"देने वाला छोटा और पाने वाला बड़ा" यह अफ़्रीकी देशों का फलसफा हरगिज़ नहीं हो सकता. यदि कोई ऐसा सोचता है तो यह सचमुच अफ्रीका, और कम से कम दक्षिण अफ्रीका के साथ तो ज्यादती ही है. वास्तव में देखा जाये तो यह उन लोगों का फलसफा है जो अफ्रीका में जा कर मालामाल हुए हैं. भारत और अन्य एशियाई देशों से हर साल हज़ारों की संख्या में लोग अफ़्रीकी देशों में जाते रहे हैं. कई तो पीढ़ियों से वहां हैं. पर विस्मय की बात यह है कि धन कमाने के लालच में वहां जाने वाले, और अरबों की दौलत वहां से बटोर कर लाने वाले लोग लौटने के बाद उन देशों की छवि पिछड़े और गरीब राष्ट्रों की बनाते हैं. इस छवि को सुधारने या बदलने का प्रयास करता हुआ कोई नहीं दिखाई देता.न ही इन लोगों से कोई यह पूछने वाला है, यदि वह पिछड़े और गरीब मुल्क हैं तो वहां जा क्यों रहे हो? और ऐसे देशों से मालामाल होकर कैसे लौट रहे हो, जिनके पास कुछ नहीं है. क्या यह कोई चमत्कार है या जाने वालों के पास कोई जादू की छड़ी है? जिसे वहां घुमा कर पेड़ों से नोट बरसाए जाते हैं, या ज़मीन खोद कर अशर्फियाँ निकाली जाती हैं. वहां की प्राकृतिक संपदा और कीमती वन्य-प्राणी उत्पादों की कीमत इन व्यवसाइयों को धनकुबेर बना रही है. परन्तु फिर भी इनकी नज़र में देने वाला छोटा और पाने वाला बड़ा. भारत में तो अफ़्रीकी संपदा की कैफियत लोक कथाओं की भांति प्रचलित है.पर जब किसी भारतीय को विदेश-भ्रमण का प्रस्ताव दिया जाये तो उसकी प्राथमिकता में सम्पन्न देश पहले आते हैं, अफ़्रीकी देश बाद में. हम उन देशों का नाम तो चाव से लेते हैं, जो अपने उत्पादों के बदले हमारी दौलत आसानी से ले लेते हैं, उन देशों को भूल जाते हैं जो हमारे लोगों को धनाड्य बना रहे हैं.
प्रकाशित पुस्तकें
उपन्यास: देहाश्रम का मनजोगी, बेस्वाद मांस का टुकड़ा, वंश, रेत होते रिश्ते, आखेट महल, जल तू जलाल तू
कहानी संग्रह: अन्त्यास्त, मेरी सौ लघुकथाएं, सत्ताघर की कंदराएं, थोड़ी देर और ठहर
नाटक: मेरी ज़िन्दगी लौटा दे, अजबनार्सिस डॉट कॉम
कविता संग्रह: रक्कासा सी नाचे दिल्ली, शेयर खाता खोल सजनिया , उगती प्यास दिवंगत पानी
बाल साहित्य: उगते नहीं उजाले
संस्मरण: रस्ते में हो गयी शाम,
Tuesday, May 31, 2011
Monday, May 30, 2011
आन-बान-शान से तेरे कूचे से हम निकले
आपने अवश्य पढ़ा होगा कि कई बड़े साहित्यकार और लेखक विभिन्न सरकारी नौकरियों को छोड़ कर साहित्य के क्षेत्र में आये. ऐसे भी अनेक किस्से आपके सुनने में आये होंगे कि कई लेखक किसी न किसी कारणवश अपनी नौकरियां पूरे समय [सेवा निवृत्ति] तक नहीं कर पाए. यह भी लगभग सर्वमान्य सत्य है कि कम से कम भारत में केवल साहित्य या लेखन के सहारे कोई आजीविका नहीं चला सकता.फिर भी नौकरियों को छोड़ना क्या लेखकों की अपनी मर्ज़ी से होता है? या वे सहजता से कार्य नहीं कर पाते ?वे अपने अधिकारियों व मालिकों को प्रायः संतुष्ट नहीं रख पाते. अनेक लेखकों की आत्म-कथाएं पढने और उनके स्पष्टीकरणों को जानने के बाद कहा जा सकता है कि लेखकों द्वारा नौकरी न कर पाने के पीछे प्रायः प्रमुख कारण यह होते हैं-
नौकरी का अर्थ है, कि कोई आपके समय और मानसिक दौलत का मूल्य चुका रहा है, जिसके बदले ये चीज़ें आपसे चाहता है. लेखक प्रायः इन दोनों ही चीज़ों को अपनी निजी मिल्कियत समझते हैं, इसलिए लम्बे समय तक इनका मोल नहीं दे पाते. इस से नौकरी का करार टूट जाता है या तोडना पड़ता है.
समाज सबका मूल्यांकन पैसे, प्रतिष्ठा या पद से करता है. लेखक अपना मूल्यांकन-पैमाना इन बातों को नहीं मान पाते इसलिए जल्दी ही समाज के पैमाने पर बेमेल सिद्ध हो जाते हैं.
रचना-शीलता एक सृजन या नया उत्पन्न करने की प्रक्रिया है. ऐसे में लेखक भी अपने लिए इच्छित सुविधाएं इसी तरह मौलिक अधिकार मानते हैं, जिस तरह महिलायें प्रसूति अवकाश को अपनी आवश्यकता मानती हैं, या श्रमिक शारीरिक मेहनत के बाद विश्राम चाहता है. किन्तु उनके मामले में यह सुविधा उन्हें अधिकार के रूप में नहीं दी जा पाती जो असंतोष का कारण बनती है.
लेखक की सामाजिक प्रतिष्ठा उसे मिलने वाले सालाना इन्क्रीमेंट या प्रमोशन के लिए नहीं रूकती, वह उसके लेखन-कर्म के परिणाम- स्वरुप निर्धारित होती है. ऐसे में लेखक कार्यालय के पद-सोपान में व्यतिक्रम या अवरोध उत्पन्न कर लेता है जो उसके नियोक्ताओं को स्वीकार्य नहीं होता. ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब लेखक की किताब छपकर आने पर उसे चारों ओर से बधाई प्राप्त हुई पर उसके दफ्तर ने यह 'कारण बताओ' नोटिस जारी किया कि पुस्तक प्रकाशित करने से पहले प्रबंधन से अनुमति क्यों नहीं ली गई? दूसरे शब्दों में कहें तो लेखक को चारों ओर से मिले मान-सम्मान के बीच अपने कार्यालय में 'घर की मुर्गी दाल बराबर' माना गया.
किसी भी कार्यालय में गोपनीयता, कार्य-संस्कृति और कार्यालय हित को सर्वोपरि माना जाता है, जबकि लेखक अभिव्यक्ति की मौलिक स्वतंत्रता चाहता है.
लेखक की प्रतिबद्धता उस व्यक्ति, विचार या स्थिति के प्रति होती है जिसे वह अपने मूल्यांकन में सही मानता है. इस से कार्यालय में उसकी राय अलग-थलग पड़ जाती है और उसका स्वाभिमान उसे वहां से निकाल लाता है.
