Monday, March 31, 2014

क्या आपको अच्छा लगेगा, यदि यह खोज पूरी हो गयी?

अभी हाल ही में एक ऐसे युवक से मुलाकात हुई जिसके पास शोध करने की इच्छा तो थी, पर वह यह नहीं जानता था कि "इस" विषय पर शोध किस विषय के अंतर्गत होनी चाहिए.अर्थात उसने अपने मन में एक विषय पहले से ही चुन रखा था, जिस पर वह अनुसन्धान करना चाहता था.
मुझे अच्छा लगा. क्योंकि आजकल प्रायः विद्यार्थी यह सवाल भी मार्गदर्शक के पास ही लेकर चले आते हैं कि वे किस विषय पर काम करें?
उस लड़के के पास एक बड़ा दिलचस्प विषय था.
वह कुछ चुने हुए ऐसे लोगों की सूची बनाना चाहता था जो अपने जीवन में सफल,असफल,संघर्षरत,निराश,संतुष्ट आदि की  श्रेणी में आते हैं. इसके बाद वह गुप्त या विश्वस्त रूप से ऐसे लोगों के माता-पिता से मिलना चाहता था, और उनसे यह जानना चाहता था कि उन्होंने अपनी उस "संतान" को जन्म देते समय क्या सोचा था, अर्थात उससे क्या अपेक्षाएं थीं, उसके बारे में क्या अनुमान थे या उसे लेकर क्या विशेष बात थी !
वह लड़का सोचता था कि दुनिया में ठीक हमारे आने का "ब्लूप्रिंट" बनते समय हमारे निर्माताओं के सोच का कालांतर में उत्पाद [ हम ] पर क्या प्रभाव पड़ा, इसमें कुछ संगति या तारतम्य होना चाहिए। 
यह विषय शरीरविज्ञान- मनोविज्ञान जैसे किसी विवाद में न पड़ कर किसी न किसी घाट लगे.वैसे मेरा अनुमान है कि अपनी संतान के लिए "कम" कोई नहीं सोचता, महत्वपूर्ण यह होगा कि लोग ईमानदारी से बताएं कि वे उस समय किस मानसिक स्थिति में थे.                   

Thursday, March 27, 2014

थोड़ी देर और ठहर

सुबह का समय था. दो मुर्गे घूमने जा रहे थे. दोनों अच्छे मित्र थे, अक्सर ही चहलकदमी के लिए साथ-साथ निकल लिया करते थे.
चलते-चलते अचानक न जाने क्या हुआ कि एक मुर्गे ने अपना पर फैला कर अपने कान पर रख लिया. ऐसा लगता था मानो वह कुछ सुनना न चाहता हो. उसके मित्र ने इशारे से पूछा- क्या बात है, कान क्यों बंद कर लिए ?
वह बोला- अजीब-अजीब बेसुरी आवाज़ें आ रही हैं.
जहाँ एक मित्र ने कान बंद कर लिए थे, वहीँ दूसरा कानों पर ज़ोर डाल कर ध्यान से सुनने लगा कि बात क्या है. उसने सुना, बहुत सारे लोगों की  भीड़ की आवाज़ें आ रही थीं.सब एक दूसरे को भला-बुरा कह रहे थे, एक दूसरे की  निंदा कर रहे थे, एक दूसरे के लिए कड़वा बोल रहे थे.
वह बुद्धिमान था, सब समझ गया.वह अपने मित्र से बोला- घबराओ मत, ये तो लोगों की  आवाज़ है . वे सब अपना राजा चुन रहे हैं.
पहले मुर्गे ने आश्चर्य से कहा- अरे, यदि ये सब राजा चुन रहे हैं तब तो इन्हें और भी आदर के साथ सबके बारे में बात करनी चाहिए. ये तो सभी को कोस रहे हैं, और एक दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे हैं, कल जब इन्हीं में  से एक इनका राजा बनेगा तो क्या इन्हें यह सोच कर शर्म नहीं आयेगी कि इन्होंने उसके बारे में क्या-क्या कहा था ? खुद उस राजा को कैसा लगेगा कि जो लोग आज सम्मान से उसे माला पहना रहे हैं, वे कल तक उसके बारे में क्या-क्या अनर्गल बोल रहे थे ?
कुछ नहीं होगा, तुम्हें पता है कमल के पत्ते इतने चिकने होते हैं कि उन पर पानी की  बूँद ज्यादा देर नहीं ठहरती. हाथ में कितनी भी कालिख लग जाए, साबुन सब धो देता है, हाथी दिन भर धूल-मिट्टी में घूमे, तालाब में नहाते ही साफ़ हो जाता है, झाड़ू कितनी भी गंदगी में जाए,झाड़ते ही फ़िर … भगवान की  भी मूर्ति जब बनती है, तो छैनी-हथोड़ा चोट मार-मार कर पत्थर का दम निकाल देते हैं, बाद में फिर सब उसी के सामने सिर झुका कर अगरबत्ती भी जलाते हैं.
मुर्गे को सब समझ में आ गया, उसने कान खोल लिए और आवाज़ों का आनंद लेने लगा.            
         

