Monday, October 31, 2011

इस तरह मुझे मदद करनी पड़ी उसकी

मैं उन दिनों मुंबई में था. प्रकाशजी पुणे में रहते थे. एक दिन हम कुछ मित्र  लोग फोर्ट एरिया में बैठे एक कार्यक्रम की रूपरेखा बना रहे थे.कार्यक्रम एक बैंक की जुबली मनाने के सन्दर्भ में था. 
प्रकाशजी के बारे में हमें सूचना मिली कि वे अगले सप्ताह मुंबई आने वाले हैं.मेरे एक मित्र ने कहा- क्यों न हम इस कार्यक्रम में चीफ-गेस्ट के रूप में प्रकाशजी को बुलाएँ?
प्रकाशजी खुद एक बैंक में रहे थे. संयोग से उसी बैंक में मैं भी कुछ समय रहा था. मित्र बोले- प्रकाशजी को हम यह बात बता कर याद दिलाएंगे तो वे ज़रूर कार्यक्रम में आने को तैयार हो जायेंगे. 
मैंने बैंक में संपर्क करके उनका प्रोग्राम पता लगाया तो मुझे यह जानकारी मिली कि वह केवल दो दिन के लिए ही आ रहे हैं. हमें उम्मीद हो गयी कि दो में से एक शाम वह हमें दे सकते हैं. हमने यह भी पता लगा लिया कि वह इन दो दिनों में मुंबई में कहाँ ठहरने वाले हैं. उनके एक निकट रिश्तेदार का पता भी हमें मिल गया. 
उनके रिश्तेदार से संपर्क करने पर पता चला कि वह ज़रूरी काम से मुंबई आ रहे हैं. दरअसल उनकी बिटिया की कोई परीक्षा थी जो दिलवाने के लिए ही वह आ रहे थे. 
प्रकाशजी के रिश्तेदार ने बताया कि वे इस दौरान न तो किसी से मिलेंगे और न ही किसी कार्यक्रम में शरीक होंगे, क्योंकि उनकी बेटी पढ़ने में बहुत होशियार है, और वह उसे टेस्ट से पहले बिलकुल भी डिस्टर्ब नहीं करना चाहते.
यह सुन कर हमने उन्हें इनवाइट करने का ख्याल छोड़ दिया. 
सुप्रसिद्ध बेडमिन्टन खिलाड़ी प्रकाश पादुकोणे उन  दो दिनों  के दौरान किसी से नहीं मिले.और इस तरह डिस्टर्ब न करके हमने भी उनकी बिटिया दीपिका पादुकोणे की मदद की.      

Sunday, October 30, 2011

मैडम करीना लन्दन में

मैं जब पिछले साल न्यूयॉर्क के मैडम तुसाद म्यूजियम में गया था, तो वहां घूमते हुए मुझे यह महसूस हुआ था कि इसमें भारतीय लोग कम हैं, कुछ और होने चाहिए. फिर हमें यह बताया गया कि लन्दन वाले संग्रहालय में भी  कुछ नए लोगों की प्रतिमाएं शोभायमान हैं. उन दिनों वहां ऐश्वर्या राय के होने की चर्चा ताज़ा थी. 
म्यूजियम तो प्राचीनता की संग्रह-स्थली होते हैं. नए लोग तो वैसे ही जन-भावनाओं में छाये हुए होते हैं. जिन लोगों को रोज़ मीडिया में देखा जा रहा है, वे तो वैसे भी म्यूजियम में रखे अप्रासंगिक ही लगते हैं. 
इसी सोच के चलते लगा था कि शायद वहां अब नर्गिस, मधुबाला, वैजयंतीमाला, मीना कुमारी, साधना, हेमा मालिनी, रेखा, श्रीदेवी, माधुरी दीक्षित, काजोल, रानी मुखर्जी के बीच से चुनी गई कोई शख्सियत देखने को मिलेगी. 
अमिताभ बच्चन और शाहरुख़ खान के बाद अशोक कुमार, राजकपूर, देवानंद, दिलीप कुमार, राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त, शम्मी कपूर, राजेश खन्ना आदि पर संग्रहालय के चयन-कर्ताओं का ध्यान जायेगा, यह भी उम्मीद जगी थी. 
लेकिन कहते हैं कि जो जीता वही सिकंदर.
करीना कपूर को भव्य और शानदार  बधाई, कि उन पर अंतरराष्ट्रीय जगत के प्रतिष्ठित लोगों का ध्यान गया. सैफ अली के पिताश्री को खोने की दुखद छाया जो पिछले दिनों उन्होंने झेली थी, उसे हटा कर अब इस कामयाबी की चमकती धूप उन्हें मुबारक.  

Saturday, October 29, 2011

अरी ओ शोख कलियो, मुस्करा देना वो जब आये.

उसके आने की आहट आ रही है.सबा से ये कहदो कि कलियाँ बिछाए, वो देखो वो जाने बहार आ रहा है. आएगा... आएगा... आएगा... आएगा आने वाला, आएगा. आइये आपका, था हमें इंतज़ार, आना था, आ गए, कैसे नहीं आते सरकार?आ जा जाने जाँ.
आगमन पर अगवानी की परंपरा बहुत पुरानी है.जब कोई आता है तो एक अजीब सी आशा उग जाती है. ऐसा लगता है कि जैसे अब कोई आ रहा है. अब तक जो थे, सब पुराने पड़ जाते हैं.जो थे, वो तो थे ही, उनका क्या? लेकिन जो अब आ रहा है, न जाने कितनी उम्मीदें लाये? 
एक बार उदयपुर  के महाराणा के महल में एक बड़ा समारोह हो रहा था. "मेवाड़ फाउंडेशन"के पुरस्कार बांटने का महोत्सव था. महल के भव्य और शानदार सज्जित दालान में हम सब बैठे थे. तभी अचानक जोर से बैंड बजने की आवाज़ आने लगी. मेरे साथ बैठी मेरी भतीजी मुझसे बोली- ये बैंड क्यों बज रहा है? तभी दिखाई दिया कि महाराज साहब अपने महल से निकल कर समारोह में आ रहे हैं. वह नन्ही बच्ची तुरंत बोली- ये अपने घर से निकलने में ही बैंड क्यों बजवा रहे हैं? इस बात का किसी के पास कोई जवाब नहीं था, इसलिए सब चुपचाप उन्हें आते देखने लगे. वे आ रहे थे. 
कहने का तात्पर्य यह है कि किसी का आना बड़ा ख़ास होता है, चाहे वह कितना ही आम हो. 
आने वाला तो अतिथि होता है, चाहे आम हो या ख़ास. 
वो कल आएगा. वो भारत में आएगा. भारत के उत्तर प्रदेश में. दुनियां के सात अरबवें बच्चे का स्वागत नहीं करेंगे?   

क्या घर में रौशनी का यही इंतजाम है

सब जानते हैं कि आदम और हव्वा का सफ़र एक साथ शुरू हुआ था. फिर भी बहुत सी बातें अलग-अलग हुईं. हमारे देश में तो शायद कोई नहीं जानता होगा कि देश में पहला पुरुष पुलिस अधिकारी कौन और कब हुआ. देश में पहला ज़ुल्म कब, कहाँ, किस महिला के साथ हुआ. 
पर यह एक सुखद संयोग है कि देश की पहली महिला आई पी एस अधिकारी के बारे में सब जानते हैं.इस महिला का पूरा कैरियर खुली किताब की तरह है. यह भी समय-सिद्ध है कि इस महिला ने अपने कर्तव्य-पालन में कभी कोई कोताही नहीं की. फिर भी सेवा-निवृत्ति के समय से पहले ही स्वैच्छिक सेवा-निवृत्ति ले लेने को विवश होना, इस महिला के कैरियर पर नहीं, बल्कि पुरुष समाज की मानसिकता  पर एक कलंक की तरह है.
डॉ. किरण बेदी इसके बाद भी केवल  दादी-नानी बन कर घर की रसोई के इर्द-गिर्द खर्च नहीं हुईं. उनका जीवन अब भी प्रखर राष्ट्रीय और मानवीय लक्ष्य को समर्पित है. आज केवल अन्ना हजारे की मुहिम में साथ देने के कारण उन पर ऐसे-ऐसे बचकाने आरोप लगाए जा रहे हैं, जो एक सामान्य पुलिस वाले की कमाई के समकक्ष भी नहीं हैं. जो लोग अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों को खलनायक सिद्ध करने पर तुले हैं, वे शायद नहीं जानते कि वे इतिहास के किन बदबूदार गलियारों में अपने भविष्य को गिरवी रख रहे हैं? 
और सबसे बड़ा अचम्भा यह है कि देश के अखबार अन्ना और साथियों के कार्टून छाप रहे हैं. काले अक्षरों पर पलने वाला मीडिया काले और सफ़ेद को पहचानने में गच्चा कैसे खा गया? 

Friday, October 28, 2011

इतिहास ने बहुत कन्फ्यूज़ किया है राजाओं को

राजा इतिहास बनाते हैं, इतिहास से बनते नहीं हैं. अब राजाओं का ज़माना तो रहा नहीं, फिर भी राजा रह गए, इक्का-दुक्का ही सही. 
लेकिन जितने भी रह गए, छाये हुए हैं. दस जनपथ के चौबारे से लेकर तिहाड़ तक राजाओं का ही बोलबाला है. 
कहते हैं कि पहले राजा लोग अपने दरबार में दरबारियों की ऐसी फौज रखते थे, जिसका काम केवल राजाओं की तारीफ करना ही होता था.वह फौज यह नहीं देखती थी कि राजा ने क्या किया? बस, जो किया उसका गुणगान करना ही उसका अकेला काम होता था. 
बाद में कुछ संतों ने कहा कि 'निंदक नियरे राखिये' तो कुछ दूरदर्शी राजाओं ने एकाध निंदक भी रखना शुरू कर दिया. लेकिन धीरे-धीरे राजा इस बात पर बिलकुल कन्फ्यूज़ हो गए कि निंदक रखें या चाटुकार? 
अतः राजाओं ने सोच समझ कर कुछ ऐसे दरबारी रखने शुरू कर दिए जो निंदा और स्तुति दोनों में ही पारंगत थे. वे अपनों की स्तुति करते थे और दूसरों की निंदा. 
समय ने पलटा खाया और लोकतंत्र में आम आदमी राजा बनने लगा तथा "राजा" दरबारी बनने लगे. राजाओं को निंदा और स्तुति, दोनों ही हुनर आते थे, अतः उनकी दूकान खूब चलने लगी. लोग केन्द्रीय मंत्री और मुख्य मंत्री की कुर्सियां छोड़-छोड़ कर दरबारी बनने लगे. जब भी आलाप लेते किसी न किसी अपने की तारीफ और पराये की बुराई कर देते. 
सुबह के सूरज के साथ-साथ कुछ न कुछ बोल देना, बस यह उनका काम हो गया. 
इतना ही नहीं, धीरे-धीरे राजा दरबारी मन्नतें भी मानने लगे. कभी मन्नत मांगते कि अन्ना भ्रष्ट हो जाएँ तो कभी दुआ मांगते कि कलमाड़ी निर्दोष हो जाएँ. अब जो हैं नहीं, वो कैसे हो जाएँ? 
तो राजा दरबारियों ने संशोधन कर लिया कि अन्ना भ्रष्ट "सिद्ध" हो जाएँ और कलमाड़ी ईमानदार "सिद्ध" हो जाएँ.  