Friday, May 27, 2011
बड़े भाईसाहब की छोटी कहानी
lekin kuchh din baad kai baar mumbai jakar lautne ke baad भाईसाहब ने मुझे बताया कि उनकी फिल्म सेंसरबोर्ड में अटक गई है और वहां उसे पास करने से साफ इंकार कर दिया गया है. वह बुरी तरह हताश हो गए. परिवार में इस बीच तीन पीढ़ियों का आगमन हो चूका था, सब लोग यह सोचने लगे कि जो फिल्म इतने जोर-शोर से बन रही थी वे अगर रिलीज़ ही नहीं हुई तो क्या होगा?भाईसाहब ने बताया कि उनका सारा पैसा फिर डूब जायेगा.
संयोग देखिये, मेरे एक मित्र ऐसे निकल आये जो स्वयं कभी फिल्म सेंसरबोर्ड के सदस्य रहे हैं. भाईसाहब के साथ मैं खुद गया और मेरे मित्र की मदद से फिल्म को वयस्क प्रमाण-पत्र के साथ प्रदर्शन की अनुमति मिल गई. यद्यपि उनके अवचेतन में फिर यह बात घर कर गई कि उनकी मेहनत नहीं, बल्कि मेरी सिफारिश सफल हुई है.
शायद उनकी परीक्षा अभी पूरी नहीं हुई थी. उनकी फिल्म को शहर का कोई सिनेमाघर लेने को तैयार नहीं था, वे कई प्रयास करके रह गए. यहाँ फिर एक बार उन्हें मेरी मदद लेनी पड़ी. मेरे एक अभिन्न मित्र जो राजनीति में हैं, उनका शहर में एक सिनेमाघर है. मेरे कहने पर वे उसमे फिल्म को रिलीज़ करने पर सहमत हो गए. भाईसाहब के उत्साह में न जाने क्यों काफी कमी आ गई. बात तो बन गई पर वे इस फिल्म निर्माण में अपनी सारी पूंजी इस तरह लगा बैठे थे कि सिनेमाघर के किराये की अग्रिम व्यवस्था भी उनके स्रोतों से न हो सकी. अब उनकी फिल्म काफी समय से प्रदर्शन के इंतज़ार में है. हमारे परिवार के सारे बच्चे, बुज़ुर्ग और महिलाएं यह जानते हुए भी कि फिल्म केवल वयस्कों के लिए है, चाहते हैं कि कैसे भी ये प्रदर्शित हो. अब परिवार के बच्चों ने मुझे सुझाव दिया है कि जब उनकी फिल्म रिलीज़ हो तो मैं कम से कम एक शो के सारे टिकट खरीद कर निशुल्क बंटवा दूं और उसे "हाउस फुल"करवा दूं.
मैं सोच रहा हूँ, कि यदि मैं ऐसा करता हूँ, तो यह भाईसाहब की मदद होगी, या उनकी जिंदगीभर की प्रतिद्वंदिता भरी ज़द्दो-ज़हद में उनकी एक और शिकस्त?
[यह अक्षरशः सत्य विवरण है, अतः अंततः फिल्म का क्या रहा, यह हम आपको बता पाएंगे तब, जब कुछ होगा. ]
Thursday, May 26, 2011
प्रेमचंद से क्षमा-याचना सहित "बड़े भाईसाहब"
जब ईश्वर दुनियाभर के लोगों की किस्मत बारह राशियों में बाँट सकता है, तो मौलिक क्या और कितना लिखा या सोचा जा सकता है.
मेरे बड़े भाई की उम्र मुझसे चार साल अधिक है. ये चार साल उन्हें जिंदगीभर मुझ पर वरिष्ठता देते हैं, सम्मान देते हैं और अधिकार देते हैं. इसके बावजूद मैं यह सब आपसे कह रहा हूँ.
बचपन से ही उन्हें किसी प्राकृतिक अड़चन के कारण उन्हें साफ बोलने में दिक्कत रही. वे बोलने में थोडा अटकते थे. विद्यालय में या अन्य सभी जगह होता यह था ,परिचित लोग उनकी उपस्थिति में, उनकी तुलना में मुझसे पूछना या बात करना ज्यादा किया करते थे. निश्चित ही, ऐसा लोग उन्हीं की सुविधा के लिए करते थे. मगर इस बात ने धीरे-धीरे उनका मनोबल व आत्मविश्वास मेरे सामने कम करना शुरू कर दिया.
प्राथमिक पढ़ाई पूरी करके हम जिस स्कूल में आये वह घर से सात किलोमीटर दूर था. हम साईकिल से जाते थे. वे बड़े थे, इस से वही साईकिल चलाते थे. मैं सुविधा मिलते रहने के कारण देर तक साईकिल चलाना सीख न सका. परीक्षा होती तो मेरे अंक हमेशा उनसे बहुत अच्छे आते. लोग तुलना करते, मेरी तारीफ़ होती, पर इस बात पर किसी का ध्यान न जाता की वे चौदह किलोमीटर रोज़ साईकिल चलाने के कारण मेरे जितने आराम से पढाई नहीं कर पाते थे. कभी-कभी उनके मन में आई यह बात जब उनके चेहरे पर भी आती, तो मुझे अजीब सी अनुभूति होती.
जब हम कालेज में आये तो वे होस्टल में गए, मैंने घर रह कर पढ़ाई की. होस्टल के छात्रों की तरह मैंने उन्हें हमेशा अपनी तुलना में तंगी और तनाव में देखा. लगभग साथ ही हमारी नौकरियां लगीं. दो साल के अंतर से हमारी शादियाँ हुईं. उनकी पत्नी[मेरी भाभी] एक विद्यालय में शिक्षिका थीं, और मेरी पत्नी सरकार में उच्च -पदस्थ अधिकारी थीं. मैं नहीं जानता, इस बात ने हमारे मनोबलों में क्या भूमिका अदा की होगी. वे जयपुर में और मैं मुंबई में, रहने लगे.
थोड़े दिनों में हमने महसूस किया, हम दोनों में ही लेखन के प्रति रूचि है. उनके कुछ लेख स्थानीय पत्रों में छपे, तब तक मेरी कई रचनाएँ धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सरिता, सारिका, माधुरी, इण्डिया टुडे, नवनीत, कादम्बिनी जैसी पत्रिकाओं में छपने लगीं. उनका पत्रिकाओं से मोह-भंग हो गया और और उन्होंने स्वयं के प्रयास से एक-दो स्थानीय प्रेसों में अपने एकाध उपन्यास मुद्रित करवाए. इस बीच मेरी सात-आठ किताबें दिल्ली और मुंबई के प्रकाशकों से छपकर कर बाज़ार में आ गईं.
उनका रुझान टीवी सीरियल बनाने की ओर बढ़ा.वे इसके लिए स्थानीय दूरदर्शन में छोटे-बड़े प्रयास कर ही रहे थे की मुझे मुंबई में राजेंद्र कुमार और हरमेश मल्होत्रा जैसे फिल्मकारों से लिखने के प्रस्ताव मिले. [यद्यपि बाद में मुंबई छूट जाने के कारण मैं यह कार्य कर नहीं सका] इधर उनका एक सीरियल पूरा तो हुआ पर उसने उन्हें काफी आर्थिक हानि दी.वे इस से काफी क़र्ज़ में डूब गए.