Wednesday, March 26, 2014

संगीत,राजनीति, खेती,खेल,मौसम और दुनियादारी

थोड़ी देर पहले  मेरे एक मित्र का फोन आया.
मित्र बुजुर्ग हैं, राजस्थान के एक अपेक्षाकृत पिछड़े ज़िले में एक सुदूर ग्राम्य अंचल में अपने खेतों के करीब रहते हैं.मेहनती खूब हैं, और अपनी खेती-बाड़ी मुस्तैदी से अकेले सँभालते हैं. नेटवर्क की  अनिश्चितता के कारण, जब भी बात हो पाती है, खूब बात करते हैं.
तो मित्र ने मुझसे कहा कि उन्होंने  भारतरत्न लता मंगेशकर के ऊपर एक गीत लिखा है,और अब वे जानना चाहते हैं कि वे उसका क्या करें.
उन्होंने यह भी कहा कि वे पूर्व क्रिकेटर चेतन चौहान से बात करना चाहते हैं, कैसे करें?
वे बोले कल बारिश के साथ ओले गिरने से फसलें खराब हो गईं, किन्तु संयोग से उनकी फसल को नुक्सान नहीं हुआ.
उन्होंने बताया कि वे आगामी चुनावों के मद्देनज़र बीजेपी या आप के लिए बढ़िया स्लोगन लिख सकते हैं, वैसे नज़दीक के शहर के कांग्रेसी उम्मीदवार के चुनाव कार्यालय में उनका कोई मित्र भी है, जिसके लिए वे काम करने को तैयार हैं.
वे बोले-उनका स्वास्थ्य अच्छा है, खूब मेहनत कर लेते हैं,पर "लेबरपेन"होने पर खेती से इतर काम भी करते हैं.
जब वे रिटायर नहीं हुए थे तब उनके कार्यालय में एक "टेलीफ़ोन रजिस्टर" रखा जाता था,जिसमें लिखा जाता था कि कहाँ से, किसका फोन आया, कितनी देर, किस से और किस विषय में बात हुई?                

Tuesday, March 25, 2014

अरे, बेबी इतनी बूढ़ी थी?