Thursday, October 27, 2011

साओ लुईस में यह हवा सूरीनाम से ही पहुंची होगी

नई दिल्ली के प्रेस एन्क्लेव से एक पत्रिका निकलती है- "विश्व हिंदी दर्शन". इस पत्रिका की कई विशेषताओं में से एक यह भी है कि इसने दुनिया भर के कई देशों से लोगों को भारत से जोड़ा है. वैसे तो यह काम दुनिया की सारी एयर लाइंस करती ही हैं, पर इस पत्रिका ने लोगों को जोड़ने का काम एक विशेष माध्यम से किया है. 
कुछ साल पहले मुझे भी इसके एक आयोजन में जाने का मौका मिला था. उस कार्यक्रम में सूरीनाम, मॉरिशस, वियेना, त्रिनिदाद, इंडोनेशिया आदि देशों से कई लोग आये थे. मुझे हरिशंकर आदेश की अच्छी तरह याद है, जिन्होंने वहां बहुत मधुर प्रस्तुति दी थी. इस कार्यक्रम में कुछ विद्वानों से आरंभिक चर्चा के बाद ही मेरे उस आलेख की रूपरेखा बनी थी, जो अगले विश्व हिंदी सम्मलेन में प्रस्तुति के लिए स्वीकृत हुआ. 
तो मैं बात कर रहा था उस विशेष माध्यम की, जिससे दुनिया के कई कोनों में निवास कर रहे लोग एक मंच पर आते हैं- वह माध्यम है 'रामायण'. 
यह पत्रिका संसार के कई देशों में रामायण सम्मलेन और राम-कथा जैसे आयोजन भी करवाती रही है. आज शाम को दीपावली उत्सव के माहौल में मुझे वह वार्तालाप याद आ गया, जो आदेश जी को आमंत्रित करने के लिए एक सज्जन कर रहे थे. वे शायद साओ लुईस में किसी क्लब से जुड़े थे, जो ऐसे एक आयोजन के लिए इच्छुक था. ब्राजील की यह तटीय धरती भू-मार्ग से सूरीनाम से कितनी ही दूर हो, सागर के रस्ते से तो नज़दीक ही है. जो लहरें साओ लुईस के तट को छूती हैं, वही लहराती-इठलाती फ्रेंच गुएना होती हुई सूरीनाम को भी स्पर्श करती हैं.  

Wednesday, October 26, 2011

अभिषेक का अतिरेक

अभी ज्यादा समय नहीं गुज़रा है जब दुनिया की अधिकाँश बस्तियां काले मेघ से पानी बरसाने की गुहार लगा रही थीं. जब आसमान से पानी बरस रहा होता है तब थोड़ी देर के लिए ऐसा लगता है जैसे अम्बर धरती का स्नेह से अभिषेक कर रहा है. 
मगर "थोड़ी देर" के लिए.उसके बाद यदि आकाश जल बरसाना बंद न करे तो ऐसा लगता है जैसे प्यास बुझने के बाद भी कोई अंजुरी में नीर बहा रहा है, और अमृत बर्बाद कर रहा है. 
थाईलैंड का जलप्लावन ऐसा ही है. न जाने कब से पानी बरसता ही जा रहा है. बैंकॉक के हवाई-तलों पर पानी भर जाने से उड़ानें रद्द हो रहीं हैं और इस तरह शहर की यह अस्त-व्यस्त किंकर्तव्य-विमूढ़ता  दुनियां भर को प्रभावित कर रही है. 
ऐसा लगता है कि कई निर्दोष-निरीह लोग बिना किसी अपराध या भूल के अकारण कष्ट सह रहे हैं. 
क्या हम इक्कीसवीं सदी को युद्धस्तर पर प्रकृति के अन्याय के खिलाफ खड़े होने में खर्च नहीं कर सकते? पीड़ितों के लिए बार-बार आर्थिक सहायता जुटाना एक बात है, और पीड़ा के आगमन को निरस्त करने के लिए प्राण-पण से जुट जाना दूसरी. 
जैसे हम सब मिल कर अराजक शासकों को अपदस्थ करते हैं, क्या ऐसा कोई जरिया नहीं है कि हम उसी तरह एक-जुट होकर अनावृष्टि पर उतारू बादलों को अपदस्थ कर सकें? 
मैं गलियों में खेल रहे बच्चों से निवेदन करता हूँ, कि जब खेल कर अपनी पढ़ने की मेज़ पर आओ, तब इस बात पर ज़रूर सोचना.    

Tuesday, October 25, 2011

माना कि राम आज अयोध्या वापस लौट आये, पर ...

आज दीपावली के अवसर पर सब की तरह मीडिया भी बहुत खुश है. एक बड़े नगर के अखबारों ने लिखा कि पिछले दो दिन में नगर में अरबों रुपये का इतना कारोबार हुआ कि शहर सोने का हो गया. 
चलिए, मान लेते हैं कि शहर में १०० लोग रहते हैं. सब किसी न किसी तरह जीवन यापन करते हैं. आज त्यौहार था, सब हर्षित थे, सब उल्लसित थे, सब प्रमुदित थे. 
आज सबने नए कपड़े पहने,दर्जियों और कपड़ा विक्रेताओं की चांदी हो गई.आज सबने पकवान खाए, हलवाइयों और मिठाई विक्रेताओं की जेब भर गई. सबने आतिशबाजी का लुत्फ़ उठाया, पटाखे बेचने और बनाने वालों की जम कर कमाई हुई. सबने छुट्टियों का आनंद उठाया, अफसरों-कर्मचारियों की जेब में बिना काम किये पैसा आया. आज सबने रौशनी और सजावट की, सजावट वालों की जेब में खूब पैसा आया. आज सब एक-दूसरे से मिलने गए. वाहन मालिकों और पेट्रोल विक्रेताओं को खूब मुनाफा हुआ.सबने साफ-सफाई करवाई. सफाई कर्मियों और स्वच्छता का सामान बेचने वालों को पैसा मिला. 
"सब" को पैसा, मुनाफा, माल मिला. 
किसने दिया? 
सबने. 
सब कौन? 
 अरे वही-दर्जी, कपड़ा विक्रेता, हलवाई, मिठाई विक्रेता, पटाखा निर्माता और विक्रेता, अफसर और कर्मचारी, बिजली वाले-सजावट वाले, वाहन मालिक और पेट्रोल विक्रेता, सफाई वाले आदि-आदि 
इन्होंने दिया कि इन्हें मिला?
इन्हें एक चीज़ का मिला और इन्होंने दस चीज़ों का दिया. 
यानि कुल मिला कर "लक्ष्मीजी की चहलकदमी" इस जेब से उस जेब तक. 
तो शहर सोने का कैसे हुआ? 
'मिस प्रिंट'...शहर सोने का नहीं हुआ, बल्कि दीवाली मना कर सोने को हुआ.     

Monday, October 24, 2011

कौन बो गया इतना उल्लास, किसकी यादों से आ रहे हैं ये उजाले?

दुःख को गाना कभी नहीं छोड़ा जा सकता. दुःख और कष्ट से ही वो तान निकलती है, जिसे ईश्वर भी सुनता है.वह चाहे जहाँ हो, उस तक ये क्रंदन पहुँचता ही है. फिर उसे पश्चाताप होता है. वह सोच में पड़ जाता है कि यह क्या हुआ?वह दुःख की चादर को समेट लेता है.
और तब आ जाती है दीवाली. रौशनी और उमंग मिल कर कोना-कोना बुहार देते हैं, ताकि दुःख कहीं ठहर नहीं सके. 
आप सब को साल का यही पड़ाव मुबारक! दीवाली शुभ हो.    

कुछ दिन पहले टर्की की वह तसवीर न देखी होती तो आज मन बीमार न होता

कुछ समय पहले अमेरिका से लौटे मेरे एक सहकर्मी ने मुझे टूरिस्ट विभाग का एक पब्लिकेशन देखने के लिए दिया. देखने के लिए इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि उसमें पढ़ने के लिए इतना मैटर नहीं था, जितनी तसवीरें थीं. वह टर्की का प्रकाशन था. हम उस समय एक प्रेस्टीजियस प्रकाशन पर काम कर रहे थे. 
वे तसवीरें ऐसी थीं जैसे शीशे की सतह पर पारे से चित्र उकेरे गए हों. 
ढेर सारी तसवीरों में एक फोटो मुझे याद हो कर रह गई. उस फोटो में एक लड़का अपनी दुकान पर बैठा फल बेच रहा था. वे फल देखने में ऐसे लग रहे थे, मानो उन्हें सूंघ कर देखा तो खुशबू आने लगेगी. 
आज मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मेरा अपना कोई बाग़ उजड़ गया हो.जैसे मेरी याद के वे फल ज़हरीले हो गए हों. जैसे वह लड़का बेरोजगार हो गया हो, जिसे मैं जानता तक नहीं.कौन जाने, ज़ख़्मी ही हो गया हो? नहीं, इससे आगे नहीं सोचूंगा. बीज से अंकुर, अंकुर से पौधा, पौधे से पेड़, पेड़ से फूल, फूल से फल बड़ी मुश्किल से बनते हैं. किसी को हक़ नहीं है कि कोई फलों से भरे टोकरे को इस तरह मिट्टी में मिलादे. एक निर्दोष युवा सौदागर को बेवजह ज़ख़्मी कर दे. 
ये हक़ किसी को भी नहीं है, भूकंप को भी नहीं.   