वे नौकरी से रिटायर हो गए. एक दिन उन्होंने मुझसे कहा की वे अब कंप्यूटर टाइपिंग सीख कर अपने पुराने लेखों को फिर से व्यवस्थित करेंगे. उन्हें यह जानकारी मिलने पर, की मैं अपने ब्लॉग पर सौ पोस्ट पूरी कर चुका हूँ,उनकी रूचि इस ओर कम हो गई और वे फिर से फिल्म-निर्माण की दिशा में सोचने लगे. मुझे यह अच्छा लगा की उनका आत्म-विश्वास जबरदस्त तरीके से फिर लौट रहा है.
ईटिंग एरा [भक्षण युग]
[मनुष्य में सब जीवों की आत्मा का अंश डाला गया है, वह सब का सा बर्ताव करेगा-"बेस्वाद मांस का टुकड़ा" से]
जंगल खाए लकड़ियाँ, गाँव खेत को खाय
खाने का युग आ गया, नगर गाँव खा जाय
खा-खा कर भी ना बचे, जान शहर की जाय
अब शहरों की बोटियाँ, महानगर खा जाय
चोर-लुटेरा और पुलिस, एक थाल में खाय
फिर सबको थाली सहित, नेताजी खा जाय
नेताजी की कुंडली, जनता के घर आय
पांच बरस बीते नहीं, जनता उनको खाय
जनता ठहरी बावरी, बुद्धू भी बन जाय
अदल-बदल कर भेस फिर, वो ही नेता आय
सड़कें फैलें खेत में, खेत पेड़ खा जाय
रोज़ नवेली कार-बस, रस्ते को खा जाय
बाइक-स्कूटर चलें, कारों को सरकाय
बेचारों की जान को, पेट्रोल खा जाय
ठेके सरकारी हुए, कैसा मौसम आय
अफसर-ठेकेदार मिल, सड़कों को खा जाय
सरकारी अफसर बड़ा, चीनी-नमक न खाय
करे डाक्टर बंद सब, रुपया हो तो खाय
पानी,बिजली,फोन सब, दे गड्ढा खुदवाय
सरकारी खैरात अब, गड्ढे में पड़ जाय
भारी बस्ता पीठ पर, बच्चे को खा जाय
मोटी-मोटी फीस फिर, पापाजी को खाय
बना अगर जो डाक्टर, जिगरा-गुर्दा खाय
बनकर वो इंजीनियर, पुलिया को खा जाय
अफसर चला विदेश कह, कालेधन को लाय
माल वहां पर छोड़ कर,टीए-डीए खाय
खाने के इस दौर में, ये कैसा दिन आय
जो गरीब था, आज भी, वो बैठा गम खाय.
Tuesday, May 24, 2011
अग्निपरीक्षा अब नहीं
तुलसी रामायण लिखो, फिरसे भैया बैठ
राजमहल में मंथरा, बना न पाए पैठ
अब ना देना रानियाँ, दशरथजी को तीन
राम रहें घर में सदा, ज्यों पानी में मीन
रचें स्वयंबर जनक जब, रावण को न बुलाएँ
रामलला तोड़ें नहीं, केवल धनुष उठायं
तीर चला कर लखन अब, होवें ना बेहोश
मिलावटी संजीवनी, मिले वैद्य को दोष
जूठे ना खाने पड़ें, फिर शबरी के बेर
शबरी को भी रोटियां, देना देर-सवेर
पुल कर देना काठ का, सरयू पर सरकार
कर लेगा केवट कोई, दूजा कारोबार
उनका भी घर-बार हो, फिरें न सुबहो-शाम
अपना ठीहा छोड़ कर, वन-वन में हनुमान
राज चलायें खुद भरत,मिल कर संग श्रीराम
चरण-पादुका का चलन, फिर ना करना आम
जामवंत, अंगद सभी, बाली और सुग्रीव
फिर पचड़ों में ना पड़ें, भोले-भाले जीव
दिखला देना भ्रूण की, ह्त्या का व्यापार
शूर्पनखा और ताड़का, पायें ना संसार
रूप न पाए जानकी, अबके यूं बेजोड़
या रावण के बीसियों, देना दीदे फोड़
आयें-जाएँ ना कभी, राजा धोबीघाट
धोबी बोलें भी अगर, चुप करवादें डांट
अग्निपरीक्षा अब नहीं, ना फिर अत्याचार
लव-कुश को पैदा करो, महलों में इस बार
सुन लो ये कविराज फिर, ना विवाद गहराय
दशरथ अपने महल का, पट्टा लें बनवाय
जन्म हुआ था राम का, कहाँ सनद रह जाय
विश्वामित्र-वशिष्ठ से, कागद लें लिखवाय.
Monday, May 23, 2011
एल्बमों में धुंधलाते जुगनू
[yah ek kahani hai, jise kalpnik namon va sthitiyon ke sath ghatna roop me prastut kiya gaya hai. हमारे समय की यह त्रासदी है कि एक ही पेड़ के फलों की तरह हर दस में से एकाध आदमी खराब निकल ही आता है. उस एक आदमी की आशंका में हम दसों को शक की नज़र से देखते हैं और कड़े नियमों में जकड़ देते हैं.यह जकड़न इतनी अंधी होती है कि जब टूटती है तो वही एकाध आदमी सबसे पहले बच कर निकल लेता है. हम उस एक आदमी की धर-पकड़ की मुहिम में दसों के चारों ओर क्रूरता रच देते हैं. यह स्थिति भी स्वीकार्य होती, अगर इस से अपराध मिट गए होते. ]
आमतौर पर लाल-बत्ती क्रास करते समय मैं दायें-बाएं नहीं देखता पर उस पर ध्यान चला गया. निश्चित रूप से वही थी. वह किसी युवक के साथ मोटर-बाइक पर बैठी थी. अभी इतनी बूढी नहीं थी कि मैं उसे पहचान न सकूं. उसकी साड़ी का पल्ला उसी लापरवाही से लटका था जो बाइक के पहिये में फंस कर कुछ भी अनर्थ कर सकता था. भीड़ भरी सड़क और ताबड़तोड़ ट्रेफिक के बावजूद मैंने इंडिकेटर देकर उन्हें रोका और लटकते पल्ले की ओर से सावधान किया. उसकी यह आदत हमेशा से थी, आते-जाते उसका दुपट्टा हमेशा एक ओर झूल कर ज़मीन पर रेंगता चलता था. वह मुझे अब तक पहचानी नहीं थी पर फिर भी लगातार देख रही थी. शायद पहचानने की कोशिश कर रही हो. मैंने किसी शंका की स्थिति में उसे छोड़ कर जाने से बेहतर यह समझा कि उसे अपना परिचय याद दिला दूं.
-मैडम, मुझे पहचाना? मैंने अब हाथ भी जोड़ दिए थे.
वह एकदम से मुझे पहचानते हुए एक कदम आगे बढ़ कर रह गई. साथ वाला युवक भी अब उसके पहचान लेने के बाद मुझे संदेह की जगह आश्वस्ति से देखने लगा.
