Monday, March 25, 2013

हमारा कार्य,पंचतंत्र और हम

उन दिनों मैं एक ऐसे विश्वविद्यालय से जुड़ा था, जो नर्सरी से डीलिट तक शिक्षा देता था। मैं एक मित्र के घर भोजन पर निमंत्रित था। मित्र एक पत्रिका के संपादक थे, जो स्वास्थ्य,दिनचर्या तथा पारिवारिक विषयों की सामान्य जानकारी देती थी। वे बारीकी से बताते थे, कि  भोजन कैसा हो, कैसे खाया जाए, कैसे उसकी पौष्टिकता बनाए रखी जाये, आदि।
थोड़ी ही देर में स्वादिष्ट भोजन की व्यंजनों से भरपूर थाली हमारे सामने आ गई। उन्होंने एक बड़ा सा कौर अपने मुंह में डाला। मैंने भी शुरुआत की।
अभी कुछ क्षण ही बीते होंगे कि  उन्होंने कौर चबाते-चबाते मुझसे पूछा- "विश्वविद्यालय की फीस कितनी होती है?"
मैंने अपने मुंह का कौर जल्दी से निगला और उनके प्रश्न का उत्तर देने लगा- "नर्सरी में सौ रु. महीने-हर तिमाही में देने पर दो सौ पचहत्तर रु.-अर्धवार्षिक रूप से देने पर पांच सौ पच्चीस रु.-एक साथ देने पर एक हज़ार रु. साल भर के।" फिर इसी तरह मैंने उन्हें पहली क्लास से डीलिट तक, फिर विषयानुसार अलग-अलग, फिर डे-स्कॉलर और होस्टल की फीस, फिर परीक्षा शुल्क बताना जारी रखा, वे सुनते रहे और खाते रहे।
कुछ देर बाद उनकी पत्नी प्लेट में रोटी लेकर आईं और मुझसे बोलीं-"अरे, आपने तो कुछ खाया ही नहीं, खाना  पसंद नहीं आया क्या?"
मैं केवल मुस्करा कर रह गया। मुझे बचपन में पढ़ी पंचतंत्र की वह कहानी याद आने लगी कि किस तरह एक लोमड़ी ने सारस को खाने पर बुलाया और एक ही थाली में दोनों के लिए खीर परोस दी। सारस अपनी लम्बी चोंच से कुछ दाने ही चख पाया था कि  लोमड़ी ने खीर ख़तम कर दी। अगले दिन सारस ने लोमड़ी को आमंत्रित किया और एक सुराही-नुमा बर्तन में भोजन परोसा। लोमड़ी बर्तन में मुंह डालने की कोशिश ही करती रही, और सारस ने अपनी लम्बी चोंच से भोजन समाप्त कर डाला। 
मैं मन ही मन सोचने लगा कि  अगले सप्ताह उन मित्र को खाने पर बुलाउंगा और उनके खाना शुरू करते ही उनसे पूछूँगा कि  आप पत्रिका में किस विषय पर लेख छापते हैं?   
  

6 comments:

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