर अपना मुंह धो आओ, कांच क्यों फोड़ते हो? बाबा आश्चर्य से  बोला, बच्चा समझदार है.
ऐसा कोई बच्चा सिब्बल जी को भी मिल जाता तो "सोशल साइट्स" पर लगाम कसने की ज़रुरत नहीं पड़ती.  
   

Tuesday, December 6, 2011

शहरों में रहने वाले

दुनिया में शहरी आबादी भी अच्छी-खासी तादाद में हैं. यदि विश्व के चंद बड़े शहरों को देखें तो वे एक-एक देश के बराबर जनसँख्या को समेटे हुए हैं.
भारत कहने को गाँवों का देश है, लेकिन संसार के १२ बड़े शहरों में भारत के तीन शहरों का शुमार है. मुंबई विश्व में आठवां  सबसे बड़ा शहर है.
शहरी आबादी और ग्रामीण आबादी की किस्म, स्तर, खूबियों और खामियों में बहुत अंतर होता है. जबकि एक मज़ेदार तथ्य यह है कि शहरी आबादी कहीं आसमान से नहीं उतरती. छोटे-छोटे ग्राम्य अंचल ही धीरे-धीरे पनप कर कालांतर में शहर बनते हैं.किसी बहुत बड़े शहर को देखिये, तो उसके जिस्म में कई ग्रामीण टापू मिलेंगे, जिन्हें निगलते हुए शहर आगे बढ़ते हैं. यही पिछड़े और सीधे-सादे गाँव जब किसी फैलते शहर की सीमा में आ जाते हैं, तो इनकी चाल शहरी हो जाती है. लेकिन चंद सालों बाद इस शहर के वाशिंदों में नई चमक और ठसक व्याप जाती है.फिर वहां का कोई रहवासी ग्रामीण नहीं रहता.
जापान का टोकियो हो, अमेरिका का न्यूयॉर्क, ब्राज़ील का साओ-पाउलो हो,या साउथ कोरिया का सियोल,इन शहरों की किसी गली में ग्रामीण हवा नहीं बहती.
चाइना के शेनझेन, यूनाइटेड  किंगडम के लन्दन,अमेरिका के शिकागो, या टर्की के इस्तम्बूल में ऐसा कुछ नहीं है जिसे गैर-शहरी कहा जा सके.
जापान के ओसाका-कोबे-क्योटो, नागोया, सब खालिस शहरी हैं. फिलिप्पीन्स का मनीला, इंडोनेशिया का ज़कार्ता ,नाइजीरिया  का लागोस, मिस्र का कैरो चमचमाती शहरी सभ्यता के ही प्रतीक हैं.लॉस एंजेलस, पेरिस,मोस्को, ब्यूनोस आयरस की तो बात ही क्या?
जिसमें टोकियो नगरिया में तो साढ़े तीन करोड़ लोग बसते हैं.           

Monday, December 5, 2011

इतना खाया कि अब जोर से भूख लगी है - यानी बात शिक्षा की

यह हमारे देश का बरसों पुराना शिष्टाचार है कि कोई घर आये तो बाहर आकर हम उसकी अगवानी करते हैं और उसके जाते समय उसे देहरी तक छोड़ने उसके साथ आते हैं.इस शिष्टाचार को सब जानते-समझते हैं, चाहे  पढ़े-लिखे हों या अनपढ़.शिक्षित लोग तो 'वेलकम' और  'सी-ऑफ' करने की प्रथा का  और भी जोर-शोर से पालन करते हैं.
इस नियम का अपवाद केवल तब होता है जब घर में किसी की मौत हो जाये, और आने वाले शोक प्रकट करने आ रहे हों. ऐसे में न तो किसी की अगवानी करते हैं, और न ही उसे छोड़ने बाहर तक साथ आते हैं.
पिछले कुछ सालों से हम सबको शिक्षा, व्यावहारिक शिक्षा और शिक्षा में नवाचार की बातें भी खूब बढ़-चढ़ कर करते रहें हैं.
यह भी एक सामान्य सी बात है कि घर आये मेहमान को आदर से आसन देकर बैठाया जाता है. चाहे आनेवाला अकस्मात भी आ गया हो, उसकी यथाशक्ति आवभगत करने की चेष्टा की जाती है, उसे चाय-पानी पूछा जाता है. गरीब से गरीब व्यक्ति भी इसमें कोताही नहीं करता.
हाँ, यदि आने वाला इस योग्य न पाया जाय तो इन बातों की अनदेखी भी की जाती है.अपना स्तर आंकने का यह एक जरिया भी माना जाता है कि हम कहीं गए तो हमारी आवभगत किस तरह हुई?
          हमारी सरकार ने सभी सरकारी अधिकारियों को एक पत्र भेजने का फैसला किया है कि यदि किसी भी विभाग में कोई "सांसद" महोदय तशरीफ़ लायें तो उनका सम्मान किया जाय, उनकी बात सुनी जाय, उनकी अगवानी की जाय, उन्हें छोड़ने बाहर तक आया जाय,उन्हें गंभीरता से लिया जाय.
सरकार में अधिकारी बनने के लिए उच्च-शिक्षित होना ज़रूरी है. "सांसद" बनने के लिए जनता में लोकप्रिय होना ज़रूरी है.तो फिर सरकार के इस पत्र का क्या अर्थ निकाला जाय?     

Sunday, December 4, 2011

हम भौगोलिक सीमाओं के कितने सगे रहें?

यह बात बिलकुल सच है कि यदि शब्दों के पीछे सिद्धांत का सहारा न हो तो वे खोखले रह जाते हैं. इस समय भारत दो शब्दों से जम कर खेल रहा है- एफ़.डी.आई. और लोकपाल.
एफ़.डी.आई. सरकार का तोता है, जिसे विपक्ष उड़ाना चाहता है.बहुत दिनों के बाद सरकार कोई ऐसा मिट्ठू लाई है जो सचमुच हराभरा है. महंगाई का जो अजगर सालों से पसरा पड़ा है, इस मिट्ठू की चोंच से उसके बदन पर थोड़ी खलिश ज़रूर होगी. प्रधानमंत्री जैसे भी सही, आखिर अर्थशास्त्री तो हैं ही, शायद खलिश को जुम्बिश में बदल सकें?जुम्बिश हलचल में बदलेगी, और हलचल हुई तो अजगर कुछ तो सरकेगा भी.सरका, तो थोड़ी राहत भी तय है.
यही राहत समय आने पर कहीं 'वोटों' में न बदल जाय? विपक्ष का यह डर भी वाजिब है. लिहाज़ा इस लफ्ज़ की गेंद पर दोनों ओर से थोड़ी शॉट्स और लगने का अंदेशा है.
दूसरा शब्द है- लोकपाल. लगभग वैसी ही स्थिति है. भ्रष्टाचार का अजगर यहाँ भी लेटा पड़ा है.लोकपाल नाम की छड़ी इसे कौंच सकती है. अन्ना की मुहिम छड़ी को तेल पिलाने की है, ताकि वार सनसनाते हुए हों.सरकार की दिलचस्पी इस छड़ी को मुलायम करने की है, ताकि वार जानलेवा न हो जाएँ.
समझ में नहीं आता कि अजगर में सरकार के किस "अपने" की आत्मा बसी है?
सवाल यह भी है कि सरकार देश का भला 'फिफ्टी-फिफ्टी' क्यों चाहती है?
हम भौगोलिक सीमाओं के कितने सगे हैं? हमें संसार प्यारा है, देश प्यारा है , सरकार प्यारी है  या पार्टी प्यारी है ?जनता प्यारी है, या फिर जनता का "वो...ट" प्यारा है?     

Saturday, December 3, 2011

वो सौ साल पहले भी था, आज भी है, और कल भी रहेगा.

किसका रस्ता देखे, ऐ दिल ऐ सौदाई?
मीलों है ख़ामोशी, मीलों है तन्हाई... लेकिन यह ख़ामोशी ज्यादा देर रहने वाली नहीं है. वे कहीं न कहीं से निकल कर सामने आ ही जायेंगे. क्योंकि हार के रुक जाना उन्होंने सीखा ही नहीं था.
अभी दर्शकों का दिल भरा भी नहीं था, कि वे चले गए छोड़ कर.
बात देवानंद की हो रही है. जिस शख्स का चेहरा देखकर कभी ये लगता था कि यह बूढ़ा भी कैसे होगा, वह दुनिया से कूच भी कर गया.
देवानंद एकदम खरे आदमी थे. वे युवा चेहरे और रंगीन लिबास में कितने बड़े संन्यासी थे इसका अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है, कि जहाँ उनके समकक्ष और बाद वाले लोग अपनी-अपनी विरासत अपने बेटे-बेटियों को सौंपने के लिए तन-मन-धन से जुटे रहे, वे अपने बेटे सुनील  को यह कहकर दूर से देखते रहे कि अगर उसके क़दमों में ताकत होगी तो अपना रस्ता वह खुद बनाएगा.
दुनियाभर का यह "गाइड" अपने बेटे का गाइड नहीं बना.
जब मजहरखान दुनिया से गए थे, तब जीनत अमान ने जो खालीपन झेला होगा, शायद उस से भी बड़ा खालीपन एक छितराए बादल की तरह उन पर आज भी  छा गया होगा. देव की याद में यही कहा जा सकता है- 'हरे राम हरे कृष्ण.  

इस नाव में मत बैठिएगा कभी भूल कर भी

'पल' कहिये या 'क्षण', यह बड़ी बेकार चीज़ है. ये आपके कोई काम नहीं आती.'लम्हा' दिखने में तो छोटा सा ही है, पर है बड़ा काइयां, बर्बाद कर देता है. ये आपको एक पल में वर्तमान से काट देता है. क्षण भर में सब विगत बन जाता है. अभी-अभी आप कुछ गुनगुना रहे थे, कि लीजिये, पलक झपकते ही आपका गीत अतीत बन गया. ये सब इसी पल की बदौलत तो हुआ.
और अचरज की बात तो ये है कि यह आपको कहीं नहीं पहुंचाता.आपको वर्तमान से काट भी लाया, और आप 'भविष्य' में भी नहीं पहुंचे. कभी आपका कोई पल भविष्य का भी हुआ है? नहीं न? तो फिर आखिर किस काम का हुआ ये पल, क्षण या लम्हा?
आप वर्तमान को पीछे छोड़ आये, और भविष्य में भी नहीं पहुंचे. तो बताइए आप कहाँ हैं?
बिलकुल ठीक. "संसद" में. 

Friday, December 2, 2011

खेत में से चिड़िया इस लिए उड़ाई जा रही है कि फिर फसल हम चट करें

भारत के गांवों  और शहरों में कई प्रथाएं पूरी तरह सड़ी-गली होने के बावजूद भी केवल इसलिए ढोई जा रही हैं, क्योंकि इन्हें बनाये रखने के पीछे चंद सौदागरों का हाथ है.आजभी कई गाँवों में मृत्युभोज बड़े पैमाने पर आयोजित हो रहे हैं. यदि कोई समझदार व्यक्ति इसे टालने की सोचता भी है तो उसे गाँव के वे व्यापारी यह कह कर रोकते हैं कि सारे गाँव को खिलाने की ये रीत मत छोड़ो, यदि तुम्हारे पास नहीं है तो उधार हम देंगे.दहेज़ सारे समाज का नासूर होने पर भी लिया और दिया जा रहा है.शादियों के मौसम में यह व्यापारियों की दुधारू गाय है.
किसी के दिवंगत हो जाने के बाद उसकी मिट्टी चाहे क्षण-भर में पञ्चतत्व में विलीन हो जाये, व्यापारी उसका उठावना, तिया, पांचा, दसवां, बारवां, तेरहवां, मासी, छटमासी, बरसी और पुण्यतिथि मना कर ही छोड़ते हैं, और सब क्रियाओं में दनादन माल बेच कर ही मानते हैं.देशभर के छोटे बड़े मंदिरों की पद-यात्रायें इन्हीं व्यापारियों की बदौलत सम्पन्न होती हैं.
इन्हीं व्यापारियों को शायद खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश पर एतराज है.यदि वे ऐसा सोचते भी हैं, तो यह गलत नहीं है. सभी को अपना हित सोचने का अधिकार है.
लेकिन इस से जितना उनका नुक्सान वे सोच रहे हैं, उतना होगा नहीं.         

Thursday, December 1, 2011

क्या सचमुच हम वसुधा को एक कुटुंब ही मानते हैं?

हम इन ख़बरों पर खुश होकर गर्व से भर जाते हैं कि किसी भारतवंशी को अमेरिका की सरकार में सम्मानपूर्ण जगह मिली, हमारे देश के लाखों युवा अच्छी पढ़ाई और ऊंची नौकरियों के लिए विदेशों में जाकर सफल हुए. यह बात तो हमारी आत्मा तक को गदगद कर देती है कि बाहर का पैसा प्रचुर मात्रा  में यहाँ आकर हमारा जीवन-स्तर सुधार रहा है.इस तथ्य को लेकर तो हम ग्लोबलाईज़ेशन को अपनाने की ओर तेज़ी से बढ़ने लगे हैं. यह सब वास्तव में ख़ुशी और संतोष की ही बात है.
फिर अचानक क्या हुआ? आज हम किस बात पर "भारत-बंद" पर आमादा हो गए? यदि खुदरा व्यापार में विदेशी धन आया तो हम बर्बाद कैसे हो जायेंगे?
जब विदेशी पर्यटक आते हैं, तो हमें ज़बरदस्त आय देकर जाते हैं, बल्कि तरह-तरह से हम उन्हें लुभाते हैं.
जब विदेशी ज्ञान आता है तो हम मानसिक रूप से और सशक्त हो जाते हैं, बल्कि हम विदेशी ज्ञान की तलाश में दूर-दूर जाते हैं.
जब विदेशी बैंक आते हैं तो हम मालामाल हो जाते हैं, बल्कि हमारे अपने बैंकों की दशा भी स्पर्धा से सुधर जाती है.
जब विदेशी कपड़े आते हैं तो हमारी युवा पीढ़ी उन्हें दिल से गले लगाती है, बल्कि पुरानी पीढ़ी भी 'मॉडर्न' होने का सपना देखने लगती है.
जब विदेशी मशीनें आती हैं तो हमारी क्षमता और गुणवत्ता कई गुना बढ़ जाती है, बल्कि हम उनकी बनावट की नक़ल करके अपना उत्पादन बढ़ाने  लग जाते हैं.
जब विदेशी तकनीक आती है तो हमारा कायाकल्प हो जाता है, बल्कि उसके सहारे हम अपना पिछड़ा-पन मिटाने की राह पा जाते हैं.
जब विदेशी माल आती है तो हम उसमें शॉपिंग करने का लुत्फ़ उठाते हैं, बल्कि खरीदारी का वैश्विक तरीका सीख जाते हैं.
फिर केवल खुदरा व्यापार में विदेशी धन आने से हमारा क्या बुरा हो जायेगा?
कहीं ऐसा तो नहीं, कि हम अपने सौदागरी के  बरसों पुराने, काइयां  और सड़े-गले तौर-तरीके अपनाने वाले दकियानूसी 'श्रेष्ठि' वर्ग के पक्ष में खड़े होने को फुसलाये जा रहे हों?    