कैसे हो बाबाजी? फिर वह खुद ही अपने इस संबोधन पर अचकचा गई.
असल में हम लगभग पैंतीस साल बाद मिल रहे थे. पैंतीस साल पहले मैं एक गर्ल्स होस्टल का चौकीदार था. उस समय कुल तेईस साल का होने पर भी होस्टल की लड़कियां मुझे बाबाजी कह कर ही बुलाती थीं. चाहे उम्र में हमसे चार-पांच साल ही छोटी हों. कोई-कोई तो एक-दो साल ही.
इस लड़की को तो मैं कभी भूल ही नहीं सकता था, क्योंकि एक रात घटना ही ऐसी घट गई थी.होस्टल का गेट रात को दस बजे बंद हो जाता था. इसके बाद आने वालों को बड़ी-मैडम से मिलवाना पड़ता था, जो काफी सख्ती से पेश आती थी. इसके साथ ही हमें यह भी हिदायत थी कि ज्यादा देर से आने वाली लड़कियों को छोड़ने कौन आता है, उस पर भी कड़ी निगाह रखो और उसे भी साथ में हाज़िर करो. एक दिन यह लड़की रात को पौने बारह बजे वापस आई थी और इसके साथ में एक अनजाना लड़का था. इसके ढेरों मिन्नतें करने के बाद भी मुझे इन दोनों को बड़ी मैडम के घर पर रात को ही पेश करना पडा था. वहां इसे आइन्दा ऐसा न करने की चेतावनी देते हुए पांच सौ रूपये का जुर्माना लगाया गया. यह लाख कहती रही कि यह लड़का ऐसा-वैसा नहीं है, परिचित भी है, पर मैडम ने एक न सुनी. बोलीं- तुम्हारे माता-पिता ने फार्म पर जिन लोगों के फोटो लगाए हैं उनके अलावा और किसी से भी तुम्हे मिलने या देर तक साथ में आने-जाने की अनुमति नहीं दी जा सकती. जब मैडम किसी भी तरह जुर्माना माफ़ करने पर राज़ी न हुईं तो इस लड़की ने पहली बार मुंह खोल कर उनके सामने इस तरह पलट कर जवाब दिया कि उनका भी दिल पसीज गया. यह बोली- "मैडम, आप जो तस्वीरें फार्म पर लगा कर बैठी हैं न , वो तो एक दिन काका-बाबा-नाना-मामा बन कर एल्बमों में लग जाने वाली हैं, ज़िन्दगी भर तो यही तस्वीर साथ देगी. कह कर उसने गर्व से लड़के की ओर देखा था,लड़के ने भी सर झुका लिया. लड़की फिर ज्यादा दिन होस्टल में नहीं रही. सुना था कि उसकी शादी उसी लड़के के साथ हो गई. लड़की की यह बात कालेज का कोई कर्मचारी नहीं भूल पाया. अगले दिन सब जगह इसी बात की चर्चा रही.
जब उसने बताया कि साथ वाला यह लड़का उसका बेटा है, तो मैं वर्षों पहले की उस घटना में खो गया. सच तो था, उस समय इसके हितैषी-रखवाले कह कर जिन लोगों की तस्वीरें हमने रजिस्टरों में लगा छोड़ी थी वे सब तो अब न जाने कहाँ-कहाँ होंगे.और वह अनजान सा युवक तथा उसके बेटे के रूप में उसी की हू-बहू तस्वीर पैतीस साल बाद भी एक घर में ज़िन्दगी भर के लिए साए की तरह इसके साथ है.
मैं सोच रहा था कि नियमों की ज़ंजीर भी कभी-कभी बच्चों की भावनाओं को कितना कस कर बाँध देती है कि भावनाओं पर तमाम उम्र के लिए निशान बन कर रह जाते हैं.समय जंजीरें तो काट देता है, पर क्या ये अक्स मिटाए जा पाते हैं?
Saturday, May 21, 2011
क्या ये चीज़ें अच्छी नहीं?
मैं अक्सर सोचता हूँ कि कभी-कभी केवल उन बातों या मसलों को लेकर बैठना चाहिए, जो आपको पसंद हों.आज मैं आपको बताता हूँ कि मुझे क्या पसंद है. स्वाभाविक है कि यह सूची पूरी नहीं है, हम इस पर आगे भी बात करेंगे.
१. अकस्मात् मिलने वाले तोहफे
२. किसी भी विषय पर उगते हुए विचार
३. पुराने सूती कपडे
४. संकोची स्वभाव के लड़के और बहिर्मुखी लड़कियां
५. पुलिस और सेना के बुज़ुर्ग लोग
६. आरम्भ
७. गर्मी का मौसम
८. सुनसान मंदिर
९. रोचक उपन्यास के साथ छुट्टी की दोपहर
१०. सूर्यास्त
चीनी कम बनाम "स्वामी सच्चिदानंद के सदाचार की समर्पण-भावना का कलात्मक चित्रण"
हमारे व्यवहार से रिश्तों में मिठास बढती है. लेकिन मिठास घटने लगे तो हमेशा यह मत सोचिये, कि व्यवहार ठीक नहीं. मेरे एक मित्र ने एक दिन मुझे अपने घर रात्रि-भोज का निमंत्रण दिया. इसमें नई बात कोई नहीं थी, क्योंकि वैसे भी मैंने उनके यहाँ कई बार चाय-काफी पीने की रस्म अदा की थी.मैं समय पर पहुँच गया. लेकिन वहां जा कर मुझे कुछ अनोखा ज़रूर नज़र आया. मित्र के घर का माहौल बहुत ही औपचारिक सा लगा. दोनों पति-पत्नी ताज़ा बदले कपड़ों में सजे खड़े थे. ड्राइंगरूम को भी थोड़ी अतिरिक्त साज-सज्जा दी गयी थी.और सबसे ज्यादा हैरान करने वाली बात तो यह, कि खाने की मेज़ पर एक बेहद नफीस फूलों के गुलदस्ते के साथ एक सुन्दर सी मोमबत्ती सजी थी. नेपकिन आकर्षक तरीके से लगाये गए थे.
मैं चौंका, आज कोई पार्टी-वार्टी है क्या? कौन आ रहा है? किसी का जन्म-दिन, एनिवर्सरी आदि है ? मैं तो यूँही खाली हाथ चला आया.मेरे मन के संकोच को भांप कर मित्र ने मुझे सामान्य बनाने की कोशिश की. कहा- नहीं-नहीं, न तो कोई पार्टी है और न ही कोई और आने वाला है. अब फिर चौंकने की बारी थी.अर्थात केवल मेरे खाने के लिए ही यह सारा उपक्रम किया गया था?
खैर, जब खाना शुरू हुआ तो उनकी श्रीमती जी ने कुछ सकुचाते हुए कहा- ये आज आपको कुछ दिखाने वाले हैं. मैंने कहा- अरे, ऐसा क्या है? दिखाइये-दिखाइये फ़ौरन. मैं उनके बनाए और परोसे गए पकवानों से खासा उत्साहित था. मैं आइस-क्रीम ख़त्म ही कर रहा था कि मित्र महोदय भीतर जाकर कागजों का एक पुलिंदा उठा लाये.