Sunday, October 23, 2011

वे नब्बे साल के अनुभवी बुज़ुर्ग और वह सत्ताईस साल का नादान

उनकी उम्र नब्बे साल है. खुदा का शुक्र है कि अभी भी अपने सब काम वे अपने हाथों से करते हैं. कुछ दिन पहले वे आधी रात में बिस्तर से उठ कर शौचालय जा रहे थे, जो कुछ ही दूरी पर था. अचानक उन्हें ऐसा लगा जैसे 'भगवान शिव'स्वयं उनके सामने आकर खड़े हो गए हों. बिलकुल वही आकार-प्रकार जो वे रोज़ पूजा में देखते आये थे.वे हतप्रभ रह गए, और दोनों हाथ जोड़ दिए. संयोग से उस समय वह छड़ी  भी हाथ में नहीं थी, जो वे अमूमन साथ रखते हैं.
इतना ही नहीं, लौटते समय वही मूरत फिर उनके सामने आई. अबकी बार वे बोल भी पड़े- महाराज, क्यों मेरे सामने बार-बार आ रहे हो, क्या मुझसे कोई भूल हो गई? मूर्ति अंतर्ध्यान हो गई.
जब वे बिस्तर पर आकर लेटे, तो उन्हें ऐसा लगने लगा, मानो वे समुद्र की तेज़ लहरों में डूबते जा रहे हों. बार-बार लहरें उन्हें गहराई की ओर ले जा रही थीं, जैसे वे डूबते जा रहे हों. 
अगली सुबह वह बहुत प्रफुल्लित थे, और हर आने-जाने वाले को अपनी रात की आपबीती सुना रहे थे. वे यह देख कर और भी प्रमुदित थे कि रोजाना में उनकी बात अनसुनी  कर चले जाने वाले लोग भी आज उन्हें ध्यान से सुन रहे हैं.मानो दिन ही पलट गए उनके. 
उनके छोटे बेटे का लड़का डाक्टर था. उम्र कुल सत्ताईस साल, पर बेहद प्रखर बुद्धि वाला. वह दूसरे कमरे में बैठा अपनी दादी को प्यार से समझा रहा था कि दादाजी की आँख का मोतिया-बिन्द इतना पक गया है कि उन्हें कभी-कभी  अपनी परछाई भी काली,  आकार लेकर चलते फिरते दूसरे आदमी की तरह दिखाई देती है.रात को कभी-कभी उनका ब्लड-प्रेशर भी बहुत कम हो जाता है, खासकर शौच से आने के बाद. दादी हैरानी से देख रही थी कि यह वही छुटका है, जो पैदा होने के बाद उसके  हाथों से खरगोश की तरह फिसलता था.        

तेल तो दिखा पर तेल की धार नहीं दिखी

राजस्थान का बाढ़मेर  जिला भारत और पाकिस्तान की सीमा का बड़ा भाग बनाता है. रेगिस्तान तो यह है ही. कुछ समय पहले इस क्षेत्र में भारी मात्रा में तेल होने का पता चला था. प्रधानमंत्री ने यहाँ एक टर्मिनल का उदघाटन किया और एक प्रसिद्द कंपनी के माध्यम से तेल निकलना शुरू हो गया.राज्य सरकार को काफी रायल्टी भी मिली.
लेकिन कुछ समय के बाद इतना तेल देख कर एक मंत्रीजी चिकने हो गए. उन पर से देश सेवा की भावना फिसल कर मिट्टी में मिल गई.उन्होंने उसी तेल में कम्पनी को भी तल दिया.
ज़मीन के ऊपर उदघाटन- भाषण चलते रहे, ज़मीन के भीतर से तेल रिस कर जेबों में पहुँचता रहा. भारत-पाकिस्तान की सीमा तो ज़मीन के ऊपर थी, धरती के गर्भ में तो सब मौसेरे भाई थे. 
ख़ुशी की बात यह है कि देश की कुंडली में कुछ नक्षत्र टेढ़ी चाल वाले हैं तो कुछ सीधी चाल वाले भी हैं. 
 महामहिम राष्ट्रपति महोदया ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय को पत्र भेज कर मामले में दखल देने और आवश्यक कार्यवाही करने का अनुरोध किया है. 
तेल-पेट्रोल महंगा है, पर खूब है. अब देखना यह है कि जैसे ज़मीन खोद कर तेल निकाला जा रहा था, वैसे ही सच्चाई खोद कर तेल की धार कब निकाली जाती है?    

Saturday, October 22, 2011

अमेरिका ने कह दिया, अब ज़रूर कुछ न कुछ हो जायेगा.

अमेरिका की साख केवल अंतर-राष्ट्रीय मुद्दों पर ही प्रभाव नहीं रखती, बल्कि कई देशों के स्थानीय विवादों में भी मार्गदर्शक बनती है.
राजस्थान भारत का सबसे बड़ा प्रान्त है. भारत के कई राज्य , जिनमें छोटे-छोटे राज्य भी शामिल हैं, अपनी-अपनी भाषा को मान्यता दिए हुए हैं. कई भाषाओँ को तो सरकारी राजभाषा के समकक्ष भी दर्ज़ा मिला हुआ है. लेकिन राजस्थानी भाषा को मान्यता की बात जब भी आती है, कहा जाता है कि राजस्थान की कोई एक भाषा नहीं है, जिसे राजस्थानी कहा जा सके. यहाँ मेवाड़ी, मारवाड़ी, हाडौती, ढूँढाडी, शेखावाटी आदि कई भाषाएँ हैं. 
यह तर्क अन्य राज्यों में नहीं चल रहा.जिन राज्यों ने अपनी क्षेत्रीय भाषा को मान्यता देरखी है, वहां भी एकाधिक भाषाएँ हैं.
पिछले दिनों अमेरिका की संस्था "राना" ने भी इस बात का समर्थन किया कि राजस्थानी को मान्यता मिलनी ही चाहिए. ऐसा वहां रह रहे राजस्थानी परिवारों की राय जानने के बाद कहा गया. 
देखने में आ रहा है कि राना की इस आवाज़ के बाद यहाँ भी मांग करने वालों की हलचलों में ताजगी आई है और उन लोगों ने भी इस मुद्दे को गंभीरता से देखना शुरू किया है, जो अब तक इस पर उदासीनता अपनाए हुए थे.    

आकाश गंगा में एक वही याद है अब

मीना कुमारी छत्तीस साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गई. दिव्या भारती ने तो पूरे दो दर्ज़न वसंत भी नहीं देखे. मधुबाला ने चालीस का आंकड़ा नहीं छुआ. संजीव कुमार जिस उम्र में गए वो दुनिया से जाने की उम्र नहीं थी. विमी चढ़ती उम्र में बतौर नई हीरोइन ही रुखसत हो गई.विनोद मेहरा आखरी वक्त में युवक ही थे.

वर्षों पहले की बात है. मैं मुंबई के चेम्बूर स्टेशन से उतर कर पैदल ही घूमता हुआ वसंत सिनेमा तक जा रहा था. वहां तक एक शॉर्ट कट भी था, और आर के स्टूडियो की ओर से घूम कर लम्बा रास्ता भी जाता था. उस दिन थोड़ी फुर्सत में था, इसलिए लम्बे रस्ते से जा रहा था. 
वीरू देवगन [तब अजय देवगन स्टार नहीं थे] के घर से नूतन के मकान के सामने होता हुआ मैं राजकपूर के बंगले तक पहुँचता, इससे पहले ही एक बंगले की बालकनी में मैंने शूटिंग का सेट लगा हुआ देखा. ज्यादा भीड़-भाड़ नहीं थी, कुछ लोग नीचे से ही रंधीर कपूर और स्मिता पाटिल को देख रहे थे. स्मिता पाटिल कोई विशेष मेक-अप में नहीं थीं. लेकिन थोड़ी सी देर रुक कर स्मिता  पाटिल की एक मिनट की शूटिंग देखने में न जाने कैसा प्रभाव पड़ा कि कुछ दिन बाद जब मैंने फिल्मांकन की द्रष्टि से नई कहानी लिखी तो उसकी नायिका में पूरी तरह स्मिता पाटिल की ही झलक थी. 
मैंने वह कहानी स्मिता पाटिल को ही भेज दी. वह ऐसा समय था जब बड़े सितारे अपनी फैन-मेल खोल कर भी नहीं देखते थे, लेकिन स्मिता पाटिल का पेन्सिल से लिखा जवाब आया कि मैं कहानी उनके किसी निर्माता को भेजूं, वे किसी कहानी के मामले में बिलकुल दखल नहीं देतीं. 
स्मिता पाटिल कुल इकत्तीस साल की उम्र में दुनिया से चली गईं.राज बब्बर से उनका विवाह हुआ था. आज उनके बेटे की एक तस्वीर देखी तो उन्हें याद करने का मन हुआ.  

Friday, October 21, 2011

टैरी थोम्प्सन के शेरों ने गद्दाफी से बोलना क्यों नहीं सीखा ?

भाषा वास्तव में बहुत अहम है.बोलना आना चाहिए. कहते हैं कि जिसे बोलना आता है वह बाज़ार में खड़े होकर मिट्टी भी बेच देता है.और जिसे बोलना नहीं आता, उसकी दुकान पर सोना भी बिना बिका रखा  रहता है.कीमत सोने या मिट्टी की नहीं है, वाचालता की है. 
अमेरिका के ओहायो नगर में जब टैरी थॉम्पसन ने अपनी जीवन लीला समाप्त करने से पहले अपने पालतू पशुओं को आज़ाद किया होगा, तब उसके चेहरे पर संतोष का वही भाव आया होगा, जो किसी पिंजरे से परिंदों को आज़ाद करके हवा में छोड़ते वक्त किसी इंसान के चेहरे पर आ सकता है. उसने सोचा होगा कि जब उसे भवसागर से मुक्ति मिल रही है तो वह क्यों किसी को बंधन में जकड़ कर रखे? लेकिन उन पशुओं में से कुछ कर्नल गद्दाफी की फितरत के थे. शायद इसीलिए उन्हें गोली का निशाना बनना पड़ा. और उन्हीं के साथ कुछ वे भी मारे गए जो शायद उतने खतरनाक नहीं थे. लेकिन एक बात है. ये बेजुबान जानवर शायद लीबिया के स्वयं-भू सुलतान जैसी किस्मत वाले नहीं थे, जो अपने आखिरी वक्त में कर्नल की तरह "डोंट शूट" की गुहार लगा कर कम से कम अपने जीवन के लिए एक आखिरी अपील तो कर सकें. इसलिए निर्विरोध मारे  गए.
जीवन-दान तो कर्नल गद्दाफी को भी नहीं मिला, लेकिन उसे भाषा-ज्ञान के चलते अपने क़त्ल करने वालों को कम से कम एक बार मन से कमज़ोर करने का मौका तो ज़रूर मिला. 
गद्दाफी और शेरों की तुलना इसलिए नहीं की जा रही कि दोनों एक से स्वभाव के थे. शेर तो इसलिए नरभक्षी थे क्योंकि उन्हें पशु-जीवन मिला था.पर गद्दाफी को मानव जीवन मिला था. फिर भी दोनों ने अंत एक सा पाया. 
और अंत भी एक सा कहाँ पाया? शेरों की मौत पर तो दुनिया भर से सहानुभूति की लहर आ रही है. गद्दाफी की मौत को धरती को मिले एक सुकून की तरह देखा जा रहा है. आतंक को खेल समझने वाले इससे कोई सबक ले पाते तो एक उपकार और होता धरती पर.      