कहते हैं कि दुनिया में कुछ चीज़ें ऐसी हैं जो कभी ख़त्म नहीं होंगी.कुछ चीज़ें ऐसी भी हैं जो हमेशा से थीं. लेकिन इन सभी में भी एक चीज़ ज़रूर ऐसी है जो हमेशा से थी भी, और हमेशा रहेगी भी. दुनिया की इस सबसे ज्य़ादा उम्रदराज़ चीज़ का नाम है प्यार.
इस प्यार को जब-जब याद किया जाएगा, तब-तब फूल खिल उठेंगे.क्योंकि फूलों का प्यार से बड़ा अपनापे का रिश्ता है.आपने वह कहानी तो सुनी ही होगी-
"एक था गुल और एक थी बुलबुल"
पुरानी कहानी है, मगर आज भी जब प्यार की  बात आती है तो यही कहा जाता है कि तुम भी किसी से प्यार करो तो प्यार गुल- ओ-बुलबुल सा करना …
इस कहानी को हिंदी फ़िल्मी परदे पर साकार किया था अभिनेत्री नंदा ने, जो बचपन में ही बेबी नंदा बन कर फिल्मों में आ गयी थी.देखते-देखते ये बेबी युवा तारिका बन गई और फिर अगली पीढ़ी ने एक दिन इसे प्रेमरोग में माँ की  भूमिका में भी देखा.
और आज अचानक खबर आई कि बेबी नंदा अब इस दुनिया में नहीं रही.
जिन लोगों ने नंदा को "अपने" दिनों में देखा है वे गवाही देंगे कि "चुलबुली" शब्द का अर्थ उन्होंने किसी डिक्शनरी से देख कर नहीं, बल्कि नंदा को देख कर ही जाना.वे पुराने दिनों में 'नया नशा' थीं.
यकीन नहीं होता कि वे अब न रहीं. श्रद्धांजलि !                 

Sunday, March 23, 2014

आपकी दुनिया

आप रोज़ जिस समय सोते हैं, एक दिन उससे कुछ जल्दी सो जाइये। यदि थोड़ी गम्भीरता और उत्सुकता से यह प्रयोग करना चाहें, तो उस दिन उस से कुछ अलग खाइये, जो आप रोज़ खाते हैं. ये दोनों बातें एक दूसरे को सहयोग करेंगी। यदि जल्दी सोने के कारण नींद आने में कोई रुकावट होगी तो आपका कुछ अलग खाना इस की प्रतिपूर्ति करेगा।
यहाँ एक बात का ध्यान आपको और रखना है, यह रात आपको सामान्य से अलग तरीके से बिताने की कोशिश करनी है.यदि एसी में सोने के अभ्यस्त हैं तो आज एसी मत चलाइये. यदि रात को बीच में प्यास लगने पर पानी पीने की  आदत है तो सिर्फ आज के लिए कोई कोल्डड्रिंक सिप कर लीजिये.खिड़कियां अमूमन बंद रहती हैं तो आज खोल कर रख देखिये, हाँ, मच्छरों से आपके रिश्ते कैसे हैं, ये ज़रूर आपको देखना होगा. मतलब ये, कि आपको हर तरह से आज कुछ अलग सा अहसास हो.
अब केवल आपको यह जानना शेष है कि यदि आप ऐसा करेंगे तो क्या होगा?
तो ऐसा करने से यह होगा, कि इस रात को आपको अच्छे-बुरे, अजीबोगरीब,अप्रत्याशित जो भी सपने, कल्पनाएँ या विचार आयेंगे, वे सभी एक खास मकसद के होंगे. मतलब ये, कि उनमें आपको वे सभी परिचित-अपरिचित ऐसे लोग दिखाई देंगे जो किसी न किसी तरह आपसे जुड़ना चाहते हैं. यह जुड़ाव व्यावसायिक भी हो सकता है, भावनात्मक भी,जिस्मानी भी, और रूहानी भी.                 

Saturday, March 22, 2014

क्या आपको पता है कि मंटू कुमार कहाँ है?