क्या कोई प्लाट व्लाट ख़रीदा है? मैंने उत्सुकता से कहा. वे बोले- प्लाट खरीदा नहीं, प्लाट लिखा है. उन्होंने शर्म से लजाते हुए पत्नी की ओर देखा, पत्नी भी मुस्करा दीं.
तो यह बात थी. मित्र महोदय ने एक कहानी लिखी थी, और वे उसे मुझे दिखा कर यह चाहते थे कि मैं उसे कहीं से छपवा दूं. वे जानते थे कि मेरी किताबों के चलते कुछ प्रकाशक मेरे मित्र हैं. उनकी कहानी का शीर्षक था- "स्वामी सच्चिदानंद के सदाचार की समर्पण-भावना का कलात्मक चित्रण" . मुझे लगा शायद उन्हें रद्दी में कहीं किसी का शोध-प्रबंध मिल गया होगा,जिसे वे तोड़-मरोड़ कर कथानक का रूप दे बैठे. खैर, मैंने उन्हें अपने एक प्रकाशक मित्र के पास भेज दिया.
प्रकाशक महोदय ने उन्हें चार-पांच चक्कर कटवा कर एक दिन समय दिया और संक्षेप में उन्हें ये सुझाव दिए- देखो, इसमें से 'स्वामी सच्चिदानन्द' हटा दो.इस से ये किसी स्वामी की जीवनी लगती है. मित्र फ़ौरन मान गए. इस से उत्साहित होते हुए प्रकाशक महोदय ने कहा- आजकल नई पीढ़ी सदाचार की बात कहाँ सुनती है, इसे हटा देना ही ठीक है. फिर वे बोले- भाई, आजकल लोग भावुक होते ही कहाँ हैं जो तुम समर्पण-भावना लिखोगे. लिहाज़ा ये भी हट गया. अब बचा- कलात्मक चित्रण. प्रकाशक जी इतने पर भी नहीं माने, बोले-कला से लोग चिढ़ते हैं. कला फ़िल्में तक नहीं चलतीं. अतः किताब का शीर्षक 'चित्रण' करके प्रकाशक जी ने बैठक मुल्तवी कर दी और उन्हें अगले सप्ताह फिर आने को कहा.
अगली बैठक में प्रकाशक फ्रेश दिमाग से थे, अतः बोले- खाली 'चित्रण' से लोग भ्रमित हो जायेंगे कि आखिर ये काहे का चित्रण है. इसमें कुछ जोड़ो.मित्र महोदय उत्सुकता से उनका मुंह ताकने लगे. उन्हें पूरी उम्मीद थी कि जब प्रकाशक जी ने उनका पूरा शीर्षक खारिज किया है तो नया भी वही सुझायेंगे.प्रकाशक जी बोले- चित्रण तो किसी चीज़ का होता है. लोग लड़ाई, झगडे, युद्ध,ग़दर के चित्रण देखना पसंद करते हैं. पौराणिक फिल्मों में तलवार- भाला- बरछी- गदा का चित्रण होता था. पब्लिक गद-गद हो जाती थी.
लेखक महाशय को गद-गद, गदा, ग़दर सुनते-सुनते शीर्षक याद आ गया. बोले- "गदराया चित्रण" रख दें? प्रकाशक थोड़े आश्वस्त हुए पर पूरे नहीं. बोले- गदराया तो ठीक है, पर इस के साथ चित्रण शब्द जम नहीं रहा. फिर, गदराया जीवन रख दें, लेखक ने कहा. प्रकाशक झुंझलाए, बोले- क्या बात करते हैं, पूरा जीवन भला गदराया कहाँ होता है? बुढापा कहीं गदराता है, बचपन गदराता देखा है कभी? तब? फिर?
आखिर लेखक जी के ज्ञान-चक्षु खुले-वे तपाक से बोले - 'गदराया यौवन'? हाँ, अब बनी बात. प्रकाशक ने कहा.
लेखक को लगा, चलो, शीर्षक फायनल हुआ अब तो किताब छप जाएगी.पर यह क्या, प्रकाशक महाशय उनका पुलिंदा उन्ही को लौटाते हुए बोले- ये लीजिये, जब हो जाये तो ले आइये.
क्या हो जाये? लेखक ने भोलेपन से कहा.
भाई, जब कहानी शीर्षक के अनुसार हो जाये तो ले आइयेगा, देख लेंगे. कह कर प्रकाशक जी भीतर धंस गए, और लेखक महोदय भारी क़दमों से घर लौटे.
बाद में मैंने एकदिन सुना, कि उनकी पत्नी उन पर बहुत बिगड़ीं.बोलीं- ख़बरदार, जो ऐसे नाम की किताब घर में लेकर भी आये तो.
कई दिन बाद, एकदिन वे फिर पकड़ कर चाय पिलाने घर ले गए. लगभग आधे घंटे इंतजार कराके उनकी श्रीमती जी ने चाय बनाई, और रसोई से ही चिल्ला कर बोलीं- भाई साहब, चीनी लेते हैं या फीकी ?
Sunday, May 15, 2011
जहाँ जहाँ मुकम्मल है
कल मेरे एक पुराने मित्र ने मुझे फ़ोन करके कहा कि उसे मेरा ब्लाग पसंद नहीं आ रहा. उसका कहना था कि क्या दुनिया में सब कुछ आधा-अधूरा या सुधारे जाने योग्य ही है? ऐसा कुछ भी नहीं है जो पूरा हो, मुकम्मल हो और जिसका सिर्फ आनंद लिया जाये, उस पर कोई टीका-टिपण्णी न हो?मैं एकाएक सोच में पड़ गया.बरसों पहले मैं माधुरी, सरिता, कादम्बिनी जैसी पत्रिकाओं में गीत भी लिखा करता था, प्रेम-गीत भी. आज आपको ऐसा ही एक गीत सुनाता हूँ.
कभी यूं भी मिल मेरे हमनवा ,तेरे हाथ में मेरा हाथ हो.
जहाँ तू कहे वहां दिन कटे, जहाँ मैं कहूं वहां रात हो.
तेरी आँख की इस झील से, मेरी सांस तक हो रास्ता.
मैं नगर-नगर मेरा सींच लूं, कि डगर-डगर बरसात हो.
ये चार मौसम साल के, हमें उम्र-भर तक कम पड़ें.
कब कौन सी ऋतु चल रही, मुझे याद ना तुझे याद हो.
तेरी बात वेदों की ऋचा, मेरे बोल लय की बरात हो.
मेरे मन के मंदिर में चले, तेरी आरती जब रात हो.
तू भी पूछ ले ये समाज से, मैं भी पूछ लूं ये रिवाज़ से.
सब हाँ कहें तो हम मिलें, सब ना कहें तो भी साथ हो.
Saturday, May 14, 2011
परिंदे, ले ऊंची परवाज़
आसमान में धुआं क्यों है, कहाँ लगी है आग परिंदे?
देर न हो जाये घटना को, ले ऊंची परवाज़ परिंदे.
देख कहीं से रावणजी तो, इस धरती पर लौट न आये?