Thursday, October 20, 2011

बीरबल कहाँ जानता था घटाना

एक बार शहनशाह अकबर किसी से किसी बात पर खुश हो गए. खुश होने पर उन्होंने सामने वाले को मुंह माँगा इनाम देने का ऐलान कर दिया.सामने वाला भी कोई संत-फ़कीर था, बोला- मैं इनाम-इकराम का क्या करूंगा, मुझे तो जहाँपनाह  की ओर से पेट भरने को थोड़ा चावल मिल जाये. अकबर ने कहा इसे सेर-दो सेर चावल देदो. फ़कीर फिर बोल पड़ा- हुज़ूर, इतना बेहिसाब अन्न लेकर क्या करूंगा, मुझे तो गिनती के दाने मिल जाएँ. बादशाह उस समय बीरबल के साथ शतरंज खेलने में मशगूल थे, बोले- मुंह से बोलो तो सही, कितनी गिनती आती है तुम्हें?फकीर ने कहा- ज्यादा लालच नहीं है जहाँपनाह, एक दाना अपनी शतरंज के पहले खाने में रख दीजिये. फिर अगले खाने में दो, उससे अगले में चार ... बस इसी तरह दुगने करते जाइये. हुज़ूर की शतरंज पर कुल जितने दाने आ जायेंगे, ख़ाकसार उतने पर ही गुज़र कर लेगा. 
बादशाह को ऐसी गिनती फ़िज़ूल अपने खेल में दखल जैसी लगी. फिर भी बात ज़बान की थी, गिनकर चावल देने का हुक्म दे दिया. 
पहले खाने में एक, दूसरे में दो, तीसरे में चार, चौथे में आठ, पांचवें में सोलह, छठे में बत्तीस, सातवें में चौंसठ, आठवें में एक सौ अट्ठाईस, नवें में दो सौ छप्पन, दसवें में पांच सौ  बारह,ग्यारहवें में एक हज़ार चौबीस, बारहवें में दो हज़ार अड़तालीस,तेरहवें में चार हज़ार छियानवे, चौदहवें में आठ हज़ार एक सौ बानवे, पन्द्रहवें में सोलह हज़ार तीन सौ चौरासी... 
माफ़ कीजिये, क्या आप मेरी हेल्प करेंगे? बस इसी तरह चौंसठ खानों तक गिन कर सभी खानों के चावलों की संख्या को जोड़ दीजियेगा. इतने चावल चाहिए फ़कीर को. 
हाँ, एक बात और. हमारे प्रधान-मंत्री मनमोहन सिंह जी ने कहा है की जल्दी ही मंहगाई घटने वाली है. इसलिए कुल टोटल में बोनस के चार चावल और घटा  दीजिये. महंगाई इतनी तो घटेगी ही न ?  

Wednesday, October 19, 2011

क्या आपसे भी पूछा है किसी ने ऐसा सवाल?

मुझे एस एम एस के ज़रिये किसी ने एक सवाल पूछा है. वैसे तो इस सवाल की अनदेखी भी की जा सकती है, पर पूछने वाले ने कहा है कि यह इनामी सवाल है. मैं इस सवाल को आपके साथ शेयर कर रहा हूँ. यदि मदद करेंगे तो शायद मेरा काम बन जाये. यदि सवाल पूछने वाला 'फ्रॉड' नहीं हुआ और उसने इनाम भी दे दिया, तो इनाम में आपका शेयर पक्का. सवाल यह है- 
"यदि देश की जनता दुखी हो तो वह सुखी कैसे होगी?" उत्तर के लिए पांच ऑप्शन भी दिए हैं [शायद सवाल पूछने वाला 'कौन बनेगा करोड़पति'नहीं देखता, उसे ये भी पता नहीं है कि ऑप्शन चार होते हैं, पांच नहीं] खैर, उसने ये ऑप्शन दिए हैं- 
[ए] भूखे रहने से 
[बी] चुप रहने से 
[सी] कसरत करने से 
[डी] यात्रा करने से 
[इ] कुछ नहीं करने से 
जहाँ तक मेरा दिमाग जाता है, मुझे तो इनमें से कोई भी ऑप्शन सही नहीं लगता, पर परेशानी यह है कि 'नन ऑफ दीज' का ऑप्शन है ही नहीं. आप ही देखिये- भूखे रहने से अन्न सड़ कर जाता है, जिससे किसान दुखी होता है. चुप रहने से पार्टियों के प्रवक्ता बोलते हैं, जिससे टीवी चैनल दुखी होते हैं. कसरत करने से बीमार हो जाते हैं, जिससे डाक्टर दुखी होते हैं[एलोपैथिक] यात्रा करने से मीडिया दुखी हो जाता है और पूछता है- आप सब जगह अब घूम रहे हैं, आपने देश पहले क्यों नहीं देखा, या फिर आप जनता की समस्याएं पूछने जा रहे हैं, आपको मालूम नहीं हैं? कुछ नहीं करने से वोटर दुखी होते हैं, 'इन्हें संसद में क्या करने भेजें'?और न भेजें तो और भी मुश्किल, ये बाहर क्या करेंगे? 

Tuesday, October 18, 2011

बड़े भाईसाहब की छोटी कहानी [भाग-तीन]

अब तक आपने पढ़ा- उन्होंने चारों तरफ से पैसा उधार लेकर, अपनी सारी जमापूँजी लगा कर किसी तरह फिल्म बना तो ली, पर वह सेंसरबोर्ड में अटक गई. कुछ लोगों की मदद से उसे सेंसरबोर्ड से तो छुटकारा मिल गया, किन्तु उसे सिनेमाघर ने रिलीज़ करने के लिए बड़ी राशि की मांग की. अब कहीं से आसानी से उधार मिलने की गुंजाइश नहीं थी, इसी से फिल्म की रिलीज़ टलती रही. अब आगे- 
अब फिल्म को रिलीज़ करने का काम ही बचा था, अर्थात क्लाइमेक्स, अतः भाईसाहब ने सोचा, कि अब यदि ज़रूरी राशि किसी एक ही व्यक्ति से ली गई तो पूरे प्रोजेक्ट की सफलता का श्रेय उसे ही जायेगा फिर आसानी से इतनी बड़ी राशि किसी से मिल पाना आसान न था, क्योंकि वे अपने सारे संपर्कों से धन पहले ही ले चुके थे.इसलिए ऐसी रिस्क न लेकर उन्होंने थोड़े दिन इंतजार करना बेहतर समझा, कि शायद समय के साथ कोई रास्ता निकल आये.
उधर समय बीत रहा था, इधर परिचित रोज़ पूछ रहे थे कि फिल्म कब रिलीज़ होगी?आखिर उन्होंने फिर बूँद-बूँद से घड़ा भरना शुरू किया. जहाँ से भी हो सकता था, जैसे भी हो सकता था, खर्चों में कंजूसी की हद तक कमी करके, घरवालों की बेहद ज़रूरी अपेक्षाओं की अनदेखी करके और कुछ चालाकी-बेईमानी तक करके एक उल्लेखनीय राशि जोड़ ली. रिटायर हो जाने के कारण वे घर में रहते थे, इसी से आस-पास के कुछ लोग अपने बिल आदि जमा करने के लिए उन्हें दे देते थे. इस अमानत में खयानत करने में भी उन्होंने गुरेज़ नहीं किया.असल में उनके मन में यह विश्वास बैठा हुआ था कि फिल्म रिलीज़ होते ही उसकी आय से वह सभी का पैसा कई गुना करके लौटा देंगे. 
जो सिनेमाघर मालिक उनसे पूरे पैसे एडवांस  मांग रहा था, उसे वे राशि दे बैठे.सिनेमाघर मालिक अनुभवी था, उसने शायद ताड़ लिया कि इस फिल्म को रिलीज़ करने में न उसे कुछ मिलेगा, और न उन्हें. उसने लालच और चालाकी से काम लिया. कहा- एक शो ट्रायल का चला देते हैं, जिससे प्रोजेक्शन का सही एडजेस्टमेंट पता चल जाये. भाईसाहब ख़ुशी से इतने उत्तेजित हो गए कि उन्होंने ट्रायल-शो देखने के लिए फोन कर-कर के अपने मित्रों-शुभचिंतकों और पड़ोसियों को बुला लिया. इस तरह संभावित दर्शकों ने भी मुफ्त में फिल्म देखी.
सिनेमाघर मालिक ने उन्हें रील में कोई तकनीकी कमी बता कर उसे दिल्ली भेजने और कुछ खर्च और करने का सुझाव दे दिया. अब वे दिल्ली जाने तथा वहां होने वाले खर्च के लिए फिर किसी जुगाड़ और लाचारी-भरे इंतजार में हैं. जिन लोगों के फिल्म टिकट लेकर देखने की ज़रा सी भी सम्भावना थी, वे उसे मुफ्त में देख चुके हैं. [शेष आगे कुछ होने पर].     

Monday, October 17, 2011

उनकी अर्थव्यवस्था को 'सन्डे' अलग करता है.

एक फ़्लैट में आठ लोग एक साथ रहते थे. वे सब समान आय वाले,समान उम्र वाले या समान स्वभाव वाले नहीं थे, किन्तु महानगर में अकेले रह कर नौकरी करते थे, इसलिए सबकी सुविधा के लिए एक साथ रहते थे. 
उनमें से एक की आय ५० हज़ार, दो की ३०-३० हज़ार, दो की २५-२५ हज़ार,एक की २० हज़ार और शेष दो की १५-१५ हज़ार थी. 
यदि हम प्रति-व्यक्ति आय की बात करें तो वह भी सभी के मामले में अलग-अलग थी, क्योंकि उनके परिवारों के सदस्यों की संख्या भी अलग-अलग थी, जिन्हें वे अपनी आमदनी में से एक बड़ा भाग बचा कर हर महीने भेजते थे. उनके परिवारों का आर्थिक स्तर,सामाजिक स्तर और रहन-सहन भी अलग-अलग था. 
उनके बीच कॉमन केवल यही एक बात थी कि वे एक ही मकान में एक साथ रहते थे. सप्ताह के छह दिन उनके बीच किसी भी तरह का मतभेद, विवाद या अलगाव नहीं दिखाई देता था क्योंकि वे सुबह ही अपने-अपने काम के लिए निकल जाते थे, और रात को घर लौट कर एक सा बना हुआ खाना 'शेयर' करके आराम से सो जाते थे. ऐसा ही सुबह के नाश्ते के समय होता कि जो भी बना हो, वे उसे एक से चाव से खाकर चले जाते थे. 
केवल सन्डे के दिन स्थिति ज़रा अलग होती. उस दिन सभी की छुट्टी रहती थी. सुबह का नाश्ता वे अपनी-अपनी पसंद से लेते थे. लंच के समय भी -क्या खाया जाय, कहाँ खाया जाय, यह आसानी से तय नहीं हो पाता था, क्योंकि इस पर सब अपनी अलग राय रखते. कोई किफ़ायत से खाना चाहता, कोई बढ़िया खाने की इच्छा रखता. जब वे मनोरंजन के लिए जाते, तब भी वे सभी एकमत नहीं हो पाते. कोई मुफ्त का दिल-बहलाव चाहता तो कोई मनोरंजन पर भी तबीयत से खर्च करना चाहता. जब शॉपिंग की बात होती तब भी सबकी पसंद अलग-अलग बाज़ार या भिन्न -भिन्न दुकानें होती. 
रविवार को उनका व्यवहार देख कर यह अनुमान लगाना भी मुश्किल था कि ये सब छह दिन एक साथ कैसे रहते हैं? उनके फ़्लैट-मालिक को भी यह देख कर हैरत होती कि किराया चुकाने की इच्छा भी उनमें अलग-अलग है. कोई बिना मांगे दे जाता है, किसी से कई बार कहना पड़ता है. 
अमेरिका, जर्मनी, इंग्लैण्ड, फ़्रांस, चीन, जापान, भारत, अरब, सिंगापूर, मंगोलिया, पेरू, लेबनान या टर्की की इकोनोमी के सामाजिक-आर्थिक- राजनैतिक प्रभाव सामान्य दिनों में आसानी से नहीं आंके जा पाते.     