मंटू कुमार एसकेआईटी में इंजीनियरिंग का छात्र है. वह एक बहुत अच्छा कवि और सक्रिय ब्लॉगर भी है. उसके ब्लॉग पर उसकी कविताओं पर प्रतिक्रिया देने के चलते ही मेरी उस से पहचान हुई और फिर वह मुझसे मिलने भी आया. हम कई बार मिले और उसकी कविताओं पर कई बार बात होती रही, वह अपनी नई कवितायेँ मुझे दिखाने के लिए भी लाता था. जल्दी ही मेरी और उसकी कविताओं की सम्मिलित किताब "उगती प्यास दिवंगत पानी" भी छप गई, जिसे बहुत सराहना मिली.
किताब का विमोचन प्रेस क्लब में संपन्न हुआ और विमोचन कार्यक्रम का संचालन खुद मंटू ने ही किया.
इसके बाद उसके कॉलेज में छुट्टियां हो गईं और वह पंद्रह दिन बाद वापस आने के लिए कह कर बिहार चला गया.
इस बात को अब लगभग छह महीने हो गए हैं किन्तु मंटू लौट कर नहीं आया. वह न अपने ब्लॉग पर है, न फेसबुक पर और न ही उसे भेजे गए मेल का कोई जवाब आ रहा है. न ही उसके मोबाइल पर कोई उत्तर मिलता है.
अब तक मैं यही समझता रहा कि यह सब भविष्य के महाकवि के "मूड" का मामला है, वह शायद किसी नई पहचान के साथ अवतरित होना चाहता है.
लेकिन अब बात गंभीर होती जा रही है, मुझे फेसबुक पर उसके मित्रों से किये अनुरोध का भी कोई उत्तर नहीं मिला. अब मैं आपसे अनुरोध कर रहा हूँ कि कुछ जानकारी हो तो कृपया दें.                 

Wednesday, March 19, 2014

प्रेमचंद और गुलशन नंदा

पिछले दिनों एक सुखद संयोग हुआ. मैंने प्रेमचंद के उपन्यास "गोदान" पर बनी फ़िल्म और गुलशन नंदा के उपन्यास पर बनी फ़िल्म "दाग" लगभग एकसाथ ही कुछ दिनों के अंतराल पर देखी.
गोदान को देख कर ऐसा लग रहा था कि हम गुज़रे ज़माने की उस सरलता के दर्शन कर रहे हैं, जो अब पूरी तरह विलुप्त हो चुकी है. वहाँ "शशिकला" भी पढ़ीलिखी संभ्रांत महिला की  तरह बर्ताव कर रही थी और उसके पात्र का खलनायिका-पन केवल यही था कि वह पूंजीवादी विचारधारा की  समर्थक थी. गरीबी और क़र्ज़ के कारण घर से भागा बेटा शहर से जब वापस लौटा, तो "महमूद" होते हुए भी उस पर किसी को हंसी नहीं आई. बलराज साहनी उस "अच्छेपन" से ग्रसित नज़र आये जिसे नई पीढ़ी बेवकूफ़ी कह कर ख़ारिज कर चुकी है. आज जैसा समाज है उसके चलते नायिका कामिनी कौशल सनकी और शशिकला अपटूडेट नज़र आ रही थी.
उधर "दाग" में राजेश खन्ना, शर्मीला टैगोर और राखी गुलज़ार ['गुलज़ार' इसलिए लिखना पड़ रहा है क्योंकि यह दूसरी कई राखियों का दौर है] ने दशकों पहले ही ऐसे पात्र जी दिए थे जो आज हैं.
हाँ, ईमानदारी इसी में होगी कि आपको यह भी बताया जाय,कि गुलशन नंदा की कहानी दाग "मेयर ऑफ़ कास्टरब्रिज"से प्रेरित थी और इसमें उनके उपन्यास "मैली चांदनी"के पात्र भी सम्मिलित कर लिए गए थे.
तात्पर्य ये है कि उपन्यास और फ़िल्म दो अलग-अलग विधाएं हैं, केवल इनकी सफलता-असफलता के आधार पर किसी साहित्यिक "लेखक" को फ़िल्मी दुनिया में सफल या असफ़ल करार नहीं दिया जा सकता.                  