Wednesday, November 30, 2011

किसी देश की सामाजिक बैलेंस-शीट में समझदारी "एसेट" है या 'इनोसेंस' को एसेट कहा जाय?

एक दिन दूधवाले को कोई काम होने से वह दूध देने न आ सका. उसने अपने ग्यारह साल के बेटे को दूध देने भेज दिया. मैंने केवल बच्चे से कुछ बात करने के शिष्टाचार और परिहास के नाते उस से पूछ लिया- आज दूध में कितना पानी मिला कर लाया? लड़का स्वाभाविक रूप से बोल पड़ा- आधा दूध और आधा पानी. सब हँस पड़े. अगले दिन मैंने यह बात अपने दूधवाले को सुनाई, तो वह झेंपते हुए बोला- जी, वह तो बच्चा है, उसे कुछ मालूम नहीं रहता.
एक दिन एक बस में जाते हुए एक महिला ने जब अपने बच्चे के लिए आधा टिकट माँगा, तो कंडक्टर ने उस से बच्चे की उम्र पूछी. महिला को पता था कि आठ साल के बच्चे का पूरा टिकट लगने लगता है, इसलिए वह बोली- साढ़े सात साल. बच्चा तपाक से बोल पड़ा- क्या मम्मी, आपभी,आपने  केवल नौ रुपये के लिए मेरी उम्र एक साल घटादी. सब हँस पड़े.
एक कवि ने कहा है- "चाँद सितारे  छू लेने दो,  नन्हे-नन्हे  हाथों  को
                                चार किताबें पढ़ कर ये भी, हम जैसे हो जायेंगे"
२०११ की जनगणना के नतीजे आ गए हैं. बच्चों की संख्या लगभग २० से २५ प्रतिशत के बीच है.
क्या माना जाय? मानव संसाधन, जिसमें हम दुनिया में दूसरे नंबर पर हैं, वह भी हमारे पास एक-चौथाई ही शुद्ध है?
                                 बच्चो जब तक भी रह पाओ,बच्चे, तब तक बने रहो
                                 तुम भी बड़े हुए तो इस दुनिया को कौन सम्हालेगा ?

Monday, November 28, 2011

अच्छा, तो ये था महंगाई पर लम्बी और रहस्यमयी चुप्पी का राज?

जिस तरह रेल की पटरी में सामानांतर  चलती दो धाराएँ होती हैं, ठीक उसी तरह भारतीय संसद में भी दो धाराएँ, एक सत्ता-पक्ष और दूसरा विपक्ष, होती हैं.
रेल की पटरी पर रेल दौड़ जाती है, संसद थमी हुई है. रुकावट के लिए खेद किसी को नहीं है.
विपक्ष को तो खेद क्यों होगा, उसी ने तो रेल रोकी हुई है. सत्ता-पक्ष को खेद इसलिए नहीं है, क्योंकि उसके पास जाने को कोई गंतव्य नहीं है. टाइम पास करना है, संसद चला कर करें या संसद रुकवा कर, कोई फर्क नहीं पड़ता.
आम आदमी को फ़िलहाल यह पता नहीं चल पा रहा कि एफ डी आई से  उसे क्या नुकसान होगा और अभी उसे क्या फायदा हो रहा है.
कुछ दिन पहले हम जोर-शोर से "ग्लोबल" हो रहे थे. दुनिया हमें जेब में आती नज़र आने लगी थी. विदेशी वस्तुओं की गुणवत्ता और किस्में हमें लुभाने लगी थी. अपने शहरों को हम विश्व-स्तरीय बनाने का सपना देखने लगे थे. बाज़ार बनना और बाज़ार बनाना हमें रास आने लगा था. महाशक्ति बनने की उम्मीदें हमारा सर गर्व से ऊंचा करने लगी थीं.
फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि हम अपने पुराने दिनों को याद करके अपनी चाल वापस लेने लगे?
क्या हम ग्लोबल होने से डर गए? क्या हमारे छोटे व्यापारी की गद्दी हिल गई? गुणवत्ता, स्पर्धा और विकास की हमारी महत्वाकांक्षा कहाँ गई?
शायद हमें अपनी सरकार की नीयत पर संदेह हो गया? शायद हम समझ गए कि सरकार बेतहाशा महंगाई बढ़ा कर, और उस पर कोई कार्यवाही न करके हमसे क्या चाह रही थी?
क्या हमने सरकार का सारा प्लान चौपट  कर दिया?क्या हम ज़रा जल्दी जाग गए?सरकार दबे पाँव रात में हमारे घर में कूदी ही थी कि हमने बत्ती जला दी.सरकार का सारा खेल बिगड़ गया.      

Sunday, November 27, 2011

हे ईश्वर,उन्हें शक्ति देना कि वे बिना बात लड़ सकें

हर खेल को शुरू होने के लिए एक सीटी अर्थात व्हिसिल चाहिए. हर मैच को शुरू होने के लिए दो टीमें चाहिए. पर अगर कोई पहलवान अपनी ही नाक तोड़ना चाहे, तो उसे केवल एक मक्खी चाहिए.
लेकिन अगर कोई देश लड़ना चाहे, तो उसे मुद्दा चाहिए. अगर कोई कारगर मुद्दा न हो तो फिर कोई ज़मीन चाहिए. ज़मीन अगर अपनी हो तो लड़ाई में मज़ा नहीं आता. ज़मीन दूसरे की हो तो भी खतरा बना रहता है, न जाने दूसरे के पास क्या हथियार हो?
सबसे मज़ेदार लड़ाई तो तब होती है जब ज़मीन तीसरे की हो. और अगर तीसरा कम शक्तिशाली हो, तब तो सोने पर सुहागा. लड़ने की हुड़क भी पूरी, और लड़ाई में जीत भी पक्की.
पर यहाँ भी एक पेच तो है. कम शक्तिशाली भला लड़ाई छेड़ने का खतरा मोल ही क्यों लेगा? तो यहाँ भी उसे उकसाने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही  पड़ेगा.
कहते हैं कि एक आदमी लड़ने में बहुत पारंगत था. रोज किसी न किसी बात पर किसी न किसी से लड़ लेता था. आखिर लोगों ने उस से बचने का रास्ता निकाला. उसकी बीवी से कहा कि रात को सोने के लिए इसकी खाट खेत में ऐसी जगह डालना,जहाँ दूर-दूर तक कोई न हो. बीवी ने ऐसा ही किया. जब वह अकेला पड़ा-पड़ा आसमान को तक रहा था, अचानक उसे आकाश में तारों का झुण्ड दिखाई दिया. वह पत्नी से बोला- यह तारों का झुण्ड सा क्या है? पत्नी बोली- यह आकाश गंगा है, यहाँ रोज़ इन्द्र के हाथी पानी पीने के लिए आते हैं. बस, आदमी का पारा चढ़ गया, बोला- तूने हाथियों के रास्ते में खाट  डालदी, कोई हाथी यहाँ गिर गया तो? बस, उसकी लड़ाई शुरू.
आदमी ही नहीं, ऐसा देश भी करते हैं.
भारत में एक कार्यक्रम में शिरकत करने तिब्बत से दलाई लामा आरहे हैं.जब चीन को यह खबर मिली, तो उसने भारत से कहा- इस कार्यक्रम को रद्द करो.
भारत ने कहा- नहीं.    

Saturday, November 26, 2011

इस चेन को कौन तोड़ेगा?

रुपया लगातार गिर रहा है. इसका अर्थ या व्याख्या अर्थशास्त्र में चाहे जो हो, भारतीय  समाजशास्त्र में इसकी व्याख्या निराशा का माहौल बना रही है. हर भारतीय के मानस में यह ख्याल आ रहा है कि जिसके लिए हमेशा से हम 'गिरते' चले जा रहे हैं, वह खुद भी गिर रहा है?
यदि एक दूसरे के लिए गिरते चले जाने की यह चेन ऐसे ही चलती रही, तो आखिर हम कौन से रसातल में पहुंचेंगे? क्या कोई रास्ता है जो इस गिरावट को थामे?
रास्ता है.
रास्ता यही है, कि पहले हम अपने-आप को थामें.आज हम अपने हर कार्य को आर्थिक सार्थकता  के दायरे में ही घसीट कर ले गए हैं. हम अपने काम के स्तर,गुणवत्ता, आवश्यकता, उपयोगिता आदि को भूल कर केवल 'मौद्रिक' लाभ या लाभदायकता के पैमाने से ही हर चीज़ को आंकने लगे हैं.ज्ञान से हमें कोई लेना-देना नहीं,  हम वह पढ़ना चाहते हैं, जो हमें ऊंचा आर्थिक पॅकेज दिला सके.हमारे बड़े और आधुनिक सुविधा संपन्न हस्पताल  खांसी-जुकाम के मरीज़ को कैंसर के मरीज़ से ज्यादा महत्त्व देने को तैयार हो जाते हैं, अगर वह पैसे वाला हो. हमारा मीडिया जनता पर बरसों से पड़ रही मंहगाई की मार को नज़रंदाज़ करके नेता को पड़े एक थप्पड़ पर अपने कैमरे साध देता है.
पहले हम उठें, शायद हमारे राष्ट्रीय जीवन की गुणवत्ता फिर रूपये को उठाने पर भी ध्यान दे.
लक्ष्मी के चरणों में अगर हम अपना  अच्छा-बुरा भूल कर लोटते रहेंगे तो आखिर कभी तो हमें उठाने को  लक्ष्मी भी झुकेगी ही न ?  

Friday, November 25, 2011

हरिश्चंद्र, मोहन दास और प्रणब मुखर्जी के 'अनुभूत' प्रयोग

यदि हमें किसी को यह समझाना हो कि 'सच' किसे कहते हैं,तो हम बहुत आसानी से समझा सकते हैं."सच झूठ का विलोम है जो तब बोला जाता है जब और कोई चारा न हो". यह कभी-कभी स्वतः ही बुल जाता है जबकि झूठ सायास बोलना पड़ता है. हर इन्सान की एक अंतरात्मा होती है, जिसके फलस्वरूप यह सत्य  कभी-कभी स्वयं मुंह से निकल जाता है. भारत के हर न्यायालय में 'सत्यमेव जयते' लिखा होने से प्राय यह मान लिया जाता है कि यह जीतता होगा, किन्तु इस मान्यता की सत्यता का कोई ठोस आधार नहीं है.
हरिश्चंद्र ने सत्य बोला था, जिसके कारण वह 'सत्यवादी' कहलाये. महात्मा मोहनदास करमचंद गाँधी ने सत्य के कुछ अनुभूत प्रयोग किये.
प्रणब मुखर्जी दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र  के वित्त मंत्री होने के कारण व्यस्त रहते हैं, किन्तु उनसे भी अकस्मात सच बुल ही गया.अकस्मात किसी से भी, कुछ भी हो सकता है. अन्ना हजारे के मुख  से भी शरद पवार के थप्पड़ पड़ने की शर्मनाक-निंदनीय घटना के बाद एक बार तो यही निकला-'एक ही".
सत्ताधारी पार्टी के 'स्टीयरिंग व्हील' पर बैठे नेता मनमोहन सिंह के मुख से कभी कुछ नहीं निकलता, लेकिन प्रणब मुखर्जी के मुंह से निकल गया. आखिर  वह बोल ही पड़े- 'यह देश न जाने किधर जा रहा है?
गाँधी ने कहा था कि यदि कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे तो तुम अपना दूसरा गाल भी उसके आगे कर दो.देखें, अब गाँधी की  प्रासंगिकता कितनी बची है?   

Thursday, November 24, 2011

हो न हो बात कुछ और है, महारानी पद्मिनी की याद किसी को क्यों आएगी?

हमेशा की तरह एक राजा था. एक रानी भी थी.
रानी ने राजा से कहा- मुझे सजने-सँवरने का सामान मंगवा दो.
सामान आ गया. रानी ने देखा तो बोली- इसमें आइना तो है ही नहीं?
राजा ने मुस्करा कर कहा- ज़रा खिड़की से मुंह बाहर निकाल कर तो देखो.
रानी ने बाहर झाँका तो दंग रह गई,बाहर खिड़की के चारों ओर शीशे ही शीशे लगे थे. हर शीशे में रानी का चेहरा जगमगा रहा था. रानी ख़ुशी से लाल हो गई.
अब रानी ने श्रृंगारदान खोला और लगी सँवरने.
ये क्या? चेहरे का पाउडर तो बिलकुल खड़िया मिट्टी जैसा था.रानी ने तुरंत बिंदी निकाल कर देखी, बिंदी क्या थी, जैसे किसी ने लाल रंग की टिकिया रख दी हो. काजल देख कर तो रानी आग-बबूला हो गई- कोयले को ज़रा से तेल में घिस कर रख दिया गया था.रानी ने झटपट होठों की लाली तलाशनी चाही.बस,थोड़ी सी क्रीम में  ईंट का चूरा ही समझो.और क्रीम भी कौन सी शुद्ध? जैसे आटे में घी.
रानी ने आनन-फानन में राजा को बुलवा भेजा, और शिकायतों का पिटारा खोल दिया.
राजा ने धैर्य से सारी बात सुनी,फिर रानी से बोला- क्यों नाराज़ होती हो? महल में कोई आम आदमी तो आने से रहा. प्रजा बाहर के शीशों से ही तुम्हें सजता-सँवरता देखेगी. लोगों को क्या पता, तुम क्या लगा रही हो? लोग तो यही समझेंगे कि रानी साहिबा सोलह श्रृंगार में तल्लीन हैं.
रानी ने आँखें तरेर कर कहा- अच्छा, तो तुम्हें मेरी चिंता नहीं है, तुम केवल महल  की "इमेज बिल्डिंग" में लगे हो?
सरकार ने इस कहानी से शिक्षा ली और अपनी छवि सुधारने को कमर कस ली.           