Sunday, October 16, 2011

सब है महिमा राम की, इसमें इन का क्या कसूर है?

सभी को आश्चर्य होता था, कि लोग उन्हें तुलसीदास न कह कर 'नेताजी' क्यों कहते हैं? वैसे उन्होंने या उनकी जानकारी में उनके किसी परिजन ने कभी रामायण पढ़ी नहीं थी, किन्तु शायद कभी किसी पूर्वज ने पढ़ ली होगी, उसी के पुण्य प्रताप से उन्हें रामायण के पात्रों से गहरा लगाव हो गया था. 
वे बताते थे कि जैसे राम को घर से वनवास मिल गया था, वैसे ही उन्हें भी कालेज से निष्कासन  मिल गया था.लोग कहते थे कि जैसे रावण ने सीता पर बुरी नज़र डाली थी, यह तो उनका रोज़ का काम था.अपनी लंका को सोने की बना लेने में जी-जान से जुटे ही थे. केवट से प्रभावित होकर उन्होंने देशी-विदेशी पुराने जहाज़[वे शिप को बड़ी नाव ही मानते थे] खरीदने-बेचने का कारोबार भी कर लिया था.हाल ही में उन्होंने दिल्ली में एक होटल भी खोल लिया था. लोग उनसे पूछते थे- इसमें क्या कन्द-मूल फल परोसेंगे?कुछ दिन बाद होटल पर बोर्ड भी लग गया- शबरी लंच होम. 
वे गर्व से बताते थे-ये वीआइपी इलाका है, सब बड़े-बड़े लोग रहते हैं, सबकी रसोई में ढेर सारा भोजन बनता है, लेकिन सब चिड़ियों की तरह खाते हैं, ज़रा-ज़रा सा.बाक़ी नौकर-चाकरों के काम आता है या फिर फेंका जाता है. 
तो? किसी ने पूछा. 
वे बोले- तो क्या, राजतन्त्र की तरह ही लोकतंत्र में भी जनता अपने राजाओं का जूठा खाना पसंद करेगी. यह तो जनसेवा है, अन्न बचाने की योजना है. 
किसी ने कहा-लेकिन आप जैसा समझ रहे हैं, वैसा है नहीं, राजतन्त्र में तो जनता ने प्रेम से राजा को जूठा खिलाया था, राजा का जूठा खाया नहीं था.
वे खिसिया कर सर खुजाने लगे. बोले- हाँ, तो मैंने कौन सी रामायण पढ़ी है, जब राजा ने जूठा खाया तो जनता को खाने में क्या परेशानी है?      

Saturday, October 15, 2011

अंधे ने रास्ता दिखाया, लंगड़ा पहाड़ की चोटी तक ले गया,ये सब काल्पनिक बातें नहीं हैं.

 मैं ठीक कह रहा हूँ. इस मामले में ऐसा ही हुआ. 
मैं प्राइमरी स्कूल में पढ़ता था. मुझे चित्र बनाने का शौक था.मेरी क्लास में एक लड़की थी, जिसे चित्र बनाने का शौक होना तो दूर, चित्र बनाने से ही सख्त चिढ़ थी.वह अपनी चिढ़ को व्यक्त भी अजीब तरीके से करती थी. पेन  या पेन्सिल उठाती, और उससे बने हुए चित्रों पर आड़ी-तिरछी लकीरें बना कर उसे बिगाड़ देती थी.
मैंने एक बार गुलाब के फूल के भीतर पंडित जवाहर लाल नेहरु का चित्र बनाया. मैं उसे बाल-दिवस पर लगने वाली प्रदर्शनी में रखना चाहता था. उस लड़की ने मेरी अनुपस्थिति में पेन्सिल से नेहरुजी के चेहरे पर छोटी सी दाढ़ी बनादी. साथ ही आँखों पर भी गोल-गोल चश्मा बना दिया. 
मैंने उस चित्र को उठा कर रख दिया, और प्रदर्शनी के लिए दूसरा चित्र बनाया, क्योंकि मैं अपने चित्रों  में कभी भी रबर का प्रयोग नहीं करता था.
संयोग से अगले साल हमारे स्कूल में मुख्य-अतिथि के रूप में तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ.जाकिर हुसैन आये. जब आने से पहले मैंने अखबार में उनकी फोटो देखी तो मेरे दिमाग में वही नेहरूजी वाली तस्वीर कौंध गई, जिसे लड़की ने बिगाड़ दिया था. मैंने सोचा कि यदि उस तस्वीर में चश्मे का थोड़ा आकार बदल कर उसे काला चश्मा बनाया जाये तो एक नया सफल प्रयोग हो सकता है.
मेरी बनाई हुई डॉ. जाकिर हुसैन की तस्वीर प्रदर्शनी में लगी, और उसे देख कर डॉ. जाकिर हुसैन ने मुझे गोद में उठाया. 
अब मैं मजबूर होकर इस उपलब्धि का श्रेय उस शरारती लड़की को ही देता हूँ. वह नन्ही उत्पातिनी अब कनाडा में रह कर अपना एक होटल चलाती है.पिछले दिनों नायग्रा फाल्स से कनाडा की रंगीन इमारतों को देखते हुए यह ख्याल मुझे आया था कि इतने सुन्दर शहर में सुन्दरता की दुश्मन वो लड़की कैसे क्या कर रही होगी?       

Friday, October 14, 2011

मुर्गी को पांच साल बाद पता चले कि वह जिन अण्डों पर बैठी है वह पत्थर के हैं

मुर्गी में भी अन्य सभी की तरह मातृत्व का अहसास होता है. जब वे अपने अंडे सेती है तो उसकी कल्पना में उसके आने वाले दिनों और बच्चों की कल्पना ही होती है. यह बात अलग है कि किसे कितनी और कैसी जिंदगी मिले. 
एक जौहरी  ने अपने मालदार ग्राहकों को कुछ करोड़ रूपये के हीरे जवाहरात बेचते समय चालाकी खेली. उसने रुपये तो असली रख लिए पर जवाहरात नकली दे दिए. खालिस पत्थर के. 
ग्राहक के साथ तत्काल कोई धोखाधड़ी नहीं हुई, क्योंकि अर्थशास्त्र की भाषा में उसे पूरी ग्राहक-संतुष्टि मिलती रही. जब ग्राहक को यह पता ही नहीं चला कि जिन वस्तुओं को वह तिजोरी में रख कर आराम से सो रहा है, वह करोड़ों की नहीं, बल्कि कौड़ियों की हैं, तो सौदे से असंतुष्ट होने का सवाल ही नहीं है. असंतुष्टि अचानक तब हुई जब ग्राहक को माल नकली होने का पता चला. 
तत्काल रिपोर्ट, क़ानूनी-कार्यवाही आदि की प्रक्रिया शुरू हो गई. पुलिस और कोर्ट ग्राहक को उसके पैसे वापस दिलवा देते हैं, या खुद व्यापारी ही अपनी साख बचाने के लिए चुपचाप पैसे लौटा देता है, इन दोनों ही परिस्थितियों में क्या व्यापारी को " ग्राहक के पांच साल तक करोडपति होने के सुखद अहसास "का मूल्य या मुआवजा नहीं मिलना चाहिए? शायद नहीं, क्योंकि करोड़ों के हीरे पास में होने का झूठा अहसास ग्राहक के साथ था, और वास्तव में करोड़ों रूपये होने की  खरी हकीकत व्यापारी के साथ. 
ग्राहक का मुआवजा मूल्य से कहीं ज्यादा बनता है. सोचिये, अगर सौदे में 'बिका हुआ माल वापस नहीं होगा' की शर्त होती तो?  

Thursday, October 13, 2011

बचपन का बीमा

यदि आज मार्क ट्वेन, महादेवी वर्मा या सुभद्रा कुमारी चौहान जीवित होते तो वे मेरी बात से अवश्य सहमत होते. 
बचपन चाहिए. 
जीवन में बचपन का अस्तित्व ज़रूर बचाए रखा जाना चाहिए. 
बल्कि मुझे तो कभी-कभी यही लगता है कि वास्तव में बचपन ही जीवन है. उसके बाद तो जीवन मिल जाने की विवशता है. जिस तरह हम रोज़ नहा-धोकर साफ़ कपड़े पहनते हैं,बस यही समय हमारा बचपन-काल है. इसके बाद का समय तो ऐसा ही है जैसे हम दूसरे दिन उन्हीं कपड़ों में बिना नहाए घूम रहे हों. तीसरे, चौथे और पांचवे दिन भी हम बिना कपड़े बदले, मैले ही घूमते रहें,तो यही हमारा आगे का लम्बा जीवन है. 
मैं जानता हूँ, कि मैंने जो कह दिया, वह घोर अव्यावहारिक, काल्पनिक और बेतुका है. लेकिन फिर भी मैं यही कहता हूँ, कि व्यक्ति के जीवन का नहीं, बचपन का बीमा होना चाहिए. इसे खोया नहीं जा सकता, और खो जाने पर मुआवजा बनता है. 
बात समाप्त करने से पहले एक बात स्पष्ट कर दूं. यहाँ बचपन से मेरा आशय उम्र के आठ-दस वर्ष हरगिज़ नहीं है. 
मैं यह भी मानता हूँ कि किसी-किसी के पास अस्सी साल की उम्र तक बचपन ठहरता है. मैं उन्हीं कोमल संवेदनाओं को बचपन कह रहा हूँ, जो कुछ लोगों में ता-उम्र रहती हैं. वे कभी वयस्क नहीं होते, बूढ़े तो बिलकुल भी नहीं होते. हाँ पुराने, कमज़ोर, अशक्त ज़रूर हो सकते हैं. क्योंकि उम्र अपनी कीमत तो मांगती ही है. 
अब बीमा कम्पनी इस बीमे के नियम, मानदंड और आयु-सीमा कैसे तय करे, यह वही जाने.बीमा कम्पनियां भी तो कुछ प्रयोग करें, कुछ जोखिम उठायें, कुछ नवोन्मेष की बात सोचें.
कुछ विकसित देशों में तो मुझे लगता है कि 'बुढ़ापे' का कंसेप्ट है ही नहीं.मैं कल्पना ही नहीं कर पाता कि चीन, जापान,कोरिया में तन से और अमेरिका, जर्मनी, फ़्रांस में मन से लोग बूढ़े कैसे होते होंगे?       