Tuesday, March 18, 2014

मिट्टी बोलती है?

मैं जब छोटा सा था, दुनिया के दूसरे देशों को तो क्या, अपने शहर को भी अच्छी तरह नहीं जानता था.  एक दिन स्कूल में परीक्षा के दौरान पेपर में एक पत्र लिखने के लिए आया, किन्तु टीचर ने कहा कि इसमें कहीं भी अपने शहर का वास्तविक नाम न लिख कर काल्पनिक नाम लिखना है. वे शायद हमें बोर्ड की  परीक्षा की तैयारी करवाने के उद्देश्य से ऐसा कह रहे थे, क्योंकि वहाँ अपनी पहचान छिपा कर ही परीक्षा देनी होती है.
जहाँ मेरे अन्य मित्रों ने अपने शहर के आसपास के दूसरे नगरों के नाम लिखे, मैंने न्यूयॉर्क का नाम लिख दिया.पता लगने पर कुछ मित्रों ने मुझे परीक्षा के प्रति अगंभीर कहा, तो कुछ ने मेरी कल्पना की  उड़ान पर अचरज ज़ाहिर किया.
लगभग पचास वर्ष का समय बीत गया, और संयोग देखिये, मैंने अपना ये ब्लॉग आज से पाँच वर्ष पहले न्यूयॉर्क से ही शुरू किया.
इतना ही नहीं, मैंने लगभग बचपन में ही लिखी अपनी पहली कहानी में जब एक विदेशी युवती का ज़िक्र किया तो बिना कुछ जाने उसे केलिफोर्निया से आयी हुई बताया. मैं तब यह भी ठीक से नहीं जानता था कि केलिफोर्निया कहाँ है, और कैसा है.
और आज आधी सदी बीत जाने के बाद यह बात मुझे अजूबा ही लगती है कि मेरा ब्लॉग भारत से भी ज्यादा अमेरिका में, और विशेष रूप से केलिफोर्निया में खुलता है. मुझे पढ़ने वाले सबसे ज्यादा वहीँ से आते हैं.
मुझे लगता है जैसे केलिफोर्निया की मिट्टी ने मेरे बचपन में ही मेरे अवचेतन में अपनी गंध भर दी, जैसे न्यूयॉर्क ने मेरे मानस में अपना ध्वज पचास साल पहले ही फ़हरा दिया था.सचमुच, मिट्टी बोलती है.                  

Monday, March 17, 2014

भोले मासूम राक्षस

कल होली का त्यौहार था. रंगों और उमंगों का त्यौहार !
सुबह से ही बहुत मासूम मौसम था. इस दिन सब बहुत भले-भले से लगते हैं, क्योंकि एक तो रंग खेलने की मुद्रा में पुराने कपड़ों में होते हैं, बिना नहाये-धोये अपने ओरिजनल चेहरे-मोहरे में होते हैं, दूसरे अपने स्टेटस, स्तर,जाति आदि से बेपरवाह होते हैं, और किसी को भी छू देने या छू लिए जाने की निर्दोष मानसिकता में होते हैं.ऐसा ही था, और चारों ओर देख कर ऐसा लग रहा था कि ज़िंदगी यही है, इसमें कहीं किसी दुःख का नामो-निशान नहीं है.पिछले चार महीने की  सर्दी ने भी जैसे धूप को चार्ज दे दिया था.
लेकिन दिन चढ़ते-चढ़ते सड़कों पर छोटे-छोटे किशोर और बच्चे दुपहिया वाहनों से तीन-चार सवारियों के बोझ से लहराते, ट्रेफिक नियमों को धता बताते, एक दूसरे से होड़ करते इस तरह अवतरित होने लगे मानो यह कोई शहर नहीं बल्कि घना जंगल हो, जिसमें कोई भी कभी भी घायल हो सकता है, कोई भी कभी भी मर सकता है.जो युवा या परिपक्व थे, उनमें कई नशे की  गिरफ्त में थे.
शाम होते-होते टीवी पर हर हस्पताल के आंकड़े आने लगे कि कहाँ-कहाँ कितने भर्ती हैं.कुछ अपनी गलती से और कुछ बेचारे निर्दोष दूसरों की  गलती से.
कभी-कभी लगता है कि हमारे त्यौहार भी अर्थ-व्यवस्था में सभी को कुछ न कुछ बांटने के लिए आते हैं. और सभी से कुछ न कुछ छीनने भी.              