Wednesday, November 23, 2011

थोड़े से कांटे आलोचना के, मगर बहुत सारे फूल बधाई के भी बनते हैं, मायावतीजी के लिए

एक बस्ती थी. उसमें सौ लोग रहते थे.
एक और बस्ती थी. उसमें एक हज़ार लोग रहते थे.
एक और भी बस्ती थी. इस बार उसमें एक लाख लोग रहते थे.
मज़े की बात देखिये, कि फिर  एक और भी बस्ती थी. और उसमें रहते थे पूरे एक करोड़ लोग.
सब बस्तियों में एक-एक राजा था.सब में एक-एक महल था. सब में एक-एक क्रिकेट टीम थी. सब में एक-एक ज्ञानपीठ और एक-एक ऑस्कर अवार्ड बंटता था.
पहली बस्ती में हर दस में से एक खिलाड़ी राष्ट्रीय टीम में आ गया, दूसरी में हर सौ में से एक खिलाड़ी, तीसरी में हर दस हज़ार में से एक खिलाड़ी और चौथी बस्ती में से हर दस लाख में से एक खिलाड़ी राष्ट्रीय टीम में आ पाया.
नतीजा यह हुआ कि सोवियत रशिया ने एक टीम तोड़ कर तेरह बनालीं.एक कुर्सी तोड़ कर तेरह बनालीं, और बन गए तेरह राष्ट्रपति , तेरह प्रधान-मंत्री, तेरह राजमहल, और मिलने लगे तेरह अवार्ड.
यदि इस गणित में ज़रा भी दम है तो मायावतीजी निश्चय ही बधाई की हकदार हैं.
यह दूरदर्शिता ही कही जाएगी कि जब उत्तरप्रदेश जीतने चारों दिशाओं से चार सेनाएं निकल पड़ी हों, तो मुख्य मंत्री और राज्यपाल भी चार क्यों न कर लिए जाएँ? चार विधानसभाएं, चार राजधानियां...चार चाँद लग जायेंगे प्रदेश की खुशहाली में.
लेकिन इससे कोई ये न समझ ले कि रुपया चवन्नी बन कर रह जायेगा? रूपये की नज़र तो अब डॉलर पर है.
खेल तो अब शुरू होगा- सबसे बड़ा खिलाड़ी चुनने के लिए. माया,ममता,मोदी,नीतीश,जयललिता, राहुल, और "अबव- आल"आडवाणी जी...एंड मैनी मोर!       

Tuesday, November 22, 2011

जाट देवता [संदीप पंवार] के "क्यों" का जवाब देना बाक़ी है,मैं हर भारतीय को "स्मार्ट इंडियन" ही देखना चाहता हूँ

संदीपजी ने मुझसे पूछा था कि किसी फोलोअर के आने-जाने पर रुक कर सोचना मुझे क्यों ज़रूरी लगा?
इसका उत्तर मैंने अपनी पोस्ट में भी दिया था कि 'स्मार्ट इंडियन' के लम्बे, प्रतिक्रिया भरे, निरंतर संवाद के बाद उनका ओझल होना मैं एकाएक  पचा नहीं पाया, इसलिए मैंने उनकी चर्चा की थी. मैं मन ही मन यह भी सोच रहा था कि वे ज़रूर किसी तकनीकी कारण से 'अंतर्ध्यान' हुए हैं, अवश्य लौटेंगे. मैं सही था, वे फिर से मेरे साथ हैं.
अब मैं यह भी कहना चाहूँगा कि मैंने केवल अपने फोलोअर होने के नाते ही यह सब नहीं कहा, बल्कि उनके बारे में जितना भी जान पाया हूँ, मुझे लगता है कि वे केवल एक स्मार्ट भारतीय ही नहीं, वरन  एक आदर्श भारतीय भी हैं. स्मार्टनेस की परिभाषा एक लम्बे रेंज की बहुआयामी परिभाषा है, किन्तु इसका सर्वाधिक सकारात्मक रिफ्लेक्शन, या बल्कि उत्कीर्णन उनके व्यक्तित्व में है.
 वे अमेरिका के पिट्सबर्ग में रहते हैं, लेकिन वे अपने मानस में भारतीयता का वस्तु-तत्त्व सहेज कर रखे हुए हैं. उनपर अन्य कई बड़े साहित्यकारों वाला मुलम्मा नहीं है. वे विस्थापित मनस्विता के प्रवासी-यायावर नहीं हैं, वे अपने जीवन-संचय में मिट्टी, गंगाजल और स्मृतिबीज लिए हुए अपने  इच्छित स्थान पर बसे हुए हैं.वे भारतीयता की सघन नर्सरी "रसोई-बाग़' की सी आत्मीयता से लिए हुए हैं.
 मुझसे यह सब किसी और ने नहीं, बल्कि उन्ही की रचनाधर्मिता और प्रतिक्रियात्मक ऊष्मा ने कहा है जो उनकी जिजीविषा को उनके 'ब्लॉग्स' पर बिछाए हुए है.उनका 'स्पान ऑफ अटेंशन' आश्चर्यजनक रूप से व्यापक है.
अभी उनके बारे में इससे ज्यादा नहीं कहूँगा, वे सुन रहे हैं. उनके साहित्यिक कद को हम फिर कभी  माप कर देखेंगे.      

Monday, November 21, 2011

चीन के प्रति मौजूदा आशंकाएं १९६२ के युद्ध की स्वर्णजयंती से तो नहीं जुड़ीं?

१९६२ से पहले तत्कालीन चीनी प्रधान मंत्री चाऊ एन लाइ भारत की यात्रा पर आये थे. उनका स्वागत बहुत गर्मजोशी से हुआ. उन्हीं दिनों "हिंदी-चीनी भाई-भाई" का नारा बुलंद हुआ और बेहद लोकप्रिय हुआ. और कुछ  साल बाद समय ने ऐसा पलटा खाया कि भारत को चीन के साथ युद्ध की विभीषिका झेलनी पड़ी. इस युद्ध के दौरान चंद ऐसे विवाद उभरे,जिनका समाधान आजतक नहीं हो पाया है.
लेकिन भारत-चीन संबंधों में इसके बावजूद कोई बड़ी दरार नहीं पड़ी. दुनिया के ये  जनशक्ति में पहले और दूसरे फलते-फूलते देश अपनी अपनी रफ़्तार से प्रगति करते रहे.
इस वर्ष के बीतते-बीतते भारत और चीन अपने बीच हुए युद्ध की अर्धशती मनाते हुए उन दिनों को याद कर रहे होंगे. शायद यही कारण है कि कुछ लोगों ने संबंधों के बीच की खाई को फैलाना शुरू कर दिया है. चीन का तेज़ी से बढ़ता वर्चस्व और भारत का बढ़ती शक्ति के रूप में उदय इस अघोषित प्रतिद्वंदिता को और हवा दे रहा है. यदि वास्तव में इन दोनों के मध्य तनाव बढ़ा, तो कुछ बातें और लोगों का ध्यान खीचेंगी-
-अमेरिका के बाद नंबर दो की जगह रूस छोड़ चुका है, और यह जगह  फ़िलहाल ख़ाली है.
-चीन की महत्वाकांक्षा को यह बात और बल दे रही है कि भारत के साथ पाकिस्तान के रिश्ते न कभी सुधरे और न कभी सुधरेंगे.
-यूरोप के चंद संपन्न देश और जापान जैसे एशियाई देश आर्थिक उथल-पुथल के दौर से गुज़र रहे हैं.
-भारत की आन्तरिक स्थिति फ़िलहाल "हिंदी-हिंदी भाई-भाई" की भी नहीं है.यहाँ देश की सीमा के भीतर ही अलग-अलग मानसिकता के सुलतान और सल्तनतें पनप रहे हैं.
यह सभी बातें चीन के पक्ष में जाती हैं.      

Saturday, November 19, 2011

"तकनीक" ने याद दिला दिया बचपन

 बचपन में विशेष अवसरों पर स्कूल में एक खास खेल हुआ करता था. इसमें एक रस्सी में टॉफी या मिठाई, अक्सर जलेबी बाँध कर लटका दी जाती थी.क्लास के सबसे लम्बे लड़के या टीचर उस रस्सी को दोनों ओर से पकड़ कर खड़े हो जाते थे.बाकी सभी लड़कों के हाथ पीछे बाँध दिए जाते थे.फिर उछल-उछल कर मुंह से टॉफी या जलेबी को पकड़ना पड़ता था. जैसे ही मुंह लक्ष्य को छूने लगता था, रस्सी ऊपर उठा ली जाती, और मुंह मिठाई का स्वाद लेता-लेता रह जाता. उस समय इस तरह छकाए जाने पर भी एक आनंद आता था. बाद में मिठाई भी बाँट ही दी जाती थी. लेकिन कुछ लड़के जो अपने मुंह से मिठाई लपकने में सफल रहते, उनकी बात ही कुछ और होती थी, वे ही सिकंदर माने जाते थे.
कभी-कभी लगता है कि बचपन का वही खेल अब 'तकनीक'खेल रही है. निश्चित रूप से बच्चों और युवाओं को इसमें मज़ा आ रहा होगा, पर हम जैसे लोगों को बार-बार मिठाई छिन जाने का अहसास हो रहा है.हम रोज़ बदलती तकनीक को जैसे तैसे सीख कर थोड़ा सा अपनाने की कोशिश करते हैं, कि झट से नई प्रणाली आकर फिर हमें पुराना कर देती है.कंप्यूटर  और मोबाइल की विलक्षण दुनिया का इस्तेमाल हमारे जैसे उम्र-दराज़ लोग बहुत थोड़ा, ५-७ प्रतिशत ही कर पाते हैं.लेकिन यह प्रणालियाँ इतनी जीवनोपयोगी हो गईं हैं कि इनके बिना काम भी नहीं चलता. इस तरह नई पीढ़ी ने हमें चालाकी से जीवन-पर्यंत 'सीखने वाला' ही बना छोड़ा है.बच्चे सिखाने वाले, और बड़े सीखने वाले बन गए हैं. यह अच्छी बात ही है, पर...
कभी-कभी हमारे मन में भी बगावत जन्म लेती है. हम अपना मिट्टी में खेलने वाला, खेतों में दौड़ने वाला, सबसे हंसने-बोलने वाला, दूसरों के गाने सुनते रहने की बजाय अपने गाने गाने वाला, तितलियों के पीछे भागने वाला, परदेस गए आदमी के समाचारों का इंतज़ार महीनों तक करने वाला,नदी-पोखरों में घंटों तैरने वाला, बेसाधन रसोइयों में घंटों खपा कर तैयार होने वाली रोटियों को खाने वाला और खुली छतों पर सोने वाला  बचपन याद करते हैं. कभी तो ऐसा हो कि दोस्त की आवाज़ सुनने को महीनों इंतजार करना पड़े. कभी तो आँखें गली में दूर से चिट्ठी लेकर आते पोस्टमैन के लिए बेचैन  हों?       

Friday, November 18, 2011

मैं ही नहीं, मेरे अन्य पढ़ने वाले भी व्यथित हैं "स्मार्ट इंडियन" की गैर-मौजूदगी से

मैं हमेशा से इस बात का कायल रहा हूँ कि लिखने वालों को अपने दिल की बात लिखनी चाहिए, इस बात पर नहीं जाना चाहिए कि इसे कौन पढ़ेगा,पढ़ कर क्या सोचेगा या क्या प्रतिक्रिया देगा. इसी तरह बोलने वालों, चित्रकारी करने वालों,या किसी भी कला के प्रस्तुत करने वालों को सोचना चाहिए.
लेकिन कभी-कभी ऐसा नहीं हो पाता.आपका ध्यान अपने पढ़ने-सुनने वालों पर इतनी तन्मयता से जाने लगता है कि अगर वो बीच में उठ कर चले जाएँ, तो आपका ध्यान या एकाग्रता भंग हो ही जाते हैं. ऐसे अवसर पर एक बार आपको रुक कर सोचना ज़रूर चाहिए.
मैं लगभग डेढ़ साल से अपने ब्लॉग पर नियमित हूँ. इस बीच फोलोअर के रूप में "स्मार्ट इंडियन' से मेरा लगभग सतत संवाद रहा है. वे लगातार अपनी प्रतिक्रिया सार्थक टिप्पणियों के रूप में मुझे देते भी रहे हैं. पिछले कुछ दिनों  से उन्हें अपने ब्लॉग पर न पा कर मैं कुछ विचलित हुआ.किन्तु मैं अपनी इस दुविधा को छिपा गया और लगातार लिखता रहा. किन्तु आज मैं देख रहा हूँ कि दूसरे देश से मुझे पढ़ने वाले मेरे पाठक भी मेरी विचार-श्रृंखला में से उन बिन्दुओं को ढूंढ रहे हैं, जो मैंने स्मार्ट इंडियन के आह्वान पर लिखे थे.
अब इस विषय पर सोचने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है. मैं केवल यह कहूँगा कि ब्लॉग पर किसी फोलोअर का आना- जाना बहुत से कारणों से हो सकता है. उनकी व्यस्तता, कोई तकनीकी कारण, उनका ऊब जाना, कोई भी कारण हो सकता है.  

Thursday, November 17, 2011

हीरों की खान में सतीश कौशिक

यह कई सालों से होता रहा है कि देश के छोटे नगरों- गांवों  से लोग फिल्म जगत से जुड़ने के लिए मुंबई जाते हैं. यह भी होता रहा है कि अच्छी कहानियां और लोकेशनें तलाशने के लिए निर्माता-निर्देशक लालायित रहते हैं. और ऐसी भी कई मिसालें मौजूद हैं कि अभिनेताओं-अभिनेत्रियों  के कपड़े-गहने तैयार करने वाले भी देश-विदेश का रुख करते हैं.
निर्माता सतीश कौशिक राजस्थान में एक भव्य टेलेंट-हंट आयोजित कर रहे हैं, जिसमें ८ से लेकर ६० साल तक के लोगों को ऑडिशन के लिए आमंत्रित किया गया है. इसे लेकर इन दिनों अच्छा-खासा उत्साह है.
जीवन में बहुत सारे ऐसे मुकाम आते हैं जब लगता है कि सामने कोई कैमरा होता तो यादगार फिल्मांकन हो सकता था. हर बस्ती में चलते-फिरते लोगों को ध्यान से देखिये, क्या आपको इनमें बड़े और खूबसूरत सितारों की झलक नहीं मिलती? कितना ताजगी भरा होगा ऐसा चयन?
अरसे से ऐसा हो रहा है कि स्टार बनाये और उतारे जा रहे हैं. वे स्टारों के घर में ही होते हैं, केवल समय पर पेश किये जाते हैं. ऐसे में जीवन के वास्तविक  "स्टारों" को तलाशना ज़रूर सुखद और सम्भावना भरा होगा.
  

काटजू, वैदिक और आम आदमी

पूर्व न्यायाधीश जस्टिस काटजू को सेवा निवृत्ति के बाद प्रेस परिषद् का अध्यक्ष बनाया गया है. उन्होंने पद सम्हालते ही कहा कि मीडिया अपने सरोकारों को ठीक से नहीं निभा रहा है अतः पत्रकारों को भी चंद  दिशा-निर्देशों के तहत काम करने की ज़रुरत है.
इस पर प्रतिक्रिया देते हुए वरिष्ठ पत्रकार  वेद प्रताप वैदिक ने कहा कि देश के न्यायाधीश भी कौन से दूध के धुले हैं, वे भी तो समय-समय पर गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार के दोषी पाए गए हैं.
ऐसे बयान और इन बयानों पर आने वाली प्रतिक्रियाओं को निगलने या उगलने से पहले हमें एक बात पर और ध्यान दे लेना चाहिए. हमारे देश में लगभग अस्सी प्रतिशत लोग, चाहे वे डाक्टर हों, पत्रकार हों, शिक्षक हों, व्यापारी हों, अफसर हों, कर्मचारी हों, इंजिनियर हों,वकील हों, या किसी और पेशे के लोग हों, वे अपनी मानसिकता में लगभग आमआदमी ही हैं. वे कमाने-खाने के हिमायती हैं. जीवन की आधारभूत ज़रूरतें इनकी आधारभूत ज़रूरतें हैं, चाहे वे सीमा में हों या असीमित.
लगभग दस प्रतिशत लोग औसत से अधिक अच्छी मानसिकता वाले हैं.
इसी तरह लगभग दस प्रतिशत लोग औसत से ख़राब मानसिकता वाले, सरके हुए लोग हैं.
अब जब किसी को भी, किसी के भी बारे में, कुछ भी कहना होता है, तो वह आराम से कह सकता है.
उसके पास अपनी बात सिद्ध करने के लिए हर तरह का उदाहरण मौजूद है. जब वह किसी की शान में कसीदे काढना चाहेगा, तो वह उस पेशे के अच्छे लोगों की मिसाल दे देगा.इसी तरह जब वह किसी की बखिया उधेड़नी चाहेगा तो उस पेशे के ख़राब लोगों की मिसाल दे देगा. इस तरह कहने वाला कुछ भी कहता रह कर कहता चला जायेगा और कहता चला जायेगा, आपमें जितना धैर्य हो सुन लें.    