Wednesday, October 12, 2011

तुझे फिर मिलेगा कोई पंछी आके , उसे फिर मिलेगी कोई डाल जाके

सिसकती थी मासूम पेड़ों की फुनगी 
झमेलों में उसका जहाँ खो गया था 
जो रहता था डाली पे नन्हा सा पंछी 
न जाने सुबह से कहाँ खो गया था 
गले मिलके बादल हटा सामने से 
तभी झाँक के नीचे सूरज ने देखा 
कहा उसने धीरे से अपनी किरण से 
ज़रा देखो जाके, ये क्या माज़रा है 
चली आई धरती पे सूरज की रानी 
फुनगी के सर पे ज़रा हाथ फेरा 
पूछा, कि डाली से उड़ कर गया जो 
बता तो सही, कौन लगता था तेरा 
जो आँखों में था डबडबाता सा आंसू 
उसे पोंछ कर बोली पेड़ों की फुनगी 
वो मेरा नहीं था कभी कुछ भी, लेकिन 
था डाली पे रहता सदा चहचहाता 
कभी नाचता था, कभी खुल के गाता
ये जिंदा है मौसम वही था बताता  
वो जबसे गया है, ये सूना है जंगल 
कहीं हो गया हो न उसका अमंगल 
कहा तब किरण ने- यूं रोते नहीं हैं 
चले जाते हैं जो , वो खोते नहीं हैं 
तुझे फिर मिलेगा कोई पंछी आके 
उसे फिर मिलेगी कोई डाल जाके.

Tuesday, October 11, 2011

फरिश्तो, उसे तुम कहाँ ले गए हो ?

तरन्नुम के जंगल में किसने बिछा दीं 
ये पीले धुंए की लकीरें आवारा 
ये शेरों में यूं आग किसने लगाई 
बहर,काफ़िये, मतले झुलसे पड़े हैं 
वो कल तक तो था, आज जाने कहाँ है? 
सभी सुन रहे थे वो  कल गा रहा था 
वो लहरों के जानिब मचल गा रहा था 
नशे में नहीं था, संभल गा रहा था 
वो हव्वा से आदम का छल गा रहा था 
वो झूठा कहाँ था, असल गा रहा था 
वो खेतों से उनकी फसल गा रहा था 
वो आँखों को करके तरल गा रहा था 
नहीं डगमगाती, अटल गा रहा था 
नहीं अपने घर में, निकल गा रहा था 
वो पेचीदगी से सरल गा रहा था 
वो बीती उमर के दो पल गा रहा था 
पिलाने को अमृत गरल गा रहा था 
वो झुग्गी की धुन में महल गा रहा था 
वो ग़ालिब की ताज़ा नसल गा रहा था 
वो बुझते दिए से भी 'जल' गा रहा था 
वो गहरे समंदर के तल गा रहा था 
वो दलदल में खिलते कमल गा रहा था 
वो प्यासों की बस्ती में 'नल' गा रहा था 
गिरती बरफ को वो 'गल' गा रहा था 
पीड़ा को कहकर  'पिघल' गा रहा था 
समस्या नहीं वो तो 'हल' गा रहा था
जो उड़ कर गया था सवेरे-सवेरे 
हुई शाम बोलो, वो पंछी कहाँ है 
फरिश्तो, उसे तुम कहाँ ले गए हो?
वो जगजीत कर के ग़ज़ल गा रहा था. 

Monday, October 10, 2011

महान कहलवाने की जिद और "महान" काम

पिछले दिनों अन्ना हजारे के सन्दर्भ में कुछ नेताओं ने संसद की सर्वोच्चता का हवाला देते हुए अन्ना को कुछ करने के लिए संसद में आने का न्यौता दिया, चाहे यह न्यौता चुनौती के रूप में ही था. इस पर अरविन्द ने यह प्रतिक्रिया भी दी कि आम आदमी भी संसद से ऊपर है. बात एक हद तक ठीक भी है, क्योंकि संसद में घुसने के लिए आम आदमी का वोट काम आता है. संसद की सर्वोच्चता व गरिमा जिन सांसदों पर निर्भर है, क्या वे भी उतने ही गरिमामय हैं? 
१९८४ में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद दिल्ली में दंगों का ज़बरदस्त माहौल बना था. तुरंत निर्णय लेने वाला भी कोई व्यक्ति नहीं था. जो वरिष्ठ नेता अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर कुछ फैसले लेने भी लगे, उन्हें यह कह कर नकारा जाने लगा कि ये प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं.आनन-फानन में राजीव गाँधी को प्रधानमंत्री बनाने की घोषणा हुई.इंदिरा गाँधी का अंतिम संस्कार हुआ तब वहां अराजकता का माहौल था. पूरी दुनिया से राष्ट्राध्यक्ष आ रहे थे, पर उनके सारे इंतजाम उनके देशों के दूतावासों पर ही निर्भर थे. जहाँ अंतिम संस्कार होना था, वहां कुछ कुर्सियां भी लगाईं गई थीं, जिनमे दूतावासों ने अपने-अपने नेताओं के लिए स्थान आरक्षित कर लिए थे. इंग्लैण्ड से तत्कालीन प्रधानमंत्री थैचर और महारानी की प्रतिनिधि के रूप में एक अन्य महिला आई थीं. जब वे वहां पहुँचीं, तो उनकी कुर्सियों पर हमारे कुछ सांसद कब्ज़ा जमा चुके थे. उनके आने के बाद भी किसी ने कुर्सी खाली करने की ज़हमत नहीं उठाई. वे चेहरे पर अप्रिय भाव लिए इधर-उधर देखती हुई अंततः खड़ी ही रहीं.
इतना ही नहीं, कुछ सांसदों ने तो उन पर ठीक उसी अंदाज़ में फिकरे भी कसे जैसे दिल्ली की बसों में शोहदे महिलाओं पर आये दिन कसते रहते हैं. 
तो अन्ना, रामदेव, या अन्य यदि देश सेवा करना चाहते हैं, या फिर समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं, तो पहले "माननीय सांसद" बन कर बताएं, खाली आम आदमी होने से कुछ नहीं होता.    

सारे दरबारी मालामाल हो गए [कहानी-भाग २]

राजा ने कहना शुरू किया- मूर्खता का सम्मान करने की बात मैंने आप लोगों से इसलिए कही थी, कि मैं यह  चाहता था- आप लोग मूर्खता की पहचान करना सीखें.क्योंकि यदि व्यक्ति की किसी कमी को ठीक से पहचान लिया जाये तभी उसे दूर किया जा सकता है. 
राजा बोला- आपने चरवाहे को मूर्ख समझ लिया. हम पशुओं को चराते हैं, ताकि फिर उनका दूध निकाल सकें.चरवाहे ने सोचा, कि वह पशुओं को चरा कर,उनका दूध निकाल कर, अपना पेट भरेगा, क्यों न वह सीधे चारे से ही अपना पेट भर ले. यह मूर्खता नहीं थी, बल्कि चालाकी थी. पशुओं के प्रति लापरवाही थी. 
फल वाले को भी आपने मूर्ख समझ लिया. जो व्यक्ति अपने सारे फल आपको मुफ्त में देने को तैयार हो गया, वह ज़रुरत-मंद नहीं हो सकता. उसे दानी की जगह आपने मूर्ख मान लिया. 
दरबारी सर झुका कर बैठे रहे. राजा ने कहा- फिर भी मैं अपने वचन से हट नहीं रहा हूँ, आज से आप सबका वेतन  दोगुना. 
दरबारी प्रसन्न तो हुए, पर यह जान कर उनकी प्रसन्नता काफूर हो गई कि राजा मूर्खता के सम्मान का अपना वादा पूरा कर रहा है. 

Sunday, October 9, 2011

इनाम, राजा और दरबारी, एक साथ नाव में

एक बार एक राजा ने अपने दरबारियों के बीच एलान किया कि उसके राज्य में मूर्ख से मूर्ख आदमी का भी पूरा सम्मान हो. दरबारियों के पास एक ही विकल्प था- जो आज्ञा. 
अब राजा दिन-रात कभी भी वेश बदल कर घूमता, और देखता कि उसकी आज्ञा का कितना पालन हो रहा है. 
एक दोपहर राजा ने देखा कि उसके चार दरबारी एक चरवाहे को भैंस पर बैठा कर, उसके सामने बिगुल बजाते हुए आ रहे हैं.वे आपस में बात कर रहे थे कि यह मूर्ख अपने पशुओं को पेड़ से बाँध कर खुद उनका चारा खा रहा था.  राजा एक फल बेचने वाले के रूप में वेश बदले हुए था. जब वह चरवाहे के काफिले के पास से गुज़रा तो तो उसने दरबारियों से गुज़ारिश की- सुबह से मेरा एक भी फल नहीं बिका है, मेरे बच्चे भूखे रह जायेंगे, तुम मेरे सारे फल लेलो, चाहे मुझे इनका एक भी पैसा मत देना. एक पल को दरबारी चकराए, फिर यह भांप कर, कि यह फल वाला तो चरवाहे से भी ज्यादा मूर्ख है, उन्होंने चरवाहे को तो छोड़ दिया, और फल वाले, जो कि राजा स्वयं था, को तिलक करके उसके सामने बिगुल बजाते हुए उसका जुलूस लेकर जाने लगे. 
वे इस तरह कुछ ही दूर चले होंगे, कि सामने से राजा के कुछ और दरबारी आते दिखाई दिए. संयोग से उन्होंने राजा को पहचान लिया. पहचानते ही उन्होंने तुरंत राजा को सलाम किया और साथ लाई हुई शाही-बग्घी में राजा को बैठा लिया.अब वह राजा  अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ महल की ओर चल पड़ा.
अगली सुबह जब राजा दरबार में आया, तो सभी दरबारी सांस रोके चुपचाप बैठे हुए थे कि देखें,राजा किसको दंड देता है और किसको इनाम. [कहानी का अगला भाग बाद में]  

Saturday, October 8, 2011

बच्चे का सवाल बचकाना नहीं था

पिछले दिनों धूम-धाम से दशहरा मनाया गया. शहरों में उत्सव-धर्मिता कुछ तेज़ी से बढ़ती जा रही है.शायद इसका एक कारण यह भी है, कि रोजाना की भाग-दौड़ में सब इतने व्यस्त हो जाते हैं कि त्यौहारों को जोश-जुनून से मनाने का मन करने लगता है.
इसी तरह के एक छोटे से रावण-दहन कार्यक्रम में एक ओर रावण का पुतला तैयार था, दूसरी ओर श्रृंगार किये राम खड़े थे.राम हाथ में तीर-कमान लिए हुए  थे.
एक छोटे बच्चे के साथ आई माँ बच्चे को सब समझाती जा रही थी, कि अब देखना कैसे ये रावण को मारेंगे.बच्चा कौतुहल  से देख रहा था. तभी बच्चे ने स्वाभाविक भोलेपन से पूछा- ये इनको मारेंगे कि ये इनको मारेंगे? कह कर बच्चे ने दोनों ही ओर अंगुली का इशारा किया. 
तभी एक बुज़ुर्ग का थका सा स्वर सुनाई दिया- बेटा, ये कन्फ्यूज़न तो दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है. 
तभी रावण के पुतले से लपटों के साथ तेज़ आवाजें आने लगीं और बच्चा ताली बजाता हुआ अपना सवाल भूल बैठा. शायद आस-पास खड़े 'बड़े' सवाल को जल्दी नहीं भूले होंगे.    