नए राज का जादू

जंगल में अफरा-तफरी मची हुई थी. राजा शेर अब उम्रदराज़ हो चला था, उससे जंगल का राज-काज अकेले सम्भलता न था.वह फैले कामकाज को निपटाने के लिए कभी भालू,कभी लकड़बग्घे,कभी भेड़िये,कभी चीते को साथ बैठा लेता था. लेकिन इससे भी पार न पड़ती थी. वे सभी मदद करने का भारी ईनाम तो लेते ही थे, साथ ही चोरी छिपे राजा के हिस्से का माल भी उड़ा जाते थे.और जनता में ये रौब भी गाँठते  थे कि वे राजा के साथी हैं.
धीरे-धीरे जनता में ये कानाफूसी होने लगी, कि पास के जंगल से कोई मज़बूत कद-काठी का दूसरा शेर लाकर उसे क्यों न राजा बना दिया जाये?
जैसे ही यह खबर फैली, राजा और उसके दरबारियों की नींद उड़ गई. और कोई चारा न देख कर राजा ने संन्यास लेने का फैसला मन ही मन कर डाला. दरबारियों में खलबली मच गई. उन्होंने जनता से कहना शुरू किया, कि चिंता न करें, हम कमउम्र के युवा राजा को गद्दी पर बैठा देंगे.परन्तु जनता को भरोसा न हुआ,उसे लगने लगा कि खूंखार दरबारियों से घिरा मासूम राजा भला जंगल को कैसे संभालेगा?
दरबारियों ने अपनी नैय्या डूबती देख एक नया पैंतरा बदला. वे जानते थे कि राजा की  दुर्दशा उनकी वजह से हुई है. वे सभी डूबती नाव से निकल-निकल कर भागने लगे.
लेकिन जनता अच्छी तरह जानती थी कि वे सब पिकनिक पर जा रहे हैं, शाम को फिर लौट आयेंगे.
जनता ने तय कर लिया कि इस खेल-तमाशे को अब हमेशा के लिए ख़त्म करना है.जंगल आखिर उसका अपना था, उसका ख्याल जनता क्यों न रखती ?   
             

Sunday, March 16, 2014

ये हुई न बात

एक बार दरबार में अकबर ने दरबारियों से कहा- "आज मैं सभी से दस सवाल पूछूंगा, लेकिन शर्त ये है कि जो भी इनका उत्तर देना चाहे उसे कुल मिला कर बस एक शब्द ही बोलने की  इजाज़त होगी और उसी में सभी प्रश्नों का उत्तर होना चाहिए."
दरबारियों के सिर पर चिंता के बादल मँडराने लगे,किन्तु फिर भी वे सांस रोक कर सुनने लगे.
बादशाह ने कहा- "ऐसा कौन है जो सब कुछ कर सकता है?"
-"ऐसा कौन है जिससे कुछ नहीं होता?"
-"ऐसा कौन है जिसे सब पसंद करते हैं?"
-"ऐसा कौन है जिसकी सब आलोचना करते हैं?"
-"ऐसा कौन है जो सबसे गरीब है?"
-"ऐसा कौन है जिसके पास बेशुमार धन है?"
-"ऐसा कौन है जो बहुत तेज़ी से चढ़ता है?"
-"ऐसा कौन है जो तेज़ी से उतर जाता है?"
-"ऐसा कौन है जो सबको रोटी देना चाहता है?"
-"ऐसा कौन है जो खुद रोटी खाने के सबसे पैसे लेता है?"
सब सिर खुजाने लगे.सबको लगा-ये आज बादशाह को क्या हो गया है, भला इतने सारे बेतुके सवालों का जवाब कोई एक ही शब्द में कैसे दे सकता है? सन्नाटा छा गया.
बादशाह ने गर्व से बीरबल की  ओर देखा-"क्यों बीरबल , तुम भी निरुत्तर हो गए?"
बीरबल ने कहा- "हुज़ूर,जवाब तो मैं दूंगा,पर इसके लिए कुछ दिनों की  मोहलत चाहिए."
-"बोलो कितने दिनों की ?" बादशाह ने कहा.
बीरबल बोला-"बस हुज़ूर,आचार संहिता ख़त्म होने तक की"
-"मोहलत तो हम दे देंगे, लेकिन याद रखो, यदि तुम्हारे जवाब से हम खुश नहीं हुए तो कड़ी सजा मिलेगी" ! बादशाह ने कहा.         