Wednesday, November 16, 2011

बधाई 'गुड्डी'को भी

ऐश्वर्या का अभिषेक होने पर जो तोहफा दुनिया को मिल सकता है, वह मिल गया. लेकिन सारी बधाइयाँ दादाजी ही बटोर ले जाएँ, ये कहाँ तक ठीक है? सबसे बड़ी बधाई तो दादी जया जी को है, जिनकी गोद में इस नन्ही गुडिया को सबसे ज्यादा दुलार मिलेगा. इसके मम्मी-पापा-दादा तो व्यस्त सुपर-सितारे हैं, साथ में तो दादी ही खेलने वाली हैं. बधाई की एक अंजुरी डॉ हरिवंश राय बच्चन को भी, जिन्होंने एक बार मुझसे कहा था कि बहती नदी की ही तरह इन्सान को भी अपनी आगामी पीढ़ियों में बहना अच्छा लगता है. यह बात उन्होंने उमर खैय्याम की रुबाइयों की गंध  के बह कर "मधुशाला" में चले आने के सन्दर्भ में कही  थी. 

घर के लोग अलग कमरा मांगें तो यह अच्छी व्यवस्था है, अलग रसोई मांगने लगें, तो दाल में का...

कुछ साल पहले भारत के तीन राज्यों को 'बहुत बड़ा' कह कर विभाजित किया गया था. इस कदम को प्रशासनिक सुगमता की द्रष्टि से अच्छा भी माना गया.इन राज्यों से निकले टुकड़ों ने विकास में तत्परता भी दिखाई है.
अब इसी पूर्व-विभाजित उत्तर प्रदेश के चार टुकड़े करने की बात कही जा रही है. यदि यह केवल तेज़ी से विकास करने के लिए और प्रशासन की छोटी इकाइयों में बांटने के लिए किया जा रहा है, तो इसमें कोई बुराई नहीं दिखती.लेकिन इन परिस्थितियों के पीछे एक बहुत बड़ा सच और छिपा है, इसे नकारा नहीं जा सकता.
पिछले साठ सालों में विज्ञानं और तकनीक ने जो प्रगति की है वह यदि किसी जगह ठीक से अपनाई  न जाये तभी यह स्थिति आ सकती है कि राज्य बड़े दिखाई दें. वरना तो दुनिया दिनोदिन छोटी हो रही है.कई देशों ने तो हजारों मील दूर जाकर सत्ता सम्हाली है.
अब घर-घर में ही नहीं, हर आदमी के पास फोन है. तकनीक के सहारे एक देश में बैठा आदमी दूसरे देश के आदमी से आमने-सामने बात कर सकता है. पलक झपकते ही दुनिया को जोड़ने वाले संचार और हवा को मात देने वाले  यातायात के साधन उपलब्ध हैं. ऐसे में शासन के लिए देशों,राज्यों या शहरों  को तोड़ना केवल वहीँ हो सकता है, जहाँ सत्ताधीश हर सुबह अपने हर अधिकारी-कर्मचारी को हाथ में गुलदस्ते लेकर अपने दरवाजे पर खड़ा देखने के आदी हों.कमरे अलग होना,कहीं  रसोई अलग हो जाने का कारण न बनें?    

Tuesday, November 15, 2011

इस गिनती में आगे निकलने का सपना देखे हर भारतवासी

क्या आप किसी ऐसे देश की कल्पना कर सकते हैं, जहाँ हर सौ में से ८८ लोग उच्च शिक्षित हों, अर्थात कॉलेज की पढ़ाई कर चुके हों?सोचिये कैसा 'साहबों' का देश होगा वो? लगभग हर आदमी समझदार, खासा पढ़ा-लिखा. बुद्धि से भरपूर, अपने जीवन के सही फैसले लेने वाला.
"कनाडा" ऐसा ही देश है. लगभग यही ऊँचाई अमेरिका के पास भी है. यहाँ सौ में से ८१ लोग ऐसा नसीब रखते हैं कि उन्हें कॉलेज की तालीम मिली है. आस्ट्रेलिया में यह आंकड़ा ७९ है. फ़्रांस में ५२ और इंग्लैण्ड में ५०.
अब बात करें भारत की.
१०० में से १२ लोग ऊंची पढ़ाई का यह फल चख चुके हैं, और विपक्षी दलों का कहना है कि सरकार ने यह आंकड़ा बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया है. आज से २० साल पहले यह आंकड़ा केवल ४ था. कहा यह जा रहा है कि अब सरकार ने उच्च-शिक्षा पर जो खर्चा कर दिया, उसके अनुपात में ही यह संख्या १२ बताई जा रही है, पर वास्तव में यह उपलब्धि भ्रष्टाचार के दलदल में फंस कर आधी रह गई है.
इसमें से भी यदि लड़कियों की शिक्षा की बात की जाएगी, तो शायद वह आरोप लग जायेगा, जो 'स्लमडॉग मिलेनियर', 'मदर इंडिया' या सत्यजित राय पर लगा था- "देश की छवि खराब की जा रही है."
लेकिन इस मुद्दे पर चुप होते-होते भी मन में यह ख्याल तो है कि इस गिनती में आगे निकलने का सपना देखे हर भारतवासी.    

Monday, November 14, 2011

फूल बनें अंगारे बनाम कहावतों का युग-बोध

बाल दिवस तो दुनिया भर के बच्चों का त्यौहार है, बच्चों ने इसे उमंग और उल्लास से मनाया भी, मगर 'बड़ों' के चेहरे इस दिन भी कुम्हलाये रहे, क्योंकि यह उन जवाहर लाल नेहरु का जन्म दिन था, जो कभी भारत के प्रधान मंत्री थे. अब तो वे केवल देश के पड़नाना हैं. दफ्तरों में टांगने के लिए तो हर पार्टी के पास अपने-अपने पूर्वजों की तस्वीरें हैं. हमारी इसी बटी-बिखरी भावना ने बालदिवस की गरिमा को भी  खंडित कर दिया है. कल यही बात कहनी चाही थी मैंने.
आज फूलपुर से यूपी के चुनावों का बिगुल बजता भी सुनाई दिया. गनीमत यह है कि बच्चे 'वोटर" नहीं हैं, वर्ना उन्हें बालदिवस का यह तोहफा ज़रूर नागवार गुज़रता. बच्चों को कुछ नापसंद हो तो फूलों को अंगारे बनते भी देर नहीं लगती. अंगारे सिर्फ दीपावली पर ही अच्छे लगते हैं, बाकी दिनों में तो ये बड़ी खतरनाक चीज़ है, हाथ से  छू भी जाएँ तो हाथ जल जाता है.खैर, हाथ और फूल का ये खेल तो पुराना है.
कहते हैं कि समय के साथ साथ सब बदल जाता है, भाषा भी, व्याकरण भी और कहावतें भी. जो लोग तेल की बढ़ती कीमतों से खुश होकर सोच रहे थे कि अब न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी, वे ये देख कर हैरान हैं कि तेल अब 'मन' में नहीं 'लीटर' में बिक रहा है और राधा की दिलचस्पी नाचने में नहीं, नचाने में है.  

Sunday, November 13, 2011

सूर्य के प्रकाश में

सुबह-सुबह पड़ोस में रहने वाले मित्र बता रहे थे कि उनका बेटा क्रिकेट की बाल लाने के लिए पैसे मांग कर बाज़ार चला गया.
सामने रहने वाले सज्जन से भी बात हुई, वे कह रहे थे आजकल पानी का प्रेशर बड़ा कम हो गया है, उनकी पत्नी बाथरूम में बाल धो रहीं थीं कि पानी चला ही गया.
मेरे एक मित्र दोपहर को आगये, बोले- इस तरफ आया था बाल कटवाने, तो आपकी तरफ भी मिलने चला आया.
आज रविवार था, यानि सन्डे, इस लिए सूर्य के प्रकाश में सभी ने अपने-अपने काम निबटा लिए- मेरे एक मित्र फोन पर बोले- मेरी बेटी के स्कूल में कल कोई फंक्शन है, उसके लिए बेटी कोई कविता मांग रही है, यदि बाल-साहित्य की कोई पत्रिका हो तो उन्हें देदूं.
मैं सोच में पड़ गया-"बाल दिवस" तो कल है, ये इन सब को आज क्या हो गया?   

इंसान सब कुछ नहीं है

ये कैसा कथन है?
दुनिया में इंसान के बिना क्या है? दुनिया का कौनसा ऐसा काम है जो इंसान के बिना होता है? करोड़ों सालों से ब्रह्माण्ड में कितने ही ऐसे ग्रह-नक्षत्र हैं, जो तरह-तरह की शक्तियां और प्राकृतिक ऊर्जा लेकर भी आकाश में सूने झूल रहे हैं, क्योंकि वहां इंसान नहीं है. उनका नाम रखने वाला तक कोई नहीं है, क्योंकि वहां इंसान नहीं है. इसका मतलब दुनिया में इंसान यानि आदमी ही सब कुछ है.
लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि स्विस फाउंडेशन ने ५ साल में १० लाख लोगों की राय से २२० देशों के ४४० स्थानों में से जिन "सात आश्चर्यों" को चुना है, वे सभी इंसानी मदद के बिना ही बने हैं.
चालीस हज़ार से ज्यादा किस्मों के पेड़-पौधे,तीन हज़ार से अधिक प्रजातियों की मछलियाँ और लगभग चार सौ तरह के रेंगने वाले जीव, इनमें से किसी का भी इंसानों से कोई लेना-देना नहीं. ब्राज़ील, वेनेज़ुएला, इक्वेडोर और पेरू की अरबों एकड़ ज़मीन में फैला यह नज़ारा दुनिया का सबसे आश्चर्यजनक स्थान आँका गया है.अमेज़न का यह जंगल किसी भी इंसान की मिल्कियत का हिस्सा नहीं है.
अब इस पर इंसान की नज़रे-इनायत हुई है, देखें, कब तक बचती है इसकी साख और धाक?  

Saturday, November 12, 2011

हम कौन सी तारीख को अच्छा और कौन से साल को बुरा कह दें?

सात अरब लोग जिस दुनिया में रह रहे हों, उसका कौन सा क्षण भला और कौन सा बुरा? क्या कोई ऐसी घड़ी है, जिस समय इन सभी का हित हो रहा हो? क्या कोई ऐसा काल है जब सब केवल दुखी या त्रस्त हों? कभी कोई ऐसा दिन आया जब सबकी मनोकामना पूरी हुई?
क्या धरती का कोई कोना ऐसा है जहाँ केवल सुख बसते हों? क्या कोई ऐसा देश है जिसने विपदा नहीं झेली?
तब कलेंडर हमें इतना उतावला क्यों बना देते हैं.
हाँ, एक दिलचस्प खेल, एक मज़ेदार संयोग के रूप में हम इस संयोग का स्वागत करें.
मेरी तो बात ही अधूरी रह गई इस दिन. न जाने क्या हुआ, न फोन चला न इंटरनेट. मैं इसीलिए कह रहा था कि आती-जाती रौनकें वक्त की पाबंद हैं, वक्त ही फूलों की सेज है और वक्त ही काटों का ताज.आदमी को चाहिए, वक्त से डरकर रहे.
ये फलसफा जो मैं आपको बता रहा हूँ, यह हमें बहुत सारे ऐसे लोगों की याद दिलाता है, जो अब हमारे बीच नहीं हैं.राज कुमार, सुनील दत्त, बलराज साहनी...
लेकिन इनके न होने से दुनिया रुकी नहीं है, अमिताभ बच्चन, शाहरुख़ खान, आमिर खान, सलमान खान, ऋतिक रोशन, अक्षय कुमार, सैफ अली, शाहिद कपूर, अजय देवगन, रणबीर कपूर हैं न.   

वक्त की पाबन्द हैं, आती-जाती रौनकें

कल तारीखों का एक अद्भुत संयोग आया था. सदी का ११वा साल,साल का ११वा महीना, महीने का ११वा दिन. मैंने सोचा था इस मौके में दिन का ११वा घंटा और घंटे का ११वा मिनट भी जोड़ कर, आपसे कुछ ख़ास बात करूँ. 

Tuesday, November 8, 2011

मेहनत तो जिंदगी का गहना है

जिंदगी में मेहनत ज़रूरी है. चाहे जीवन को भाग्य के सहारे काटिए, चाहे कर्म के सहारे, श्रम तो हर हाल में सभी को करना ही पड़ता है. 
जिस उम्र में आदमी घर पर नहाने-धोने के लिए भी बाल-बच्चों के कंधे का सहारा लेकर जाने लगता है, उस उम्र में अडवाणी जी सड़क पर देश को झिंझोड़ते हुए घूम रहे हैं.जिस उम्र में आदमी बोलने में अपनी आवाज़ नहीं बढ़ा पाता, उस उम्र में डॉ मनमोहन सिंह देश में महंगाई बढ़ा रहे हैं. 
जयललिता, ममता और मायावती उन राज्यों को गुड़िया की तरह खिला रही हैं जो कभी आसानी से किसी के काबू में नहीं आये.इंजीनियर, वैज्ञानिक और अफसर बनने के लिए बच्चे अठारह-अठारह घंटे पढ़ाई कर रहे हैं. देश की सीमाओं को सुरक्षित रखने के लिए सैनिक घंटों जी-जान से जुटे रहते हैं. 
यहाँ तक कि अपनी फिल्मों को सफल बनाने के लिए फ़िल्मी-सितारे तक कड़ी मेहनत कर रहे हैं. कैटरीना कैफ तो 'धूम-३' में अपने को तैराकी की पोशाक के लिए फिट बनाने को खूब फल खा रही हैं, खूब पानी पी रही हैं, खूब नींद ले रही हैं.
मेहनत से कौन बच सकता है, कांस्टेबल हो या कैटरीना?   