लक्षमण रेखा खींच दोबारा, जा बन जा तू राम परिंदे.
मेरे तेरे सबके दिल में, किस दुश्मन ने नफरत भर दी?
कौन खिलाडी इन लपटों का, किस का है ये काम परिंदे?
जंगल-जंगल नहीं ढूंढना, बस्ती में ही चोर मिलेंगे.
गैरों को ही नहीं ताकना, अपनों को भी जाँच परिंदे.
बादल ने पानी भेजा था, खेतों में 'सूखा' क्यों पहुंचा?
दिन है क्यों काला, सूरज की,कहाँ गयी सब आंच परिंदे?
कुर्सी पर संदेह न ला, ये,चार पैर के बोझ की मारी.
तू इस पर बैठाने वाले जादूगर को खोज परिंदे.
शेर-बाघ क्यों मर जाते हैं, रह जाती है खाल परिंदे.
सत्ताधीशों के पत्तों की, पता लगा तू चाल परिंदे.
विश्व स्तर क्या होता है?
कुछ दिन पहले यह खबर पढ़ी कि जयपुर में एक विश्व-स्तरीय म्यूजियम बनाया जायेगा, जिसके लिए केंद्र सरकार ने अडतीस लाख रूपये स्वीकृत किये हैं. यह संग्रहालय पुराने विधानसभा भवन में स्थापित होगा. पहले अखबार इस तरह की ख़बरों को 'विचित्र किन्तु सत्य' शीर्षक से छापा करते थे.लेकिन अब यह सामान्य खबर है. कुछ दिन पहले यह भी छपा था कि सरकार ने सभी अफसरों को अपनी संपत्ति की घोषणा करने के लिए कहा है. जवाब में अफसरों ने जो घोषणा की थी उसके अनुसार राज्य में लगभग आधे अफसर करोडपति हैं. जब एक अफसर के घर छापा पड़ने लगा तो उसने चालीस लाख के नोट आग में डाल दिए.बताया गया है कि घोषणा करने वाले अफसर तो वे हैं जो ईमानदार माने जाते हैं.बाकी ने तो आय बाद में बताने को कहा है.ये कहानी अफसरों की है. नेताओं ने कोई फ़ाइल करोड़ों से नीचे की कभी देखी ही नहीं. उनके सारे घोटाले मल्टी-करोड़ हैं.
खैर, अभी हम बात कर रहे थे, विश्व-स्तरीय म्यूजियम की. तो इसके लिए सरकार को दो सुझाव हैं. या तो सरकार इस पैसे से नए विधानसभा भवन पर रंग-रोगन करवादे.भीतर उठा-पटक लड़ाई-झगडा होते रहने से दीवारों का रंग तो ख़राब होता ही है न? या फिर पुराने विधानसभा भवन के बीचोंबीच एक स्टूल पर यह स्वीकृत राशि रख दी जाये.इस से सुन्दर म्यूजियम हो नहीं सकता.यह वर्षों तक सुरक्षित भी रहेगा. क्योंकि शहर का कोई ईमानदार व्यक्ति तो इन्हें चुराएगा नहीं. और बाकी इस राशि पर हाथ भला क्यों डालेंगे? करोड़ों की तो सोने और हीरों से जड़ी वो कटोरी है जिसे किसी ने ओबामा महोदय के कुत्ते के भोजन के लिए भेंट किया है.
Tuesday, May 10, 2011
इसलिए नंबर एक है अमेरिकी शिक्षा
एकरूपता और एकरसता बहुत अलग-अलग बातें हैं. यह दोनों रेल की पटरियों की तरह साथ-साथ भी ज्यादा देर तक नहीं चल पातीं. आप कल्पना कीजिये, कि देश के एक भाग में एक बच्चा पढ़ रहा है, और दूसरे भाग में दूसरा. दोनों एक डिग्री ले लेने के बाद भी जब किसी एक जगह मिलते हैं तो आपस में एक दूसरे जैसे होते हुए भी वे परस्पर बात नहीं कर पाते.यह स्थिति उस देश की शिक्षा की है जहाँ शिक्षा एकरसता की शिकार है. ऐसा आप भारत में देख सकते हैं. हिमाचल प्रदेश में पढ़े बच्चे को कर्णाटक ले जाइये. या बंगाल के पढ़े लड़के को गुजरात में लाइए. इन बच्चों की शिक्षा में जो अपूर्णता आप देखेंगे वह केवल प्राथमिक शिक्षा की बात नहीं है, बल्कि उच्च -शिक्षा तक में यह विभिन्नता आपको दिखेगी.इस विभेदकारी स्थिति में संस्कृति, भाषा, पर्यावरण, भौगोलिक असमानता, खान-पान आदि सभी बातों का थोडा-थोडा योगदान है. अब आप कहेंगे कि शिक्षा इसमें क्या कर सकती है? तो इसमें शिक्षा को ही करना है. बच्चे के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं की दूसरी जगह के हिसाब से समायोजन क्षमता शिक्षा को ही विकसित करनी है. अमेरिकी शिक्षा की सबसे बड़ी खूबी यही है. एकरूपता का तत्व यहाँ एकरसता से बचाकर विद्यार्थी के व्यक्तित्व में डाला गया है. अमेरिका में शिक्षित व्यक्ति, अथवा दूसरी जगह से आकर अमेरिका में स्थापित व्यक्ति इस समायोजन क्षमता के सहारे ही विभिन्न गतिविधियों से समाधान खोज पाने में सक्षम होते हैं. यही उस देश की सफलता है.
Sunday, May 8, 2011
न बचने का सुख न खोने का दुःख
ये तय करना बहुत कठिन है कि उम्र आदमी के लिए कमाई है या खर्च.जो लोग बहुत उम्र बिता चुके, लोग उनका मूल्यांकन चाहे जैसे करें, पर सवाल ये है कि वे स्वयं अपना मूल्यांकन कैसे करें? क्या वे यह सोच कर अपने पर फख्र करें कि उन्होंने जीवन में बहुत कुछ जान लिया, बहुत कुछ सीख लिया, बहुत कुछ हासिल कर लिया, अब वे अपने में तृप्त महसूस करते हैं. या वे अपने मन को यह सोच-सोच कर सताएं कि हमारा क्या है, हमारी तो अब कट गयी, जैसे-तेसे टाइम पास हो गया, अब क्या है, अब बचा ही क्या है?
इसी तरह जो लोग अभी युवा हैं, वे अपना मूल्यांकन कैसे करें? क्या वे यह सोचें, कि अभी तो हम नौसिखिये हैं, अभी तो हमने कुछ ज़माना नहीं देखा, न जाने इतनी प्रतिस्पर्धा के दौर में आगे हमारा क्या होगा? या फिर वे यह सोच कर खुश हों कि अभी तो हमारा पूरा कैरियर पड़ा है, हम जो चाहें कर सकते हैं, जो चाहें बन सकते हैं. मेरे एक मित्र मुझसे कहते थे कि वे बच्चों को बहुत ही आदर और सद्भाव से देखते हैं, क्योंकि इन्ही में से कल न जाने कौन, क्या बन जाए? बच्चे इस रूप में सम्मान के पात्र हैं ही, क्योंकि उनकी स्थिति आज उस बीज की सी है जो कल न जाने कितना बड़ा पेड़ बन जाये? इसी तरह बुज़ुर्ग लोग भी उतने ही सम्मान के पात्र हैं क्योंकि अब पैदा होने वाले नहीं जानते कि उन उम्र-दराज़ लोगों ने जीवन में क्या-क्या देखा होगा. इस तरह ये दोनों ही वर्ग एक-दूसरे के लिए सम्मान की भावना रखते हुए एक दूसरे के आदर के पात्र हैं.