Saturday, March 15, 2014

अभय-निर्भय मीडिया

जिस तरह हर सुबह कौने-कौने में धूप लेकर सूरज को जाना पड़ता है, जिस तरह उपवन-उपवन ताज़गी लेकर हवा को जाना पड़ता है, जिस तरह जीवन सन्देश लेकर घाट-घाट पानी को जाना पड़ता है, उसी तरह बस्ती-बस्ती खबर लेने मीडिया को जाना पड़ता है.
जिस तरह आग से गर्मी आती है, फूल से खुशबू आती है, दीपक से प्रकाश आता है, वैसे ही नेताओं से खबर आती है, और यह खबर मीडिया लाता है.
अगर कभी मीडिया जेल में चला जाए तो क्या हो?
शायद कुछ नहीं !
क्योंकि ख़बरें तो वहाँ भी हैं, नेता-गण तो वहाँ भी हैं, ख़बरें फिर भी आएँगी !
  

Saturday, March 8, 2014

आप यूँही अगर

जब पब्लिक किसी सिनेमाघर से फ़िल्म देख कर निकलती है तो बड़ा अजीबोगरीब नज़ारा होता है।  वही हीरो,वही हीरोइन,वही कहानी,वही  गीत-संगीत,वही मारधाड़,वही फोटोग्राफी सबने देखी पर फिर भी भीड़ में अलग-अलग स्वर सुनाई देते हैं।
-"वाह पैसा वसूल, मज़ा आ गया।"
-"बोर है, इसकी पिछली ज्यादा अच्छी थी।"
-"कहानी तो कुछ है ही नहीं।"
-"गाने बढ़िया हैं।"
और यही सब होते हैं आम आदमी।"सलमान की एक्टिंग बढ़िया है, करीना को तो एक्टिंग आती ही नहीं,संगीत बोर है " ऐसे जुमले जबतक "फीडबैक"की  तरह रहते हैं ,ठीक हैं।  मगर उन्हीं दर्शकों को अगर ये मुगालता हो जाए, कि करीना की  जगह हम एक्टिंग करके बताएं,या अन्नू मालिक की जगह संगीत हम देकर दिखाएँ तो बात का क्या हश्र होगा, यह कल्पना भी नहीं की जा सकती।
यही हाल राजनीति में भी होता है, सरकार कैसी है, यह बताना तो आसान है, काम ठीक कर रही है या नहीं, इस पर भी राय दी जा सकती है, पर सरकारों पर प्रतिक्रिया देने वाले खुद सरकार बनाने या चला कर दिखाने में भी माहिर हों ये कोई ज़रूरी नहीं।
           