Monday, November 7, 2011

मैंने कहा था

यदि आज की मेरी पोस्ट पढ़ रहे हैं, तो कृपया मेरी  एक अगस्त की पोस्ट भी पढ़ लीजिये. तीन महीने सात दिन पहले मैंने दक्षिण अमेरिका के सौंदर्य के बारे में कुछ कहा था. इसमें मैंने खास हवाला दिया था वेनेज़ुएला का. 
पिछले रविवार को मिस वेनेज़ुएला इवियन लुनासोल सार्कोस २०११ की "मिस वर्ल्ड" चुन ली गईं. 
मैं जब वेनेज़ुएला के सौंदर्य की परिभाषा, वहां की सौंदर्य द्रष्टि और उनके मानदंडों की बात कर रहा था, तब तक यह वेनेज़ुएलाई सुंदरी मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए अपने देश से बाहर भी नहीं निकली थी. रनर-अप मिस फिलिपीन्स और मिस प्युर्टोरिको के साथ इवियन का विजेता बनना संयोग भी हो सकता है, किन्तु अपनी बात मैं फिर दोहराता हूँ कि दक्षिण अमेरिका के कुछ देशों में , जिनमें वेनेज़ुएला या चिली अग्रणी हैं, सुन्दरता की व्यक्तित्व-जनित वास्तविकता को काफी पहले पहचान लिया गया  है. यहाँ महिलाएं अंग-विन्यास के लिए मशक्कत नहीं कर रहीं, बल्कि उन बातों को सहजता से अंगीकार कर रही हैं जो गरिमामय औरत होने के लिए स्वाभाविक हैं. 
स्पर्धाओं में संयोगों को भी नकारा नहीं जा सकता. हमारी नाम-ज्योतिष की अवधारणा भी बिलकुल बेबुनियाद तो नहीं कही जा सकती. भारत सुंदरी 'कनिष्ठा' विजेता-क्रम में काफी कनिष्ठ, अर्थात जूनियर रहीं. 

Sunday, November 6, 2011

ग्रेटा गार्बो, मर्लिन मुनरो, एलिज़ाबेथ टेलर, एश्वर्या राय और सोफिया लॉरेन में तीन बातें समान

इतिहास के एक लम्बे दौर में समानताएं तलाश करना मुश्किल काम है. फिर यदि इतिहास भी पूरे विश्व का हो तो यह काम और भी कठिन हो जाता है. लेकिन अनुसन्धान करने वालों के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है. ऑस्ट्रेलिया के एक अनुसन्धान दल ने यह मुश्किल काम कर दिखाया है. इस दल में दो सदस्य हैं. ये दोनों ही पी.एच.डी.की डिग्री के अब संयुक्त पात्र बन चुके हैं. 
इन्होने मेक्सिको, स्वीडन, फ़्रांस और स्कॉटलैंड में किये अपने गहन अध्ययन से यह दुर्लभ और आश्चर्यजनक निष्कर्ष निकाला है कि ये पाँचों हस्तियाँ महिला हैं. 
इनका अध्ययन महिला सशक्तिकरण पर नहीं था, न ही इनका कुछ लेना-देना वीमेंस इश्यूज से था. इनके तो सामान्य सार्वभौमिक अध्ययन में यह अद्भुत निष्कर्ष निकल कर आया. 
इन शोधकर्ताओं ने  इस रहस्य पर से पर्दा उठाने में भी सफलता पाई है कि ये सभी महिलाएं कभी न कभी सिनेमा के क्षेत्र से जुड़ीं. इनकी सफलता-असफलता शोध कर्ताओं के अध्ययन का केंद्र नहीं थी, केवल यह संयोग ही कहा जायेगा कि ये पाँचों स्त्रियाँ अभिनय के क्षेत्र में दखल रखने वाली निकलीं. 
इनकी समानता इस तथ्य पर भी विस्मित करने वाली निकली कि ये सभी बनावटी सौन्दर्य को नापसंद करने वाली निकलीं. ये सभी शोध-कर्ताओं के अध्ययन में नैसर्गिक सुडौलता की कायल पाई गईं. 

Friday, November 4, 2011

सलमान, आमिर और आसिफ यहाँ भी हैं, और वहां भी

सूरज और चन्द्रमा ग्रह हैं, इंसान नहीं. और इस बात के लिए ईश्वर को लाख-लाख धन्यवाद. दुनिया बनाते समय ईश्वर के पास कोई अनुमोदित ब्ल्यू-प्रिंट तो था नहीं. यह भी हो सकता था कि आसमान में घूमने का काम भी इंसान ही करें. सूरज और चन्द्रमा होते ही नहीं. और होते भी तो उन्हें कोई और काम दे दिया जाता. हो सकता है कि वे किसी शॉपिंग माल के वाचमेन होते. 
और तब हमें कभी भी सुनने को मिलता कि आज सूरज ने किसी से पैसे ले लिए और वह उत्तर से उग गया. आज चाँद बीमारी का बहाना बना कर काम पे नहीं आया, इसलिए रात अँधेरी है. 
निदा फाजली के अनुसार जो यहाँ है, वही वहां भी है.
कभी किसी  ने कहा था कि खेल को खेल की भावना से खेलो. शायद खेल की भावना यही है कि खेल में भी "खेल" खेलो? 
क्या टूथ-पेस्ट की  ट्यूब से निकला मंजन वापस ट्यूब में डाला जा सकता है? क्या किसी स्टेडियम में बैठे हजारों दर्शकों की रोमांच भरी तालियों की गड़गड़ाहट को चंद सालों के बाद  वापस 'पिन ड्रॉप साइलेंस' में बदला जा सकता है? अरे, ये तो बहुत दूर की बात है, नोटों की वो गड्डियां ही उन जेबों से कोई निकाल कर बताये, जिनके लिए ये सारा खेल रचा जाता है. 

Thursday, November 3, 2011

मेयर और शेरिफ कोयले की खदान में हाथ काले करने वाले पद नहीं हैं

लोकतंत्र में सत्ता पांच साल के लिए 'बंटती' है. पांच साल तो बहुत छोटी सी अवधि है, इसमें तो कुए के मेंढक कुए में ही ढंग से तैरना नहीं सीख पाते, दूर-दराज के नदी-नालों की तो बात ही दूसरी है. मेरा मतलब यह है कि हर विजयी सत्ता इतना समय तो अपनी पार्टी के बारे में सोचने, अपनी गोटियाँ बैठाने और अगले चुनाव के लिए गोदाम भरने में ही निकाल देती है.दूसरों की ओर देखने की फुर्सत ही उसे नहीं मिल पाती.
इसीलिए बहुत सोच-समझ कर शासन में थोड़ी तटस्थता और निष्पक्षता रखने के लिए बड़े शहरों में कुछ मान-मर्यादा,बड़प्पन और शालीनता के  पद भी सामानांतर रूप से बनाये गए हैं,जो सांसदों और विधायकों की पार्टी-बाज़ी से शहरी क्रिया-कलापों को बचाए रख सकें. मेयर या शेरिफ ऐसे ही पद हैं. संभ्रांत, शिष्ट और सम्मानित सर्वमान्य लोग इन पदों पर आसीन हों और हर कार्य-समारोह की गरिमा बनाये रखें. इन पदों  पर ऐसे लोगों के "मनोनयन" की कल्पना की गयी थी जो सर्वस्वीकृत तो हों, पर चुनावी राजनीति में दिलचस्पी नहीं रखते हों. राजनीतिज्ञ तो हर बात को पार्टी चश्मे से देखने के अभ्यस्त होते हैं. 
किन्तु कुछ समय से देखने में आ रहा है कि राजनैतिक दलों की गिद्ध द्रष्टि इन पदों पर भी लग गई है. सत्ता के मद में यह पार्टियाँ इन पदों को भी जोड़-तोड़ और उखाड़-पछाड़ से हड़पने में जुट गई हैं, ताकि इन के लिए स्वीकृत बजट और सुविधाएँ भी निगल सकें. परिणाम-स्वरुप इन पर आये दिन ऐसे लोगों की नियुक्तियां हो रही हैं कि इनकी गरिमा बचना तो दूर, इन पर रोज़ कीचड़ उछल रही है. 
निर्दोष लोगों पर फटने वाले ज्वालामुखी, बेगुनाह लोगों का जीवन लीलने वाला आतंकवाद, निरीह लोगों के घर ध्वस्त करने वाले भूकंप, ऐसी सोच रखने वाले राजनीतिज्ञों को क्यों  छोड़ देते हैं?    

Wednesday, November 2, 2011

चीन को हार्दिक शुभकामनायें, भारत को हार्दिक शुभकामनायें

दोनों देशों को शुभकामनायें देने का यह अर्थ कदापि न निकाला जाये कि दोनों के बीच कोई घमासान, विवाद या अनबन की आशंका है. अभी ऐसा कुछ भी नहीं है. भगवान करे ऐसा कभी कुछ भी न हो.
और यदि ऐसी किसी आशंका के चलते शुभकामनायें दी भी जाएँगी तो किसी एक को ही दी जाएँगी न? किसी झगड़े में दोनों को जीतने की दुआ भला कौन देता है? हाँ, केवल एक ही स्थिति में दोनों पक्षों को जीतने का आशीर्वाद दिया जाता है. केवल तब, जब लड़ने वाले दोनों सगे भाई हों, और आशीर्वाद देने वाले बूढ़े माँ-बाप. 
फिर यहाँ तो कोई झगड़ा है भी नहीं.इसलिए इन शुभकामनाओं का लड़ाई-झगड़े से कोई लेना-देना नहीं है. 
असल में बात यह है कि कुछ लोग बात-बात में चीन और भारत को कोसते हैं, इन दोनों देशों की जनसँख्या को लेकर. जब भी विकास की बात आती है तो ये लोग मानते हैं कि इन दोनों देशों में सारी समस्याओं का कारण इनकी ज्यादा जनसँख्या ही है.अभी जब विश्व की जनसँख्या सात अरब के पार पहुंची, तो फिर कई लोगों ने चीन और भारत को हिकारत की नज़र से देखा. क्योंकि संसार की कुल जनसँख्या का  पैंतीस प्रतिशत से अधिक हिस्सा तो इन्हीं दोनों के खाते में है. मानव संसाधन के इस आधिक्य को दुनिया की उन्नति में रोड़ा बताया जा रहा है. 
यह ठीक है कि जनसँख्या पर नियंत्रण होना ही चाहिए, मगर केवल जनसँख्या ही सब समस्याओं की जड़ है, ऐसा मानने वालों को [जिनमें अक्सर मैं खुद भी  शामिल हो जाता हूँ] एक और तथ्य पर ध्यान देना चाहिए. 
दुनियां में अगर किसी धरती पर जनाधिक्य है, तो वह सबसे ज्यादा सिंगापूर में है. एक किलोमीटर के दायरे में सात हज़ार से ज्यादा लोग वहां रहते हैं. जनसँख्या का यह सर्वाधिक घनत्व सिंगापूर को सर्वाधिक सम्पन्न, विकसित और आधुनिक होने से नहीं रोक पाया है. यदि इस उदाहरण से भारत और चीन कोई प्रेरणा लेना चाहें तो दोनों को ही हार्दिक शुभकामनायें.    

Tuesday, November 1, 2011

किफायती अम्बानी जी और फ़िज़ूलखर्च राजू

राजू मेरा बहुत पुराना परिचित है. बल्कि कुछ साल पहले तो उसने मेरे पास काम भी किया था. वह मेरे बन रहे मकान का कुछ दिन केयर-टेकर रहा था. लेकिन मेरे पास उसे पैसा बहुत कम मिलता था. वह कहता था कि इस से तो उसका जेब-खर्च भी नहीं चलता. इसीलिए उसने काम छोड़ दिया. शायद उसने कोई दूसरी नौकरी पकड़ ली. 
एक दिन मिल गया. उसके हाथ में अखबार में लिपटा एक पैकेट था.मेरे पूछने पर बताने लगा- अभी-अभी बाज़ार से एक बनियान खरीदी है. 
क्यों, तूतो कहता था, कि बनियान खरीदना फ़िज़ूल-खर्ची है, गर्मी में खाली शर्ट से काम चल जाता है.मैंने कहा. 
वह सकुचाता हुआ बोला- ऐसे ही बाज़ार से गुज़र रहा था, सामने टंगी दिखी तो खरीद ली.वह अखबार का पैकेट खोल कर दिखाने लगा. 
मैंने आदतन अखबार ले लिया और चलते-चलते सरसरी तौर से पढ़ने लगा. वह बात करता साथ चल रहा था. 
अखबार में मुंबई में मुकेश अम्बानी के उस बहु-मंजिला गगन-चुम्बी मकान का फोटो था, जिसे दुनिया की  सबसे कीमती रिहायशी बिल्डिंग बताया जा रहा था. खबर थी कि कई अरब की इस इमारत में किसी वास्तुविद ने कुछ खामी बता दी थी, जिसके कारण इसमें फिर से रद्दोबदल की जा रही थी.
मुझे मकान मालिक से थोड़ी हमदर्दी हुई. "घर" तो इंसान की मूल-भूत ज़रुरत है. इसे तो बनाया ही जाना चाहिए. साथ ही मुझे यह देख कर और भी अच्छा लगा कि अम्बानी जी वास्तुविद के कहने से इसे ठीक करवा रहे हैं. क्योंकि वास्तु शास्त्र के हिसाब से नहीं बना मकान नुक्सान दे सकता है. इसे दुरुस्त करवा लेना नुक्सान से बचने की, यानि किफ़ायत से चलने की निशानी है. 
मैंने झट से अखबार राजू को लौटा दिया, कि कहीं वह मुझे मांग कर अखबार पढ़ने वाला कंजूस न समझे.    

Monday, October 31, 2011

इस तरह मुझे मदद करनी पड़ी उसकी

मैं उन दिनों मुंबई में था. प्रकाशजी पुणे में रहते थे. एक दिन हम कुछ मित्र  लोग फोर्ट एरिया में बैठे एक कार्यक्रम की रूपरेखा बना रहे थे.कार्यक्रम एक बैंक की जुबली मनाने के सन्दर्भ में था. 
प्रकाशजी के बारे में हमें सूचना मिली कि वे अगले सप्ताह मुंबई आने वाले हैं.मेरे एक मित्र ने कहा- क्यों न हम इस कार्यक्रम में चीफ-गेस्ट के रूप में प्रकाशजी को बुलाएँ?
प्रकाशजी खुद एक बैंक में रहे थे. संयोग से उसी बैंक में मैं भी कुछ समय रहा था. मित्र बोले- प्रकाशजी को हम यह बात बता कर याद दिलाएंगे तो वे ज़रूर कार्यक्रम में आने को तैयार हो जायेंगे. 
मैंने बैंक में संपर्क करके उनका प्रोग्राम पता लगाया तो मुझे यह जानकारी मिली कि वह केवल दो दिन के लिए ही आ रहे हैं. हमें उम्मीद हो गयी कि दो में से एक शाम वह हमें दे सकते हैं. हमने यह भी पता लगा लिया कि वह इन दो दिनों में मुंबई में कहाँ ठहरने वाले हैं. उनके एक निकट रिश्तेदार का पता भी हमें मिल गया. 
उनके रिश्तेदार से संपर्क करने पर पता चला कि वह ज़रूरी काम से मुंबई आ रहे हैं. दरअसल उनकी बिटिया की कोई परीक्षा थी जो दिलवाने के लिए ही वह आ रहे थे. 
प्रकाशजी के रिश्तेदार ने बताया कि वे इस दौरान न तो किसी से मिलेंगे और न ही किसी कार्यक्रम में शरीक होंगे, क्योंकि उनकी बेटी पढ़ने में बहुत होशियार है, और वह उसे टेस्ट से पहले बिलकुल भी डिस्टर्ब नहीं करना चाहते.
यह सुन कर हमने उन्हें इनवाइट करने का ख्याल छोड़ दिया. 
सुप्रसिद्ध बेडमिन्टन खिलाड़ी प्रकाश पादुकोणे उन  दो दिनों  के दौरान किसी से नहीं मिले.और इस तरह डिस्टर्ब न करके हमने भी उनकी बिटिया दीपिका पादुकोणे की मदद की.      