अब यहाँ सबसे महत्वपूर्ण भूमिका उन लोगों की हो जाती है जो अपनी उम्र के मध्य में हैं, अर्थात लगभग २५ से ५० की आयु के लोग. मूल रूप से इन्हीं के हाथ में वर्तमान दुनिया होती है. ये चाहें तो अपनी सोच और व्यवहार से बाकी दोनों को संतुष्ट रख सकते हैं. ये लोग अगली और पिछली पीढी को 'यूज़' करके दोनों को अपने हित में साधने का लाभ भी ले सकते हैं. क्योंकि वे बुजुर्गों से जैसा व्यवहार करेंगे, बच्चे उनसे भी वैसा ही बर्ताव करने को प्रेरित होंगे. इसी तरह उन्हें जो अपने बुजुर्गों से नहीं मिला, वे बच्चों को दें, और बुजुर्गों को 'रियलाइज़' करवाएं कि उनमे क्या कमी थी. इस तरह उम्र हर-एक के लिए उपयोगी बनाई जा सकती है, जो कमाई ही होगी, खर्च नहीं. उम्र रूकती नहीं है. सभी पर आती है. ऐसी चीज़ का न बचने का सुख, न खोने का दुःख.
Saturday, May 7, 2011
लोहे की गेंद लेकर दौड़ते निशानेबाज़
बचपन में अपने मोहल्ले में हम लोग एक खेल खेला करते थे जिसमे कपडे की गेंद से एक-दूसरे पर प्रहार किया जाता था. कभी-कभी यह गेंद बहुत जोर से पेट या पीठ पर वार करती थी क्योंकि अधिकांश लड़कों के निशाने अचूक हुआ करते थे.खेल के बीच में ही दहशत का माहौल बन जाता था. आज जब मैं किसी शहर को देखता हूँ तो मुझे लगता है कि लड़के बड़े हो गए हैं और सभी के हाथ में कपडे की नहीं, लोहे की गेंद है, जो किसी रिवाल्वर से बिजली की गति से छोड़ी जा रही है. और अब खेल में गेंद एक नहीं बल्कि हर खिलाडी के हाथ में अलग-अलग है. कमोवेश सभी शहरों की यही स्थिति है. मैं बात कर रहा हूँ, आज सड़कों पर दौड़ते वाहनों की. हर वाहन अचूक निशानची लड़के की गेंद की तरह आता है. ज़रा सा निगाह चूके नहीं कि गए. सड़कों ने चौड़ा होते-होते फुटपाथों को तो खा ही लिया है. पैदल चलते आदमी के लिए शहरी यातायात में कहीं कोई जगह नहीं है.
हो सकता है कि गति और मौज-मस्ती पसंद करने वाले युवावर्ग को इस स्थिति से कोई गिला-शिकवा न हो, पर यह तय है कि हमारी मौजूदा सभ्यता जब भी ध्वस्त होगी, तो इन्ही वाहनों के बेढंगे प्रयोग के कारण.हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की भांति टीले बन चुके शहरों की खुदाई में से कभी इन्ही के पुर्जे निकलेंगे, और इनके बीच-बीच में से खोज कर तलाशनी पड़ेंगी मानव-अस्थियाँ. संसार का यह बेहतरीन आविष्कार इसे प्रयोग करने की शैली और प्रयोजन में लापरवाही के चलते जानलेवा बनता जा रहा है. युवा वर्ग की लापरवाही का तो यह हाल है की आप कहीं भी , किसी समय चलिए, पीछे से होर्न आपको ऐसे सुनाई देते रहेंगे कि चलो, इस बार तो जान बख्श दी , आगे ध्यान रखना. यदि आठ बजे घर से निकलना है तो वे साढ़े आठ बजे निकलेंगे और दो घंटे के रास्ते को डेढ़ घंटे में तय करने की कोशिश करेंगे. अपनी भी जान जोखिम में डालकर, और दूसरों की भी. शराब पीकर या मोबाइल पर बात करते हुए चलने वालों को देख कर तो ऐसा लगता है, काश, इनके सर में थोडा सा भी दिमाग होता तो ये सोच पाते कि ये क्या कर रहे हैं.मेरा अनुभव यह है कि एक बार किसी एक्सीडेंट के बाद ही कोई ड्राइवर निपुण बन पाता है. यह कहना क्रूरता होगी, पर कहना पड़ता है.
Friday, May 6, 2011
रावण जी कंस जी और हरिनाकश्यप जी
क्या आपने कभी ध्यान दिया है कि हजारों साल गुज़र जाने के बाद भी हमारे देश के किसी भी भाग में, किसी भी काल में, किसी भी उम्र के किसी भी व्यक्ति ने कभी भी बोलने या लिखने में रावण के लिए 'वे आये' या 'वे राजा थे' जैसे संबोधन का इस्तेमाल नहीं किया. हमेशा उसके लिए खालिस एक वचन का इस्तेमाल ही किया गया, जबकि यह भी सब जानते हैं कि वह एक विद्वान राजा था. इसी कालजयी कथानक में जबकि भालू, बन्दर या गरूड पात्रों को आदरणीय और सम्माननीय संबोधनों से नवाज़ा गया है. संसार के दूसरे सबसे बड़े देश में हज़ारों साल तक एक भी व्यक्ति ने कभी अपने बच्चे का नाम रावण नहीं रखा. ऐसा नहीं है कि देश में सभी धार्मिक प्रवृत्ति के सीधे-सादे लोग ही हैं. यहाँ राक्षसी प्रवृत्ति के लोग भी हैं, चोर, डाकू, लुटेरे, भ्रष्टाचारी, नीच, अधर्मी सब तरह के लोग भी हैं. लेकिन वे भी कभी अपने बच्चों के लिए, घर-महल्ले के लिए, सडकों या दूकानों के लिए यह नाम नहीं स्वीकार पाए. नाम को स्वीकार करना तो दूर इस नाम को कभी आप, तुम या वे जैसा संबोधन तक नहीं मिला. इसका मतलब यही है कि अपराधी और भ्रष्टाचारी के लिए नफरत और घृणा अप्रत्यक्ष रूप से समाज की फिजा में घुली होती है. यह किसी एक समय के लोगों की बात नहीं है. त्रेता में जो भावना रावण के लिए थी वही द्वापर में कंस के लिए भी थी.कभी किसी ने कंस को 'आये-गए' कह कर नहीं पुकारा होगा.