Friday, October 7, 2011

हा हा हा देखो पति और पत्नी एक ही कार में जा रहे हैं

पत्नी आकर पति से बोली- सुनो जी, तीन दिन से आटा ख़त्म है, आज भी खिचड़ी ही खानी पड़ेगी. 
पति ने कहा, खिचड़ी को मार गोली, वो देख, उनकी एक कार खराब हो गई, अब पति-पत्नी दोनों एक ही कार में जा रहे हैं. 
जब विकास-शील देश अमेरिका की मंदी पर बात करते हैं, तो कुछ ऐसा ही नज़ारा होता है. हम अपनी गरीबी सहने के तो बरसों से आदी हैं, पर दूसरों की अमीरी सहने के अभ्यस्त अब तक नहीं हो पाए. यदि कोई अमेरिकी कंपनी बंद होती है तो भारतीय मीडिया उसे इस अंदाज़ में पेश करता है, मानो हमारी लॉटरी निकल आई हो. यूरोप,जापान या अमेरिका के कष्ट हमारे अपने ज़ख्मों पर मरहम लगाते हैं. 
जबकि मज़ेदार बात यह है कि हम हर छोटी से छोटी बात में इन्हीं की नक़ल करते हैं. 
"ग्लोबलाइज़ेशन" अब एक सर्वव्यापी प्रक्रिया है. एक बर्तन में बहुत सारा पानी है, दूसरे में थोड़ा कम, और तीसरे में बहुत कम.अब हम तीनों के पैंदे एक नली से जोड़ देते हैं. ज्यादा पानी वाले बर्तन से कुछ पानी रिस कर उस बर्तन में जाना शुरू हो जायेगा, जिसमें बहुत कम है. ऐसी स्थिति में ज्यादा भरे बर्तन का आभार मानने की जगह यदि उसका उपहास किया जाये, तो कम भरा बर्तन अपना नुक्सान तो करेगा ही, वैश्वीकरण की प्रक्रिया को भी रोक देगा. 
हम सम्पन्न होने के सपने भी देखते जाएँ और सम्पन्नता से ईर्ष्या भी रखें, तो हमारा यह दोगलापन कोई राष्ट्रीय चरित्र नहीं गढ़ सकता. मीडिया को भी 'तथाकथित' मंदी का सटीक आर्थिक विश्लेषण करके कलम चलानी चाहिए. हम यह भी नहीं भूल सकते कि हमारी आर्थिक उन्नति सम्पन्न देशों से स्वस्थ प्रतिस्पर्धा करके ही होगी, उनके प्रति नकारात्मक द्रष्टिकोण रख कर नहीं.  

Thursday, October 6, 2011

वो कितना अच्छा, ये कितनी अच्छी,सब कितना बेहतरीन

आज सुबह अखबार में पढ़ा, कि सब को कभी-कभी "सकारात्मकता दिवस या सकारात्मकता सप्ताह" मनाना चाहिए. आज दशहरा है, मैंने सोचा सकारात्मकता दिवस मनाने का इससे बेहतर दिन और कौन सा होगा? आज ही के दिन तो नकारात्मकता पर तीर चलाने का कार्य सकारात्मकता ने किया था. 
घर में दूध सप्लाई करने वाले लड़के और कुकिंग करने वाली लेडी को मैंने आज 'सकारात्मक चिंतन' का टारगेट चुना. मेरे कुछ काम में व्यस्त होने पर वह लेडी दूध लेकर किचन में रखती है, और उसे गर्म भी करती है. जब दूध कुछ कम मात्रा में होता है,मैं दूध वाले को इसके लिए ज़िम्मेदार मानता हूँ. जब दूध प्योर नहीं लगता या ज्यादा पतला होता है, तब भी मैं उसे ज़िम्मेदार मानता हूँ. मैंने सोचा, आज मैं कम दूध के लिए उसके कंटेनर का दोष मानूंगा और दूध प्योर न होने का दोष भी गाय या भैंस को ही दूंगा. मैं यह भी नहीं सोचूंगा कि लेडी ने उसे गर्म करते समय कम या पतला किया होगा. 
लेकिन अब मैं सोच रहा हूँ, कि मैंने केवल व्यक्तियों के प्रति ही सकारात्मकता दिखाई, पशुओं और निर्जीव चीज़ों के प्रति तो मैं  नकारात्मक हो ही गया न? लेकिन यदि इन दोनों के प्रति भी सकारात्मक रहना है तो खुद के प्रति नकारात्मक होना होगा, क्योंकि दूध शुद्ध और पूरा न होने की स्थिति में सहनशीलता किसके कंधे पर बंदूख रख कर आएगी, अपने ही न ?सचमुच मुश्किल है पोजिटिव थिंकिंग !  

Wednesday, October 5, 2011

तोकेलाऊ और तुवालू के कष्ट हमारे आने वाले दिनों का ट्रेलर हैं

छोटे से एलिस आइलैंड तुवालू का हौसला हमसे बहुत बड़ा है. जिस समय फुनाफुती में सागर का पानी बूँद-बूँद कर लोगों के घरों में भर रहा था, उस समय हमारी आँखों में चर्बी के नीचे  दब कर पानी  सूख रहा था. हमारे पास वक्त भी नहीं था कि हम चिंतित होने में उसे जाया करें.हमारे पास दूसरे काम थे.पश्चिम बंगाल से लेडीज़-संगीत का न्योता आया हुआ था. हमें फैसला करना था कि वहां शीला जी जाएँ या अम्बिका जी. आलाकमान को मालूम था, कि यदि वहां से कोई रिटर्न-गिफ्ट मिला तो शीला जी खुद रख लेंगी, लिहाज़ा अम्बिका जी पर भरोसा किया गया. 
न्यूज़ीलैंड, आस्ट्रेलिया और सामोआ इन द्वीपों के वाशिंदों को पीने का पानी, दवाएं और खाना गिरा रहे हैं. 
   "आसमान तू हमेशा रहना" 
   धरती पर तो इंसान बसते हैं 
   उससे कैसे कहा जाये- कि हमेशा रहना
   उसके अच्छे-बुरे दिनों के साथी,
   हर खुले हलक में तू ही डालना 
   पानी पानी पानी पानी पानी पानी पानी पानी पानी पानी पानी पानी पानी पानी पानी पानी पानी पानी पानी पानी 
   उसके आखिरी समय में...!  

Tuesday, October 4, 2011

झूठ...झूठ ...आप तो दूसरी किताब पढ़ रहे थे.

बोर्नविटा बच्चों ने एक दिन एक संत-फ़कीर को घेर लिया. उनसे कहानी सुनाने की जिद करने लगे. कोई चारा न देख संतजी कहानी सुनाने को तैयार हो गए. वे कुछ बोलते, इससे पहले ही एक बच्चे ने पूछा, आप कहानी कैसे सुनाते हैं?वे मुस्करा कर बोले- बेटा, हम तो किताबें पढ़ते रहते हैं, उन्ही में से कुछ सुना देते हैं. 
कहानी शुरू हुई- एक राजा था.एक दिन उसके कान में दर्द होने लगा. राज-वैद्य को बुलाया गया. वैद्य जी ने जांच-पड़ताल के बाद कहा- महाराज , आपके कान अपनी तारीफ सुनते-सुनते पक गए हैं,जब तक इनमें थोड़ा निंदा रस नहीं जायेगा, ये ठीक नहीं होंगे. 
राजा आग-बबूला हो गया. बोला- क्या बकते हो? भला किसकी हिम्मत है जो हमारी निंदा करे. हम अपनी बुराई सुनने से पहले अपने कानों को कटवाना पसंद करेंगे. ऐसे कान किस काम के, जो हमारी तारीफ न सुन सकें? 
जो आज्ञा, कह कर राज-वैद्य ने राजा के कान काट दिए.
अब राजा जब दरबार में आता तो उसे देखकर दरबारियों को हंसी आती. पर वे उसके गुस्से से डरते भी थे. बड़ी मुसीबत, कि दरबार में कैसे बैठें? आखिर महामंत्री ने रास्ता सुझाया. सभी से कहा कि वे रोज़ फूलों की माला लेकर आया करें. ढेर सारी मालाओं से राजा के कान ढक जाते, फिर किसी को हंसी नहीं आती. 
कुछ दिन बाद राजा की नाक में खुजली होने लगी. राज-वैद्य को तलब किया गया. वैद्य जी ने कहा-महाराज, फूलों की खुशबू से आपकी नाक पकने लगी है, इसमें काँटों का रस...राजा बोला- काट डाल इसे, दुष्ट वैद्य, हम फूलों के बिना रहने की कल्पना भी नहीं कर सकते...
कहानी चल ही रही थी कि एक बच्चा चिल्लाने लगा- झूठ, झूठ, आपतो हमें  दूसरी कहानी सुना रहे हैं, आपतो कल "कांग्रेस का इतिहास" पढ़ रहे थे. 
   

'स्मार्ट इंडियन ' के ग्लोबलाइज़ेशन के आह्वान पर...प्यास के प्रेम में पड़कर आवारा पानी और गैंगस्टर हवा

रोज़ मरता है पानी, कभी आँखों में, कभी खून में
 नहीं मरती बेरहम प्यास
 उगती है फिर-फिर अवांछित घास की तरह
 इस प्यास के प्रेम में पड़कर कभी
समुद्र को पी जाएगी ज़मीन 
चिल्ड शैंपेन के सिप की तरह 
यदि नहीं समझे उसने धरती के दुःख 
और न समझा पाया वो,
अपने दुःख धरती को.
पिसते रहेंगे वे लोग, जो दोनों के दुःख समझते हैं 
अमेरिकी तटों से जापानी शिखरों तक 
बरास्ता चीन और यूरोप के कुछ दमकते नगर 
महँगी पड़ेगी चाँद-कलाओं को 
हवाओं की दरिंदगी और पानियों  की आवारगी
इससे पहले कि सागर ज्वालामुखी बन 
लावा उगलें, 
इससे पहले कि पर्वत 
शर्म से पिघल कर बह जाएँ 
इससे पहले कि रोने लगे 
कतरा-कतरा इतिहास 
भविष्य से खेलने वालों के 
काले सपनों को पी जायेगी ज़मीन 
चिल्ड शैम्पेन के सिप की तरह.  