Sunday, October 30, 2011

मैडम करीना लन्दन में

मैं जब पिछले साल न्यूयॉर्क के मैडम तुसाद म्यूजियम में गया था, तो वहां घूमते हुए मुझे यह महसूस हुआ था कि इसमें भारतीय लोग कम हैं, कुछ और होने चाहिए. फिर हमें यह बताया गया कि लन्दन वाले संग्रहालय में भी  कुछ नए लोगों की प्रतिमाएं शोभायमान हैं. उन दिनों वहां ऐश्वर्या राय के होने की चर्चा ताज़ा थी. 
म्यूजियम तो प्राचीनता की संग्रह-स्थली होते हैं. नए लोग तो वैसे ही जन-भावनाओं में छाये हुए होते हैं. जिन लोगों को रोज़ मीडिया में देखा जा रहा है, वे तो वैसे भी म्यूजियम में रखे अप्रासंगिक ही लगते हैं. 
इसी सोच के चलते लगा था कि शायद वहां अब नर्गिस, मधुबाला, वैजयंतीमाला, मीना कुमारी, साधना, हेमा मालिनी, रेखा, श्रीदेवी, माधुरी दीक्षित, काजोल, रानी मुखर्जी के बीच से चुनी गई कोई शख्सियत देखने को मिलेगी. 
अमिताभ बच्चन और शाहरुख़ खान के बाद अशोक कुमार, राजकपूर, देवानंद, दिलीप कुमार, राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त, शम्मी कपूर, राजेश खन्ना आदि पर संग्रहालय के चयन-कर्ताओं का ध्यान जायेगा, यह भी उम्मीद जगी थी. 
लेकिन कहते हैं कि जो जीता वही सिकंदर.
करीना कपूर को भव्य और शानदार  बधाई, कि उन पर अंतरराष्ट्रीय जगत के प्रतिष्ठित लोगों का ध्यान गया. सैफ अली के पिताश्री को खोने की दुखद छाया जो पिछले दिनों उन्होंने झेली थी, उसे हटा कर अब इस कामयाबी की चमकती धूप उन्हें मुबारक.  

Saturday, October 29, 2011

अरी ओ शोख कलियो, मुस्करा देना वो जब आये.

उसके आने की आहट आ रही है.सबा से ये कहदो कि कलियाँ बिछाए, वो देखो वो जाने बहार आ रहा है. आएगा... आएगा... आएगा... आएगा आने वाला, आएगा. आइये आपका, था हमें इंतज़ार, आना था, आ गए, कैसे नहीं आते सरकार?आ जा जाने जाँ.
आगमन पर अगवानी की परंपरा बहुत पुरानी है.जब कोई आता है तो एक अजीब सी आशा उग जाती है. ऐसा लगता है कि जैसे अब कोई आ रहा है. अब तक जो थे, सब पुराने पड़ जाते हैं.जो थे, वो तो थे ही, उनका क्या? लेकिन जो अब आ रहा है, न जाने कितनी उम्मीदें लाये? 
एक बार उदयपुर  के महाराणा के महल में एक बड़ा समारोह हो रहा था. "मेवाड़ फाउंडेशन"के पुरस्कार बांटने का महोत्सव था. महल के भव्य और शानदार सज्जित दालान में हम सब बैठे थे. तभी अचानक जोर से बैंड बजने की आवाज़ आने लगी. मेरे साथ बैठी मेरी भतीजी मुझसे बोली- ये बैंड क्यों बज रहा है? तभी दिखाई दिया कि महाराज साहब अपने महल से निकल कर समारोह में आ रहे हैं. वह नन्ही बच्ची तुरंत बोली- ये अपने घर से निकलने में ही बैंड क्यों बजवा रहे हैं? इस बात का किसी के पास कोई जवाब नहीं था, इसलिए सब चुपचाप उन्हें आते देखने लगे. वे आ रहे थे. 
कहने का तात्पर्य यह है कि किसी का आना बड़ा ख़ास होता है, चाहे वह कितना ही आम हो. 
आने वाला तो अतिथि होता है, चाहे आम हो या ख़ास. 
वो कल आएगा. वो भारत में आएगा. भारत के उत्तर प्रदेश में. दुनियां के सात अरबवें बच्चे का स्वागत नहीं करेंगे?   

क्या घर में रौशनी का यही इंतजाम है

सब जानते हैं कि आदम और हव्वा का सफ़र एक साथ शुरू हुआ था. फिर भी बहुत सी बातें अलग-अलग हुईं. हमारे देश में तो शायद कोई नहीं जानता होगा कि देश में पहला पुरुष पुलिस अधिकारी कौन और कब हुआ. देश में पहला ज़ुल्म कब, कहाँ, किस महिला के साथ हुआ. 
पर यह एक सुखद संयोग है कि देश की पहली महिला आई पी एस अधिकारी के बारे में सब जानते हैं.इस महिला का पूरा कैरियर खुली किताब की तरह है. यह भी समय-सिद्ध है कि इस महिला ने अपने कर्तव्य-पालन में कभी कोई कोताही नहीं की. फिर भी सेवा-निवृत्ति के समय से पहले ही स्वैच्छिक सेवा-निवृत्ति ले लेने को विवश होना, इस महिला के कैरियर पर नहीं, बल्कि पुरुष समाज की मानसिकता  पर एक कलंक की तरह है.
डॉ. किरण बेदी इसके बाद भी केवल  दादी-नानी बन कर घर की रसोई के इर्द-गिर्द खर्च नहीं हुईं. उनका जीवन अब भी प्रखर राष्ट्रीय और मानवीय लक्ष्य को समर्पित है. आज केवल अन्ना हजारे की मुहिम में साथ देने के कारण उन पर ऐसे-ऐसे बचकाने आरोप लगाए जा रहे हैं, जो एक सामान्य पुलिस वाले की कमाई के समकक्ष भी नहीं हैं. जो लोग अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों को खलनायक सिद्ध करने पर तुले हैं, वे शायद नहीं जानते कि वे इतिहास के किन बदबूदार गलियारों में अपने भविष्य को गिरवी रख रहे हैं? 
और सबसे बड़ा अचम्भा यह है कि देश के अखबार अन्ना और साथियों के कार्टून छाप रहे हैं. काले अक्षरों पर पलने वाला मीडिया काले और सफ़ेद को पहचानने में गच्चा कैसे खा गया? 

Friday, October 28, 2011

इतिहास ने बहुत कन्फ्यूज़ किया है राजाओं को

राजा इतिहास बनाते हैं, इतिहास से बनते नहीं हैं. अब राजाओं का ज़माना तो रहा नहीं, फिर भी राजा रह गए, इक्का-दुक्का ही सही. 
लेकिन जितने भी रह गए, छाये हुए हैं. दस जनपथ के चौबारे से लेकर तिहाड़ तक राजाओं का ही बोलबाला है. 
कहते हैं कि पहले राजा लोग अपने दरबार में दरबारियों की ऐसी फौज रखते थे, जिसका काम केवल राजाओं की तारीफ करना ही होता था.वह फौज यह नहीं देखती थी कि राजा ने क्या किया? बस, जो किया उसका गुणगान करना ही उसका अकेला काम होता था. 
बाद में कुछ संतों ने कहा कि 'निंदक नियरे राखिये' तो कुछ दूरदर्शी राजाओं ने एकाध निंदक भी रखना शुरू कर दिया. लेकिन धीरे-धीरे राजा इस बात पर बिलकुल कन्फ्यूज़ हो गए कि निंदक रखें या चाटुकार? 
अतः राजाओं ने सोच समझ कर कुछ ऐसे दरबारी रखने शुरू कर दिए जो निंदा और स्तुति दोनों में ही पारंगत थे. वे अपनों की स्तुति करते थे और दूसरों की निंदा. 
समय ने पलटा खाया और लोकतंत्र में आम आदमी राजा बनने लगा तथा "राजा" दरबारी बनने लगे. राजाओं को निंदा और स्तुति, दोनों ही हुनर आते थे, अतः उनकी दूकान खूब चलने लगी. लोग केन्द्रीय मंत्री और मुख्य मंत्री की कुर्सियां छोड़-छोड़ कर दरबारी बनने लगे. जब भी आलाप लेते किसी न किसी अपने की तारीफ और पराये की बुराई कर देते. 
सुबह के सूरज के साथ-साथ कुछ न कुछ बोल देना, बस यह उनका काम हो गया. 
इतना ही नहीं, धीरे-धीरे राजा दरबारी मन्नतें भी मानने लगे. कभी मन्नत मांगते कि अन्ना भ्रष्ट हो जाएँ तो कभी दुआ मांगते कि कलमाड़ी निर्दोष हो जाएँ. अब जो हैं नहीं, वो कैसे हो जाएँ? 
तो राजा दरबारियों ने संशोधन कर लिया कि अन्ना भ्रष्ट "सिद्ध" हो जाएँ और कलमाड़ी ईमानदार "सिद्ध" हो जाएँ.  

Thursday, October 27, 2011

साओ लुईस में यह हवा सूरीनाम से ही पहुंची होगी

नई दिल्ली के प्रेस एन्क्लेव से एक पत्रिका निकलती है- "विश्व हिंदी दर्शन". इस पत्रिका की कई विशेषताओं में से एक यह भी है कि इसने दुनिया भर के कई देशों से लोगों को भारत से जोड़ा है. वैसे तो यह काम दुनिया की सारी एयर लाइंस करती ही हैं, पर इस पत्रिका ने लोगों को जोड़ने का काम एक विशेष माध्यम से किया है. 
कुछ साल पहले मुझे भी इसके एक आयोजन में जाने का मौका मिला था. उस कार्यक्रम में सूरीनाम, मॉरिशस, वियेना, त्रिनिदाद, इंडोनेशिया आदि देशों से कई लोग आये थे. मुझे हरिशंकर आदेश की अच्छी तरह याद है, जिन्होंने वहां बहुत मधुर प्रस्तुति दी थी. इस कार्यक्रम में कुछ विद्वानों से आरंभिक चर्चा के बाद ही मेरे उस आलेख की रूपरेखा बनी थी, जो अगले विश्व हिंदी सम्मलेन में प्रस्तुति के लिए स्वीकृत हुआ. 
तो मैं बात कर रहा था उस विशेष माध्यम की, जिससे दुनिया के कई कोनों में निवास कर रहे लोग एक मंच पर आते हैं- वह माध्यम है 'रामायण'. 
यह पत्रिका संसार के कई देशों में रामायण सम्मलेन और राम-कथा जैसे आयोजन भी करवाती रही है. आज शाम को दीपावली उत्सव के माहौल में मुझे वह वार्तालाप याद आ गया, जो आदेश जी को आमंत्रित करने के लिए एक सज्जन कर रहे थे. वे शायद साओ लुईस में किसी क्लब से जुड़े थे, जो ऐसे एक आयोजन के लिए इच्छुक था. ब्राजील की यह तटीय धरती भू-मार्ग से सूरीनाम से कितनी ही दूर हो, सागर के रस्ते से तो नज़दीक ही है. जो लहरें साओ लुईस के तट को छूती हैं, वही लहराती-इठलाती फ्रेंच गुएना होती हुई सूरीनाम को भी स्पर्श करती हैं.  

Wednesday, October 26, 2011

अभिषेक का अतिरेक

अभी ज्यादा समय नहीं गुज़रा है जब दुनिया की अधिकाँश बस्तियां काले मेघ से पानी बरसाने की गुहार लगा रही थीं. जब आसमान से पानी बरस रहा होता है तब थोड़ी देर के लिए ऐसा लगता है जैसे अम्बर धरती का स्नेह से अभिषेक कर रहा है. 
मगर "थोड़ी देर" के लिए.उसके बाद यदि आकाश जल बरसाना बंद न करे तो ऐसा लगता है जैसे प्यास बुझने के बाद भी कोई अंजुरी में नीर बहा रहा है, और अमृत बर्बाद कर रहा है. 
थाईलैंड का जलप्लावन ऐसा ही है. न जाने कब से पानी बरसता ही जा रहा है. बैंकॉक के हवाई-तलों पर पानी भर जाने से उड़ानें रद्द हो रहीं हैं और इस तरह शहर की यह अस्त-व्यस्त किंकर्तव्य-विमूढ़ता  दुनियां भर को प्रभावित कर रही है. 
ऐसा लगता है कि कई निर्दोष-निरीह लोग बिना किसी अपराध या भूल के अकारण कष्ट सह रहे हैं. 
क्या हम इक्कीसवीं सदी को युद्धस्तर पर प्रकृति के अन्याय के खिलाफ खड़े होने में खर्च नहीं कर सकते? पीड़ितों के लिए बार-बार आर्थिक सहायता जुटाना एक बात है, और पीड़ा के आगमन को निरस्त करने के लिए प्राण-पण से जुट जाना दूसरी. 
जैसे हम सब मिल कर अराजक शासकों को अपदस्थ करते हैं, क्या ऐसा कोई जरिया नहीं है कि हम उसी तरह एक-जुट होकर अनावृष्टि पर उतारू बादलों को अपदस्थ कर सकें? 
मैं गलियों में खेल रहे बच्चों से निवेदन करता हूँ, कि जब खेल कर अपनी पढ़ने की मेज़ पर आओ, तब इस बात पर ज़रूर सोचना.    

Tuesday, October 25, 2011

माना कि राम आज अयोध्या वापस लौट आये, पर ...

