Thursday, February 4, 2016

"पिंजरा तोड़"

कुछ विश्वविद्यालयों की छात्राओं  के एक अनूठे अभियान की खबर इन दिनों मीडिया में आ रही है। वे शिक्षण संस्थानों के छात्रावासों में अपने दैनिक क्रियाकलापों पर लगाई गई पाबंदियों को लेकर नाखुश हैं, और इन्हें जेल सरीखा बताकर इनसे निजात चाहती हैं।
समय-समय पर महिला-सुरक्षा के नाम पर की गई सख़्ती को लेकर उन्होंने महिला-आयोग को एक नाराज़गी भरी रिपोर्ट भी भेजी है। उनका कहना है कि सुरक्षित रहने के लिए आज़ादी का बलिदान कर देना समस्या का समाधान नहीं है।
इस मुद्दे पर स्त्री-पुरुष मानसिकता के बीच खासा विवाद है।
पुरुषवादी सोच के लोग कहते हैं-
जहाँ खतरा है वहां हम न जाएँ। यदि चोर-उचक्के घर में आते हैं तो कांटेदार बाढ़ और समुचित पहरा लगाएं।यदि रात में जानवरों का खतरा है तो हम दिन छिपने पर घर लौट आएं। यदि हमारी कोई पोशाक आततायियों को हिंसा के लिए उकसाती है तो उसे न पहनें। अजनबी या संदिग्ध लोगों से मेलजोल न बढ़ाएं।
लेकिन महिलाओं को ये, या इनमें कुछ बातें अपमानजनक लगती हैं। उनका मन कहता है कि यदि कहीं खतरा है तो हम छिपने की जगह खतरे को नष्ट करने का प्रयास क्यों न करें?  हमें पहरे में बैठाने की जगह समाज, कानून व सरकारें हमलावरों को कैद करने की जुगत क्यों न करें? कांटेदार बाढ़ अपने पर लगाने की जगह जानवरों पर क्यों न लगाई जाये? किसी पोशाक को गन्दा कहने की जगह देखने वालों की नज़रों को गन्दी क्यों न कहें? अभिभावक शाम होते ही लड़कों को ये कहते हुए क्यों न घर में ही रोकें-"कहाँ जा रहे हो? क्या करोगे? किससे  मिलना है? दिन में क्यों नहीं मिले?"
अब आप खुद ही सोचिये-कौन सही है, कौन गलत?
"यानी आतंकियों के लिए सारा जहान और हमारे लिए पिंजरा?"         

1 comment:

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