Monday, October 3, 2011

नौकरी का है क्या भरोसा, आज मिले कल छूटे-"ट्रांसपेरेंट एडमिनिस्ट्रेशन"

मेरे एक परिचित ने कल नौकरी छोड़ दी. घटना के कारणों पर कुछ दिन बाद जायेंगे, जब वे सिद्ध हो जाएँ. 
जब किसी को कोई काम दिया जाता है तो उसे उस काम के बारे में पूरी जानकारी दी जाती है. एक बार प्रशासन ने निश्चय किया कि किसी भी नेता की सुरक्षा में जिन सुरक्षा-कर्मियों को लगाया जाये, उन्हें उस नेता के बारे में पूरी जानकारी दी जाये, ताकि सुरक्षा-कर्मियों का आत्म-विश्वास भी बढ़े और प्रशासन में पारदर्शिता आये. 
सुरक्षा-कर्मियों को एक ट्रेनिंग में बुलाकर उन नेताओं के सारे कार्य-कलाप अच्छी तरह समझाए गए, जिनकी सुरक्षा में उन्हें तैनात किया जाना था. 
अगली सुबह, फोन पर सारे नेता बार-बार सुरक्षा-कर्मियों को जल्दी भेजने का आग्रह कर रहे थे, पर प्रशासन विभाग परेशान था, क्योंकि सारे सुरक्षा-गार्ड नौकरी छोड़ कर जा चुके थे.
कई बार नियोजक को कर्मचारी पर विश्वास नहीं होता. तब भी नौकरी छूट जाती है- परदे पर फिल्म चल रही थी. एक सुन्दर बगीचे में हीरोइन खड़ी थी, हीरो गा रहा था- तुम कमसिन हो, नादाँ हो, नाज़ुक हो, भोली हो, सोचता हूँ मैं, कि तुम्हें प्यार ना करूँ...तभी दर्शक-दीर्घा से हीरोइन को सलाह देती हुई एक आवाज़ आई- चलो, अपना साइनिंग अमाउंट वापस ले जाओ, छुट्टी!

"बोर्नविटा ब्वायज़"

समय के साथ दुनिया एडवांस्ड हो रही थी. ईश्वर ने भी तय किया कि बच्चे को धरती पर जन्म देने से पहले यह बता दिया जाये, कि वह कहाँ, किस घर में जन्म ले रहा है. एक छोटे से परदे पर उसे उस घर की पूर्व झलक दिखाने की व्यवस्था भी कर दी गई. साथ ही यह सुविधा भी दी गई कि यदि परदे पर अपने संभावित घर को देख कर बच्चा वहां जन्म न लेना चाहे तो उसे इसका भी अवसर दिया जाये. 
सिलसिला शुरू हो गया. पहले बच्चे ने देखा कि उसका होने वाला पिता तिजोरी में सोना-चांदी छिपा रहा है. बच्चा मायूस हो गया, बोला- इस आदमी को तो धन के लालच में कोई मार देगा. मुझे इस के यहाँ जन्म नहीं लेना. 
दूसरे बच्चे ने देखा कि उसका होने वाला पिता सेना में अफसर है.वह बोला- सैनिक तो युद्ध में कभी भी मारा जा सकता है, शहीद का पुत्र कहलाना गर्व की बात है, फिर भी मैं अनाथ होकर नहीं जीना चाहता. 
तीसरे बच्चे ने देखा कि उसके होने वाले पिता ने नई कार खरीदी है. वह एक बार तो खुश हो गया, पर फिर तुरंत बोला- पेट्रोल के दाम इतने हैं कि इनके पास तो मुझे पढ़ाने तक के पैसे नहीं बचेंगे, जन्म लेकर क्या करूंगा. 
यह सब सुन कर ईश्वर के मन में चिंता जागी. वह सोच में ही था, कि चौथे बच्चे को उसका होने वाला घर दिखाया गया. उसने देखा कि उसका पिता कोई कातिल है, और अभी-अभी मर्डर करके ही घर लौटा है.  
बच्चे ने उल्लास से कहा- मैं इसी घर में पैदा होना चाहता हूँ. 
ईश्वर अचंभित हुआ. उसने बच्चे से पूछा- क्या तुम्हें इस बात का बिलकुल डर नहीं लगता कि तुम्हारे पिता को एक दिन फांसी हो जाएगी?
बच्चे ने कहा- फांसी से पहले मुकद्दमा चलेगा, उसका फैसला होने  तक मेरे पिता दीर्घायु होंगे, उनकी हिफाज़त खुद क़ानून करेगा. और यदि फांसी की सजा सुनाई भी गई, तो उस पर अमल होने तक मेरी जिंदगी आराम से पूरी हो जाएगी.    

Sunday, October 2, 2011

रहिमन देख बड़ेन को,लघु न दीजिये डार

ये पंक्तियाँ किसकी हैं ? कोई भी कह देगा - निस्संदेह रहीम की. लेकिन मैं कुछ और सोच रहा हूँ. मुझे लगता है कि कोई भी पंक्ति उसकी मानी जानी चाहिए, जो उस पर अमल करता हो, उसकी नहीं जिसने वो लिखी हो. 
मुझे ये पंक्ति श्रीमती इंदिरा गाँधी की लगती है. 
एक बार श्रीमती गाँधी को एक ऐसे समारोह में जाना था, जिसमें राष्ट्रपति को भी शिरकत करनी थी. डॉ.फखरुद्दीन अली अहमद उस समय भारत के राष्ट्रपति थे. श्रीमती गाँधी के घर से समारोह-स्थल की दूरी लगभग दस मिनट की थी. इंदिराजी के साथ बच्चों[परिवार के] को भी जाना था. बच्चे डायनिंग टेबल पर नाश्ता कर रहे थे. पुत्र को इत्मीनान से टोस्ट पर मक्खन लगाते देख श्रीमती गाँधी ने कहा- शिष्टाचार के नाते हमें प्रेसिडेंट के वहां पहुँचने से पहले पहुंचना चाहिए, ताकि हम उनकी अगवानी कर सकें. उनकी बात का यह असर हुआ कि पुत्र ने एक और टोस्ट अपनी प्लेट में रख लिया, और मक्खन की प्लेट नज़दीक खिसकाली ताकि बाद में उस पर भी मक्खन लगाया जा सके. 
श्रीमती गाँधी ने दोबारा डायनिंग टेबल पर आकर कुछ कहने से बेहतर यह समझा कि वे राष्ट्रपति भवन को फोन से ही कुछ कहें. उन्होंने कहा- राष्ट्रपति के काफिले को कुछ देर रोका जाये. 
वे दूर-द्रष्टा थीं, अतीत होते राष्ट्रपति के लिए भविष्य के प्रधान मंत्री को गुस्सा नहीं कर सकती थीं. उन्हें दोष भी क्यों दिया जाये ? रहीम ने यही तो कहा था.  

Saturday, October 1, 2011

अक्ल का जीरो डिग्री प्रोजेक्शन

हमारे कुछ बड़े नेता इशारा कर रहे हैं कि सरकार सड़ गई है इसलिए अब दोबारा चुनाव हो. इससे सब ठीक हो जायेगा. फिर से नए बन कर सब आ जायेंगे, फिर से 'नव-निर्वाचित' सरकार की खुशबू फ़ैल जाएगी.
बचपन में जब हम लोग स्कूल में पढ़ते थे, हमारे शिक्षक साफ-सफाई पर काफी ध्यान देते थे. कुछ बच्चे बार-बार कहने के बाद भी गंदे आ जाते थे. कुछ खेलने-कूदने में गंदे हो जाते थे. मतलब यह, कि गंदगी कुछ लोगों की आदत ही थी. 
हमारे शिक्षक समझदार थे. वे स्कूल का सत्र कैंसिल करके दोबारा सबके एडमीशन नहीं करते थे.बस, गंदे बच्चों को कह देते थे कि जाकर नहा कर आओ. बाक़ी सब को पढ़ाते रहते थे.
हम संसद भवन या राष्ट्रपति भवन के आस-पास "तिहाड़" जैसे कुछ और स्विमिंग-पूल क्यों नहीं बना लेते, जिनमें केवल "मैले" महात्मा नहा कर आ जाएँ. कम से कम बाकी देश तो चलता रहे.    

सर्विसिंग

आजकल सड़क पर इतना ट्रेफिक होता है कि आप कितने भी युवा हों, तेज़ चल ही नहीं सकते.आपकी गाड़ी कितनी भी नई हो, कितने भी शानदार मेक की हो,कितनी भी पावरफुल हो, आपको सड़क पर घिसट-घिसट  कर ही चलना होगा. मंथर-गति से चलने के अपने नुकसान हैं, तो कुछ फायदे भी हैं.सबसे बड़ा फायदा तो यही है कि सड़क पर क्या हो रहा है, यह आप भली-भाँति देख पाते हैं.यह बात अलग है कि कुछ नहीं होता. क्योंकि होने के लिए तो नगर-परिषद्, ठेकेदारों, इंजीनियरों, नेताओं आदि का ज़मीर जागना ज़रूरी होता है. 
खैर, आज हम किसी नाकारापन की चर्चा नहीं करेंगे. क्योंकि आज सुबह-सुबह हमने सड़क पर कुछ होता देखा. सड़क के बीचों-बीच एक बड़ा चौराहा था,जिस पर अच्छी-खासी हलचल थी. किनारे पर कुछ कौवे,चिड़िया और कबूतर चहकते हुए ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे थे, क्योंकि उन्होंने साल-भर तक बीट के रूप में जो भी मल त्याग किया था, उसे रगड़-रगड़ कर धोया जा रहा था. नज़दीक ही फायर-ब्रिगेड की गाड़ियाँ खड़ी थीं,जिनसे सड़क के चेहरे से मैल की परत  उतारी जा रही थी.चौराहे के बगीचे से सूखे खर-पतवार और गन्दगी बीन कर हटाई जा रही थी. लोगों ने जूठे कागजों के जो अम्बार लगा दिए थे, उन्हें हटा कर कचरा-पात्रों में डाला जा रहा था. आस-पास की मंडियों से फूल-मालाएं इकट्ठी करके जमा की जा रही थी. एक ओर से कुछ राष्ट्रीय-गीत बजने की आवाजें आ रही थीं. 
दरअसल चौराहे पर एक राष्ट्रीय ही नहीं, बल्कि अंतर-राष्ट्रीय महा-पुरुष की आदम-कद प्रतिमा लगी थी. 
क्योंकि आज एक अक्तूबर था, महीने का पहला दिन, दफ्तर पहुँचने की हड़बड़ी में इससे ज्यादा कुछ देखा नहीं जा सका. कल की आने वाली तारीख को याद करते-करते मुझे यह अच्छा लगा, कि यह देश चाहे  सांस लेना भूल जाये, शासन चलाना भूल जाये, भ्रष्टाचार में आकंठ डूब जाये, पर "गाँधी" नाम को चमकाए रखना नहीं भूलेगा.      

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...