आज दीपावली के अवसर पर सब की तरह मीडिया भी बहुत खुश है. एक बड़े नगर के अखबारों ने लिखा कि पिछले दो दिन में नगर में अरबों रुपये का इतना कारोबार हुआ कि शहर सोने का हो गया. 
चलिए, मान लेते हैं कि शहर में १०० लोग रहते हैं. सब किसी न किसी तरह जीवन यापन करते हैं. आज त्यौहार था, सब हर्षित थे, सब उल्लसित थे, सब प्रमुदित थे. 
आज सबने नए कपड़े पहने,दर्जियों और कपड़ा विक्रेताओं की चांदी हो गई.आज सबने पकवान खाए, हलवाइयों और मिठाई विक्रेताओं की जेब भर गई. सबने आतिशबाजी का लुत्फ़ उठाया, पटाखे बेचने और बनाने वालों की जम कर कमाई हुई. सबने छुट्टियों का आनंद उठाया, अफसरों-कर्मचारियों की जेब में बिना काम किये पैसा आया. आज सबने रौशनी और सजावट की, सजावट वालों की जेब में खूब पैसा आया. आज सब एक-दूसरे से मिलने गए. वाहन मालिकों और पेट्रोल विक्रेताओं को खूब मुनाफा हुआ.सबने साफ-सफाई करवाई. सफाई कर्मियों और स्वच्छता का सामान बेचने वालों को पैसा मिला. 
"सब" को पैसा, मुनाफा, माल मिला. 
किसने दिया? 
सबने. 
सब कौन? 
 अरे वही-दर्जी, कपड़ा विक्रेता, हलवाई, मिठाई विक्रेता, पटाखा निर्माता और विक्रेता, अफसर और कर्मचारी, बिजली वाले-सजावट वाले, वाहन मालिक और पेट्रोल विक्रेता, सफाई वाले आदि-आदि 
इन्होंने दिया कि इन्हें मिला?
इन्हें एक चीज़ का मिला और इन्होंने दस चीज़ों का दिया. 
यानि कुल मिला कर "लक्ष्मीजी की चहलकदमी" इस जेब से उस जेब तक. 
तो शहर सोने का कैसे हुआ? 
'मिस प्रिंट'...शहर सोने का नहीं हुआ, बल्कि दीवाली मना कर सोने को हुआ.     

Monday, October 24, 2011

कौन बो गया इतना उल्लास, किसकी यादों से आ रहे हैं ये उजाले?

दुःख को गाना कभी नहीं छोड़ा जा सकता. दुःख और कष्ट से ही वो तान निकलती है, जिसे ईश्वर भी सुनता है.वह चाहे जहाँ हो, उस तक ये क्रंदन पहुँचता ही है. फिर उसे पश्चाताप होता है. वह सोच में पड़ जाता है कि यह क्या हुआ?वह दुःख की चादर को समेट लेता है.
और तब आ जाती है दीवाली. रौशनी और उमंग मिल कर कोना-कोना बुहार देते हैं, ताकि दुःख कहीं ठहर नहीं सके. 
आप सब को साल का यही पड़ाव मुबारक! दीवाली शुभ हो.    

कुछ दिन पहले टर्की की वह तसवीर न देखी होती तो आज मन बीमार न होता

कुछ समय पहले अमेरिका से लौटे मेरे एक सहकर्मी ने मुझे टूरिस्ट विभाग का एक पब्लिकेशन देखने के लिए दिया. देखने के लिए इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि उसमें पढ़ने के लिए इतना मैटर नहीं था, जितनी तसवीरें थीं. वह टर्की का प्रकाशन था. हम उस समय एक प्रेस्टीजियस प्रकाशन पर काम कर रहे थे. 
वे तसवीरें ऐसी थीं जैसे शीशे की सतह पर पारे से चित्र उकेरे गए हों. 
ढेर सारी तसवीरों में एक फोटो मुझे याद हो कर रह गई. उस फोटो में एक लड़का अपनी दुकान पर बैठा फल बेच रहा था. वे फल देखने में ऐसे लग रहे थे, मानो उन्हें सूंघ कर देखा तो खुशबू आने लगेगी. 
आज मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मेरा अपना कोई बाग़ उजड़ गया हो.जैसे मेरी याद के वे फल ज़हरीले हो गए हों. जैसे वह लड़का बेरोजगार हो गया हो, जिसे मैं जानता तक नहीं.कौन जाने, ज़ख़्मी ही हो गया हो? नहीं, इससे आगे नहीं सोचूंगा. बीज से अंकुर, अंकुर से पौधा, पौधे से पेड़, पेड़ से फूल, फूल से फल बड़ी मुश्किल से बनते हैं. किसी को हक़ नहीं है कि कोई फलों से भरे टोकरे को इस तरह मिट्टी में मिलादे. एक निर्दोष युवा सौदागर को बेवजह ज़ख़्मी कर दे. 
ये हक़ किसी को भी नहीं है, भूकंप को भी नहीं.   

Sunday, October 23, 2011

वे नब्बे साल के अनुभवी बुज़ुर्ग और वह सत्ताईस साल का नादान

उनकी उम्र नब्बे साल है. खुदा का शुक्र है कि अभी भी अपने सब काम वे अपने हाथों से करते हैं. कुछ दिन पहले वे आधी रात में बिस्तर से उठ कर शौचालय जा रहे थे, जो कुछ ही दूरी पर था. अचानक उन्हें ऐसा लगा जैसे 'भगवान शिव'स्वयं उनके सामने आकर खड़े हो गए हों. बिलकुल वही आकार-प्रकार जो वे रोज़ पूजा में देखते आये थे.वे हतप्रभ रह गए, और दोनों हाथ जोड़ दिए. संयोग से उस समय वह छड़ी  भी हाथ में नहीं थी, जो वे अमूमन साथ रखते हैं.
इतना ही नहीं, लौटते समय वही मूरत फिर उनके सामने आई. अबकी बार वे बोल भी पड़े- महाराज, क्यों मेरे सामने बार-बार आ रहे हो, क्या मुझसे कोई भूल हो गई? मूर्ति अंतर्ध्यान हो गई.
जब वे बिस्तर पर आकर लेटे, तो उन्हें ऐसा लगने लगा, मानो वे समुद्र की तेज़ लहरों में डूबते जा रहे हों. बार-बार लहरें उन्हें गहराई की ओर ले जा रही थीं, जैसे वे डूबते जा रहे हों. 
अगली सुबह वह बहुत प्रफुल्लित थे, और हर आने-जाने वाले को अपनी रात की आपबीती सुना रहे थे. वे यह देख कर और भी प्रमुदित थे कि रोजाना में उनकी बात अनसुनी  कर चले जाने वाले लोग भी आज उन्हें ध्यान से सुन रहे हैं.मानो दिन ही पलट गए उनके. 
उनके छोटे बेटे का लड़का डाक्टर था. उम्र कुल सत्ताईस साल, पर बेहद प्रखर बुद्धि वाला. वह दूसरे कमरे में बैठा अपनी दादी को प्यार से समझा रहा था कि दादाजी की आँख का मोतिया-बिन्द इतना पक गया है कि उन्हें कभी-कभी  अपनी परछाई भी काली,  आकार लेकर चलते फिरते दूसरे आदमी की तरह दिखाई देती है.रात को कभी-कभी उनका ब्लड-प्रेशर भी बहुत कम हो जाता है, खासकर शौच से आने के बाद. दादी हैरानी से देख रही थी कि यह वही छुटका है, जो पैदा होने के बाद उसके  हाथों से खरगोश की तरह फिसलता था.        

तेल तो दिखा पर तेल की धार नहीं दिखी

राजस्थान का बाढ़मेर  जिला भारत और पाकिस्तान की सीमा का बड़ा भाग बनाता है. रेगिस्तान तो यह है ही. कुछ समय पहले इस क्षेत्र में भारी मात्रा में तेल होने का पता चला था. प्रधानमंत्री ने यहाँ एक टर्मिनल का उदघाटन किया और एक प्रसिद्द कंपनी के माध्यम से तेल निकलना शुरू हो गया.राज्य सरकार को काफी रायल्टी भी मिली.
लेकिन कुछ समय के बाद इतना तेल देख कर एक मंत्रीजी चिकने हो गए. उन पर से देश सेवा की भावना फिसल कर मिट्टी में मिल गई.उन्होंने उसी तेल में कम्पनी को भी तल दिया.
ज़मीन के ऊपर उदघाटन- भाषण चलते रहे, ज़मीन के भीतर से तेल रिस कर जेबों में पहुँचता रहा. भारत-पाकिस्तान की सीमा तो ज़मीन के ऊपर थी, धरती के गर्भ में तो सब मौसेरे भाई थे. 
ख़ुशी की बात यह है कि देश की कुंडली में कुछ नक्षत्र टेढ़ी चाल वाले हैं तो कुछ सीधी चाल वाले भी हैं. 
 महामहिम राष्ट्रपति महोदया ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय को पत्र भेज कर मामले में दखल देने और आवश्यक कार्यवाही करने का अनुरोध किया है. 
तेल-पेट्रोल महंगा है, पर खूब है. अब देखना यह है कि जैसे ज़मीन खोद कर तेल निकाला जा रहा था, वैसे ही सच्चाई खोद कर तेल की धार कब निकाली जाती है?    

Saturday, October 22, 2011

अमेरिका ने कह दिया, अब ज़रूर कुछ न कुछ हो जायेगा.

अमेरिका की साख केवल अंतर-राष्ट्रीय मुद्दों पर ही प्रभाव नहीं रखती, बल्कि कई देशों के स्थानीय विवादों में भी मार्गदर्शक बनती है.
राजस्थान भारत का सबसे बड़ा प्रान्त है. भारत के कई राज्य , जिनमें छोटे-छोटे राज्य भी शामिल हैं, अपनी-अपनी भाषा को मान्यता दिए हुए हैं. कई भाषाओँ को तो सरकारी राजभाषा के समकक्ष भी दर्ज़ा मिला हुआ है. लेकिन राजस्थानी भाषा को मान्यता की बात जब भी आती है, कहा जाता है कि राजस्थान की कोई एक भाषा नहीं है, जिसे राजस्थानी कहा जा सके. यहाँ मेवाड़ी, मारवाड़ी, हाडौती, ढूँढाडी, शेखावाटी आदि कई भाषाएँ हैं. 
यह तर्क अन्य राज्यों में नहीं चल रहा.जिन राज्यों ने अपनी क्षेत्रीय भाषा को मान्यता देरखी है, वहां भी एकाधिक भाषाएँ हैं.
पिछले दिनों अमेरिका की संस्था "राना" ने भी इस बात का समर्थन किया कि राजस्थानी को मान्यता मिलनी ही चाहिए. ऐसा वहां रह रहे राजस्थानी परिवारों की राय जानने के बाद कहा गया. 
देखने में आ रहा है कि राना की इस आवाज़ के बाद यहाँ भी मांग करने वालों की हलचलों में ताजगी आई है और उन लोगों ने भी इस मुद्दे को गंभीरता से देखना शुरू किया है, जो अब तक इस पर उदासीनता अपनाए हुए थे.    

आकाश गंगा में एक वही याद है अब

मीना कुमारी छत्तीस साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गई. दिव्या भारती ने तो पूरे दो दर्ज़न वसंत भी नहीं देखे. मधुबाला ने चालीस का आंकड़ा नहीं छुआ. संजीव कुमार जिस उम्र में गए वो दुनिया से जाने की उम्र नहीं थी. विमी चढ़ती उम्र में बतौर नई हीरोइन ही रुखसत हो गई.विनोद मेहरा आखरी वक्त में युवक ही थे.

वर्षों पहले की बात है. मैं मुंबई के चेम्बूर स्टेशन से उतर कर पैदल ही घूमता हुआ वसंत सिनेमा तक जा रहा था. वहां तक एक शॉर्ट कट भी था, और आर के स्टूडियो की ओर से घूम कर लम्बा रास्ता भी जाता था. उस दिन थोड़ी फुर्सत में था, इसलिए लम्बे रस्ते से जा रहा था. 
वीरू देवगन [तब अजय देवगन स्टार नहीं थे] के घर से नूतन के मकान के सामने होता हुआ मैं राजकपूर के बंगले तक पहुँचता, इससे पहले ही एक बंगले की बालकनी में मैंने शूटिंग का सेट लगा हुआ देखा. ज्यादा भीड़-भाड़ नहीं थी, कुछ लोग नीचे से ही रंधीर कपूर और स्मिता पाटिल को देख रहे थे. स्मिता पाटिल कोई विशेष मेक-अप में नहीं थीं. लेकिन थोड़ी सी देर रुक कर स्मिता  पाटिल की एक मिनट की शूटिंग देखने में न जाने कैसा प्रभाव पड़ा कि कुछ दिन बाद जब मैंने फिल्मांकन की द्रष्टि से नई कहानी लिखी तो उसकी नायिका में पूरी तरह स्मिता पाटिल की ही झलक थी. 
मैंने वह कहानी स्मिता पाटिल को ही भेज दी. वह ऐसा समय था जब बड़े सितारे अपनी फैन-मेल खोल कर भी नहीं देखते थे, लेकिन स्मिता पाटिल का पेन्सिल से लिखा जवाब आया कि मैं कहानी उनके किसी निर्माता को भेजूं, वे किसी कहानी के मामले में बिलकुल दखल नहीं देतीं. 
स्मिता पाटिल कुल इकत्तीस साल की उम्र में दुनिया से चली गईं.राज बब्बर से उनका विवाह हुआ था. आज उनके बेटे की एक तस्वीर देखी तो उन्हें याद करने का मन हुआ.  

Friday, October 21, 2011

टैरी थोम्प्सन के शेरों ने गद्दाफी से बोलना क्यों नहीं सीखा ?

भाषा वास्तव में बहुत अहम है.बोलना आना चाहिए. कहते हैं कि जिसे बोलना आता है वह बाज़ार में खड़े होकर मिट्टी भी बेच देता है.और जिसे बोलना नहीं आता, उसकी दुकान पर सोना भी बिना बिका रखा  रहता है.कीमत सोने या मिट्टी की नहीं है, वाचालता की है. 
अमेरिका के ओहायो नगर में जब टैरी थॉम्पसन ने अपनी जीवन लीला समाप्त करने से पहले अपने पालतू पशुओं को आज़ाद किया होगा, तब उसके चेहरे पर संतोष का वही भाव आया होगा, जो किसी पिंजरे से परिंदों को आज़ाद करके हवा में छोड़ते वक्त किसी इंसान के चेहरे पर आ सकता है. उसने सोचा होगा कि जब उसे भवसागर से मुक्ति मिल रही है तो वह क्यों किसी को बंधन में जकड़ कर रखे? लेकिन उन पशुओं में से कुछ कर्नल गद्दाफी की फितरत के थे. शायद इसीलिए उन्हें गोली का निशाना बनना पड़ा. और उन्हीं के साथ कुछ वे भी मारे गए जो शायद उतने खतरनाक नहीं थे. लेकिन एक बात है. ये बेजुबान जानवर शायद लीबिया के स्वयं-भू सुलतान जैसी किस्मत वाले नहीं थे, जो अपने आखिरी वक्त में कर्नल की तरह "डोंट शूट" की गुहार लगा कर कम से कम अपने जीवन के लिए एक आखिरी अपील तो कर सकें. इसलिए निर्विरोध मारे  गए.
जीवन-दान तो कर्नल गद्दाफी को भी नहीं मिला, लेकिन उसे भाषा-ज्ञान के चलते अपने क़त्ल करने वालों को कम से कम एक बार मन से कमज़ोर करने का मौका तो ज़रूर मिला. 
गद्दाफी और शेरों की तुलना इसलिए नहीं की जा रही कि दोनों एक से स्वभाव के थे. शेर तो इसलिए नरभक्षी थे क्योंकि उन्हें पशु-जीवन मिला था.पर गद्दाफी को मानव जीवन मिला था. फिर भी दोनों ने अंत एक सा पाया. 
और अंत भी एक सा कहाँ पाया? शेरों की मौत पर तो दुनिया भर से सहानुभूति की लहर आ रही है. गद्दाफी की मौत को धरती को मिले एक सुकून की तरह देखा जा रहा है. आतंक को खेल समझने वाले इससे कोई सबक ले पाते तो एक उपकार और होता धरती पर.      