लेकिन ये कलियुग है. त्रेता और द्वापर में न हुई बातें इस युग में भी नहीं होंगी, ऐसी गारंटी कोई नहीं दे सकता. त्रेता या द्वापर में राजा बनने के लिए राजा के घर में जन्म लेना पड़ता था.या फिर छल-कपट से किसी राजा को मार कर उसका राज्य हड़प करना पड़ता था. पर अब तो कैसे भी अपनी प्रजा से वोट लेने पड़ते हैं. वोट लेने के लिए वो सब करना पड़ता है जो त्रेता या द्वापर में लोग सोच भी नहीं सकते थे. रावण को रावण जी, कंस को कंस जी और हरिनाकश्यप को हरिनाकश्यप जी भी कहना पड़ता है.
Wednesday, May 4, 2011
अब तक हो ???
वो बूढा जो जा रहा है देखो, धीरे-धीरे अपने काम से
अपना समय काटने
चाहता है मन ही मन
कि घेर लें उसे आकर, चारों तरफ से लोग
और पूछें उससे - कैसे हो ?
कैसे खाते हो अब, कमज़ोर पड़ गए दांतों से
क्या करते हो बीमार पड़ने पर
कहाँ खपाते हो पूरे चौबीस घंटे का दिन ?
लेकिन नहीं आते लोग
आतीं हैं केवल लोगों की आहटें पूछती हुई,
कि कब तक खाते रहोगे
कहाँ रखी है दबा कर अपनी कमाई
और ...अब तक हो ???
Tuesday, May 3, 2011
मेरे मस्तिष्क के भीतरी सांवले पदार्थ
उठो, उद्वेलित होकर , मेरे मस्तिष्क के भीतरी सांवले पदार्थ
उठो मेरे भीतर के देवत्व
तन कर नहीं, बह कर चलो
अतिवृष्टि की उद्दाम सरिता की तरह
मेरे अंतर के शब्दों को आने दो बाहर
कुलांचे भरते नवजात मेमने की भांति
विचारों को आने दो मेरे तपते दिमाग से
निकल कर बदन के अंतरतम दालानों से
किसी राह सुझाते मंथन को लाओ बाहर
जो मुझे सोने नहीं देता रात को
आओ, दिमाग के दरवाज़े बंद मत रहने दो
अब धूल भरी गलियों में उफनते बरसाती जल की तरह
मुझे एकाकार करो उन्मुक्त मनोभावों से
मिले मुझे भी तो आराम , मेरा प्राप्य मुझे दो.
Monday, May 2, 2011
आतंक का एक परबत अमेरिकी फूंक से गायब
पिछले कुछ समय से सभी दिशाओं में आतंक का जैसा जयकारा गूँज रहा था उस से यह शंका ज़रूर उपजती थी कि कहीं कोई विध्वंसक दिमाग दबा पड़ा है जो राख की चिंगारियों में जब-तब फूंक मारता रहता है.शक की सुई कई मुल्कों के इर्द-गिर्द डोलती रहती थी किन्तु केवल संदेह के आधार पर कुछ ठोस कहा नहीं जा पाता था.हर भू-डोल या तबाही का कोई न कोई कारण होता ज़रूर है, चाहे प्रत्यक्ष रूप से दिखाई न दे. यहाँ अमेरिका ने एक बार फिर अपनी भूमिका का निर्वाह किया. जिस सफाई से सब कुछ ख़त्म करके विश्व को सूचना दी गई यह अमेरिका का ही बूता था.कुछ ऐसे मुल्क और लोग जो अमेरिका की हर कारगुजारी को ठंडेपन और अवहेलना से देखने के आदी हैं, शायद फिर अपने मुंह की मक्खियाँ उड़ाने में कुछ समय लेंगे, उसके बाद ही कुछ कह पाएंगे, लेकिन वे जब भी जुबान की जुम्बिश का मन बनायेंगे, कम से कम ये तो स्वीकार करेंगे ही कि अमेरिका व्यावसायिक उथल-पुथल में भी अपने और दुनिया के अमन-चैन से खेलने वालों को दंड देने की अपनी ज़िम्मेदारी नहीं भूला. और भारत के सन्दर्भ में बात करें तो यह सोचने में भी कोई संकोच नहीं है कि लोग इसे अमेरिकी राष्ट्रपति के आगामी चुनाव से जोड़ कर देखेंगे और इसे सही वक्त पर करिश्मा करने की संज्ञा ही देंगे. इसमें भारतीय जन-मानस को कोई दोष भी नहीं दिया जा सकता क्योंकि भारतीय नेताओं ने उसे यही सिखाया है. हम वोटों के मौसम में ही खिलने के आदी हैं. बहरहाल भविष्य के हर ओसामा को नियति पर सोचने का एक मौका तो मिलेगा.
Sunday, May 1, 2011
आसमान की ताज़ा हवा या पिछवाड़े की बदबू दार बस्ती
कुछ लोग नौकरी को गंभीरता से नहीं लेते. वे यह नहीं सोचते की उन्हें अपनी शिक्षा का उचित प्रतिफल मिले, अपनी मेहनत के एवज में सुनहरा भविष्य मिले और अपना मनपसंद ऐसा काम मिले जो उपयोगी भी हो. इसके उलट, वे तो यह सोचते हैं कि घर के आसपास काम मिल जाये, चाहे जैसा भी हो. कहीं दूर न जाना पड़े. कभी-कभी विद्यार्थी भी मुझसे यह सवाल करते हैं कि घर के पास ही छोटी-मोटी नौकरी करना अच्छा है,या दूर जाकर बड़ी? इस सवाल का कोई एक उत्तर नहीं है. आपको कई बातें देखनी होंगी. फिर भी मैं कहूँगा कि निर्णय लेने से पहले यह सोचिये कि हर प्राणी का एक पेट है, और इसमें भोजन डालना ज़रूरी है. भोजन तो सबको मिलता है और हर जगह मिलता है. अब सरकारें किसी को भूखा तो नहीं ही मरने देतीं, चाहे मुफ्त में ही अन्न बाँटना पड़े. लेकिन यह आपको तय करना होगा कि आपको कैसा खाना चाहिए. क्या आप जानते हैं कि यदि शेर की तरह खुद के मारे हुए शिकार का ताज़ा गोश्त खाना हो तो शेर की तरह ही जंगलों में दूर-दूर भटकना भी होगा. यदि आपका काम दूसरे की फेंकी हुयी बासी रोटी से चल जाता है तो गली के कुत्ते की तरह एक ही गली में भी जीवन काटा जा सकता है.यदि हमारा पेट कीट-पतंगों से भर जाये, तो घर से बाहर भी जाने की ज़रुरत नहीं है. छिपकली और कोक्रोच की तरह घर के भीतर नाली-गड्ढों में ही भोजन उपलब्ध है. परन्तु यदि आपको दुनिया देखने की ललक है, या आसमान की अनछुई ताज़ा हवा चाहिए तो परिंदे की तरह ऊंची उड़ान भी भरिये. अपने घोंसले का मोह छोडिये ,और यदि डर, आलस्य या नाकारापन आपको घर से दूर नहीं जाने देता तो दूसरों के टुकड़े पचाना सीखिए. यदि किसी का काम सूअर की भांति विष्ठा से ही चल जाता हो तब तो घर के भी केवल पिछवाड़े में ही पड़े रह कर जिंदगी कट सकती है, सामने आना भी ज़रूरी नहीं. फैसला आप को लेना है.
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