Friday, March 7, 2014

दिल्ली के जाले अब केरल की बंदनवार

घर चाहे छोटा सा हो, चाहे बड़ा बंगलेनुमा, रहते-रहते मैला हो ही जाता है।  और अगर घर दिल्ली जैसा हो तो मैल के छींटे पूरे देश पर पड़ते हैं। तो जब दिल्ली में भ्रष्टाचार बढ़ा तो खेल-खेल में उसका कीचड़ देश ही नहीं, बल्कि दुनिया में फ़ैल गया।
लेकिन दिल्ली के लोग भी कोई कम नहीं हैं। जब गंदगी होती देखते हैं तो सफाई करना भी जानते हैं।  उन्होंने झाड़ू उठाई और झटपट आनन-फानन में सारा कचरा झाड़ फेंका।
लेकिन तकनीक का कमाल है कि री- साइक्लिंग से कचरे में से भी कुछ न कुछ काम का निकल ही आता है।लिहाजा दिल्ली की  दीवारों से उतारे गए जाले भी बंदनवार बना कर केरल की  दीवार पर चिपका दिए गए।  इस से चाहे किसी को कितनी भी घिन आये, फायदे भी खूब हुए।  गिनिये-
-दिल्ली भी साफ़ हुई , और केरल को भी दिल्ली का तोहफा मिला।
-जनता ने दगा करने वालों को सज़ा दी, पर सत्ता ने मुनाफा पहुंचाने का इनाम भी दिया।
-चुनावों के बाद जब गद्दी के लिए जोड़तोड़ करने का मौसम आएगा तो सुदूर दक्षिण में अपना भी एक दरबारी बैठा मिलेगा।
-क़ानून जब कचरा करने वालों को तलाश करने निकलेगा तो "राजमहलों" में थोड़े ही घुस पायेगा !
और अबव ऑल , ये भरोसा भी हो गया कि अंततः झाड़ू "हाथ"में ही आती है, फूलों में तो जाती नहीं !            

Thursday, March 6, 2014

रथ में घोड़े जोतने का समय

  भारतीय लोकतंत्र के रथ में जुते घोड़ों की  मियाद पूरी हो रही है।  मई के तीसरे सप्ताह के शुरू होते ही एक   ऐसी ताज़ा बयार आएगी जो इन कालातीत घोड़ों के भाग्य का फैसला कर देगी।
यह पहला मौका है जो  लोकसभा के चुनाव नौ चरणों में संपन्न होंगे।  अस्सी करोड़ से भी अधिक लोग इन चुनावों में मतदान करेंगे।  इस लम्बी कवायद के बाद देश को नई सरकार मिल जायेगी।
क्या होगा, यह तो चुनाव के बाद ही तय होगा, किन्तु "यदि ऐसा हो जाए" तो यह देश के भविष्य के लिए निश्चित रूप से बेहतर होगा-
किसी एक ही दल या गठबंधन को सरकार बना सकने लायक स्पष्ट बहुमत मिले ताकि संसद को मंडी बनने से रोका जा सके।
रथ का सारथी कोई ऐसी शख्सियत वाला नेता बने जो देश को अपनी नीतियां और इरादे अच्छी तरह समझा कर मैदान में आया हो, किसी जोड़तोड़ भरी लॉटरी में न निकला हो।
दिल्ली की  पूर्व राज्य सरकार के ऐसे अजूबे की  तरह न हो जो जिसके खिलाफ आग उगलता आये, उसी की  गोद में बैठकर [समर्थन से] शासन करना चाहे।
हम यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि ये सारे अस्सी करोड़ मतदाता दूध के धुले नहीं हैं, इन्हीं में अपराधी-भ्रष्टाचारी भी हैं, इन्हीं में लोभी-लालची भी,इन्हीं में अनपढ़ , इन्हीं में ढोंगी-दुराचारी भी, इन्हीं में नशाखोर, इन्हीं में टैक्स चोर-घूसखोर भी, इसलिए कुछ भी हो सकता है, लेकिन फिर भी अच्छा सोचने में क्या हर्ज़ है?
जो होगा, अच्छा ही होगा।          

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...