Thursday, October 20, 2011

बीरबल कहाँ जानता था घटाना

एक बार शहनशाह अकबर किसी से किसी बात पर खुश हो गए. खुश होने पर उन्होंने सामने वाले को मुंह माँगा इनाम देने का ऐलान कर दिया.सामने वाला भी कोई संत-फ़कीर था, बोला- मैं इनाम-इकराम का क्या करूंगा, मुझे तो जहाँपनाह  की ओर से पेट भरने को थोड़ा चावल मिल जाये. अकबर ने कहा इसे सेर-दो सेर चावल देदो. फ़कीर फिर बोल पड़ा- हुज़ूर, इतना बेहिसाब अन्न लेकर क्या करूंगा, मुझे तो गिनती के दाने मिल जाएँ. बादशाह उस समय बीरबल के साथ शतरंज खेलने में मशगूल थे, बोले- मुंह से बोलो तो सही, कितनी गिनती आती है तुम्हें?फकीर ने कहा- ज्यादा लालच नहीं है जहाँपनाह, एक दाना अपनी शतरंज के पहले खाने में रख दीजिये. फिर अगले खाने में दो, उससे अगले में चार ... बस इसी तरह दुगने करते जाइये. हुज़ूर की शतरंज पर कुल जितने दाने आ जायेंगे, ख़ाकसार उतने पर ही गुज़र कर लेगा. 
बादशाह को ऐसी गिनती फ़िज़ूल अपने खेल में दखल जैसी लगी. फिर भी बात ज़बान की थी, गिनकर चावल देने का हुक्म दे दिया. 
पहले खाने में एक, दूसरे में दो, तीसरे में चार, चौथे में आठ, पांचवें में सोलह, छठे में बत्तीस, सातवें में चौंसठ, आठवें में एक सौ अट्ठाईस, नवें में दो सौ छप्पन, दसवें में पांच सौ  बारह,ग्यारहवें में एक हज़ार चौबीस, बारहवें में दो हज़ार अड़तालीस,तेरहवें में चार हज़ार छियानवे, चौदहवें में आठ हज़ार एक सौ बानवे, पन्द्रहवें में सोलह हज़ार तीन सौ चौरासी... 
माफ़ कीजिये, क्या आप मेरी हेल्प करेंगे? बस इसी तरह चौंसठ खानों तक गिन कर सभी खानों के चावलों की संख्या को जोड़ दीजियेगा. इतने चावल चाहिए फ़कीर को. 
हाँ, एक बात और. हमारे प्रधान-मंत्री मनमोहन सिंह जी ने कहा है की जल्दी ही मंहगाई घटने वाली है. इसलिए कुल टोटल में बोनस के चार चावल और घटा  दीजिये. महंगाई इतनी तो घटेगी ही न ?  

Wednesday, October 19, 2011

क्या आपसे भी पूछा है किसी ने ऐसा सवाल?

मुझे एस एम एस के ज़रिये किसी ने एक सवाल पूछा है. वैसे तो इस सवाल की अनदेखी भी की जा सकती है, पर पूछने वाले ने कहा है कि यह इनामी सवाल है. मैं इस सवाल को आपके साथ शेयर कर रहा हूँ. यदि मदद करेंगे तो शायद मेरा काम बन जाये. यदि सवाल पूछने वाला 'फ्रॉड' नहीं हुआ और उसने इनाम भी दे दिया, तो इनाम में आपका शेयर पक्का. सवाल यह है- 
"यदि देश की जनता दुखी हो तो वह सुखी कैसे होगी?" उत्तर के लिए पांच ऑप्शन भी दिए हैं [शायद सवाल पूछने वाला 'कौन बनेगा करोड़पति'नहीं देखता, उसे ये भी पता नहीं है कि ऑप्शन चार होते हैं, पांच नहीं] खैर, उसने ये ऑप्शन दिए हैं- 
[ए] भूखे रहने से 
[बी] चुप रहने से 
[सी] कसरत करने से 
[डी] यात्रा करने से 
[इ] कुछ नहीं करने से 
जहाँ तक मेरा दिमाग जाता है, मुझे तो इनमें से कोई भी ऑप्शन सही नहीं लगता, पर परेशानी यह है कि 'नन ऑफ दीज' का ऑप्शन है ही नहीं. आप ही देखिये- भूखे रहने से अन्न सड़ कर जाता है, जिससे किसान दुखी होता है. चुप रहने से पार्टियों के प्रवक्ता बोलते हैं, जिससे टीवी चैनल दुखी होते हैं. कसरत करने से बीमार हो जाते हैं, जिससे डाक्टर दुखी होते हैं[एलोपैथिक] यात्रा करने से मीडिया दुखी हो जाता है और पूछता है- आप सब जगह अब घूम रहे हैं, आपने देश पहले क्यों नहीं देखा, या फिर आप जनता की समस्याएं पूछने जा रहे हैं, आपको मालूम नहीं हैं? कुछ नहीं करने से वोटर दुखी होते हैं, 'इन्हें संसद में क्या करने भेजें'?और न भेजें तो और भी मुश्किल, ये बाहर क्या करेंगे? 

Tuesday, October 18, 2011

बड़े भाईसाहब की छोटी कहानी [भाग-तीन]

अब तक आपने पढ़ा- उन्होंने चारों तरफ से पैसा उधार लेकर, अपनी सारी जमापूँजी लगा कर किसी तरह फिल्म बना तो ली, पर वह सेंसरबोर्ड में अटक गई. कुछ लोगों की मदद से उसे सेंसरबोर्ड से तो छुटकारा मिल गया, किन्तु उसे सिनेमाघर ने रिलीज़ करने के लिए बड़ी राशि की मांग की. अब कहीं से आसानी से उधार मिलने की गुंजाइश नहीं थी, इसी से फिल्म की रिलीज़ टलती रही. अब आगे- 
अब फिल्म को रिलीज़ करने का काम ही बचा था, अर्थात क्लाइमेक्स, अतः भाईसाहब ने सोचा, कि अब यदि ज़रूरी राशि किसी एक ही व्यक्ति से ली गई तो पूरे प्रोजेक्ट की सफलता का श्रेय उसे ही जायेगा फिर आसानी से इतनी बड़ी राशि किसी से मिल पाना आसान न था, क्योंकि वे अपने सारे संपर्कों से धन पहले ही ले चुके थे.इसलिए ऐसी रिस्क न लेकर उन्होंने थोड़े दिन इंतजार करना बेहतर समझा, कि शायद समय के साथ कोई रास्ता निकल आये.
उधर समय बीत रहा था, इधर परिचित रोज़ पूछ रहे थे कि फिल्म कब रिलीज़ होगी?आखिर उन्होंने फिर बूँद-बूँद से घड़ा भरना शुरू किया. जहाँ से भी हो सकता था, जैसे भी हो सकता था, खर्चों में कंजूसी की हद तक कमी करके, घरवालों की बेहद ज़रूरी अपेक्षाओं की अनदेखी करके और कुछ चालाकी-बेईमानी तक करके एक उल्लेखनीय राशि जोड़ ली. रिटायर हो जाने के कारण वे घर में रहते थे, इसी से आस-पास के कुछ लोग अपने बिल आदि जमा करने के लिए उन्हें दे देते थे. इस अमानत में खयानत करने में भी उन्होंने गुरेज़ नहीं किया.असल में उनके मन में यह विश्वास बैठा हुआ था कि फिल्म रिलीज़ होते ही उसकी आय से वह सभी का पैसा कई गुना करके लौटा देंगे. 
जो सिनेमाघर मालिक उनसे पूरे पैसे एडवांस  मांग रहा था, उसे वे राशि दे बैठे.सिनेमाघर मालिक अनुभवी था, उसने शायद ताड़ लिया कि इस फिल्म को रिलीज़ करने में न उसे कुछ मिलेगा, और न उन्हें. उसने लालच और चालाकी से काम लिया. कहा- एक शो ट्रायल का चला देते हैं, जिससे प्रोजेक्शन का सही एडजेस्टमेंट पता चल जाये. भाईसाहब ख़ुशी से इतने उत्तेजित हो गए कि उन्होंने ट्रायल-शो देखने के लिए फोन कर-कर के अपने मित्रों-शुभचिंतकों और पड़ोसियों को बुला लिया. इस तरह संभावित दर्शकों ने भी मुफ्त में फिल्म देखी.
सिनेमाघर मालिक ने उन्हें रील में कोई तकनीकी कमी बता कर उसे दिल्ली भेजने और कुछ खर्च और करने का सुझाव दे दिया. अब वे दिल्ली जाने तथा वहां होने वाले खर्च के लिए फिर किसी जुगाड़ और लाचारी-भरे इंतजार में हैं. जिन लोगों के फिल्म टिकट लेकर देखने की ज़रा सी भी सम्भावना थी, वे उसे मुफ्त में देख चुके हैं. [शेष आगे कुछ होने पर].     

Monday, October 17, 2011

उनकी अर्थव्यवस्था को 'सन्डे' अलग करता है.

एक फ़्लैट में आठ लोग एक साथ रहते थे. वे सब समान आय वाले,समान उम्र वाले या समान स्वभाव वाले नहीं थे, किन्तु महानगर में अकेले रह कर नौकरी करते थे, इसलिए सबकी सुविधा के लिए एक साथ रहते थे. 
उनमें से एक की आय ५० हज़ार, दो की ३०-३० हज़ार, दो की २५-२५ हज़ार,एक की २० हज़ार और शेष दो की १५-१५ हज़ार थी. 
यदि हम प्रति-व्यक्ति आय की बात करें तो वह भी सभी के मामले में अलग-अलग थी, क्योंकि उनके परिवारों के सदस्यों की संख्या भी अलग-अलग थी, जिन्हें वे अपनी आमदनी में से एक बड़ा भाग बचा कर हर महीने भेजते थे. उनके परिवारों का आर्थिक स्तर,सामाजिक स्तर और रहन-सहन भी अलग-अलग था. 
उनके बीच कॉमन केवल यही एक बात थी कि वे एक ही मकान में एक साथ रहते थे. सप्ताह के छह दिन उनके बीच किसी भी तरह का मतभेद, विवाद या अलगाव नहीं दिखाई देता था क्योंकि वे सुबह ही अपने-अपने काम के लिए निकल जाते थे, और रात को घर लौट कर एक सा बना हुआ खाना 'शेयर' करके आराम से सो जाते थे. ऐसा ही सुबह के नाश्ते के समय होता कि जो भी बना हो, वे उसे एक से चाव से खाकर चले जाते थे. 
केवल सन्डे के दिन स्थिति ज़रा अलग होती. उस दिन सभी की छुट्टी रहती थी. सुबह का नाश्ता वे अपनी-अपनी पसंद से लेते थे. लंच के समय भी -क्या खाया जाय, कहाँ खाया जाय, यह आसानी से तय नहीं हो पाता था, क्योंकि इस पर सब अपनी अलग राय रखते. कोई किफ़ायत से खाना चाहता, कोई बढ़िया खाने की इच्छा रखता. जब वे मनोरंजन के लिए जाते, तब भी वे सभी एकमत नहीं हो पाते. कोई मुफ्त का दिल-बहलाव चाहता तो कोई मनोरंजन पर भी तबीयत से खर्च करना चाहता. जब शॉपिंग की बात होती तब भी सबकी पसंद अलग-अलग बाज़ार या भिन्न -भिन्न दुकानें होती. 
रविवार को उनका व्यवहार देख कर यह अनुमान लगाना भी मुश्किल था कि ये सब छह दिन एक साथ कैसे रहते हैं? उनके फ़्लैट-मालिक को भी यह देख कर हैरत होती कि किराया चुकाने की इच्छा भी उनमें अलग-अलग है. कोई बिना मांगे दे जाता है, किसी से कई बार कहना पड़ता है. 
अमेरिका, जर्मनी, इंग्लैण्ड, फ़्रांस, चीन, जापान, भारत, अरब, सिंगापूर, मंगोलिया, पेरू, लेबनान या टर्की की इकोनोमी के सामाजिक-आर्थिक- राजनैतिक प्रभाव सामान्य दिनों में आसानी से नहीं आंके जा पाते.     

Sunday, October 16, 2011

सब है महिमा राम की, इसमें इन का क्या कसूर है?

सभी को आश्चर्य होता था, कि लोग उन्हें तुलसीदास न कह कर 'नेताजी' क्यों कहते हैं? वैसे उन्होंने या उनकी जानकारी में उनके किसी परिजन ने कभी रामायण पढ़ी नहीं थी, किन्तु शायद कभी किसी पूर्वज ने पढ़ ली होगी, उसी के पुण्य प्रताप से उन्हें रामायण के पात्रों से गहरा लगाव हो गया था. 
वे बताते थे कि जैसे राम को घर से वनवास मिल गया था, वैसे ही उन्हें भी कालेज से निष्कासन  मिल गया था.लोग कहते थे कि जैसे रावण ने सीता पर बुरी नज़र डाली थी, यह तो उनका रोज़ का काम था.अपनी लंका को सोने की बना लेने में जी-जान से जुटे ही थे. केवट से प्रभावित होकर उन्होंने देशी-विदेशी पुराने जहाज़[वे शिप को बड़ी नाव ही मानते थे] खरीदने-बेचने का कारोबार भी कर लिया था.हाल ही में उन्होंने दिल्ली में एक होटल भी खोल लिया था. लोग उनसे पूछते थे- इसमें क्या कन्द-मूल फल परोसेंगे?कुछ दिन बाद होटल पर बोर्ड भी लग गया- शबरी लंच होम. 
वे गर्व से बताते थे-ये वीआइपी इलाका है, सब बड़े-बड़े लोग रहते हैं, सबकी रसोई में ढेर सारा भोजन बनता है, लेकिन सब चिड़ियों की तरह खाते हैं, ज़रा-ज़रा सा.बाक़ी नौकर-चाकरों के काम आता है या फिर फेंका जाता है. 
तो? किसी ने पूछा. 
वे बोले- तो क्या, राजतन्त्र की तरह ही लोकतंत्र में भी जनता अपने राजाओं का जूठा खाना पसंद करेगी. यह तो जनसेवा है, अन्न बचाने की योजना है. 
किसी ने कहा-लेकिन आप जैसा समझ रहे हैं, वैसा है नहीं, राजतन्त्र में तो जनता ने प्रेम से राजा को जूठा खिलाया था, राजा का जूठा खाया नहीं था.
वे खिसिया कर सर खुजाने लगे. बोले- हाँ, तो मैंने कौन सी रामायण पढ़ी है, जब राजा ने जूठा खाया तो जनता को खाने में क्या परेशानी है?      

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...